Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 62
________________ ३३६) गोचरी निकलनेवाले साधु को श्रोतादि पांच इन्द्रीयो की आसक्ति नहीं करनी अगर उसका ध्यान इन्द्रीय के विषय में गया तो वह एषणा और अनेषणा को सम्यक् जान नहीं सकेगा । ३३७) पास में गोचरी जाकर फीर वापीस मेरे घर पधारो - जो ऐसा कहे उसके घर पर पुन: गोचरी नहीं जाना । ३३८) साधु के निमित्त से बने हुए सिर्फ आहार ही नही बल्की पानी, उपकरण (या दिये हुए) वसति ( उपाश्रयादि) सभी में आधाकर्मी का दोष लगता है । ३३९) सामान्य से श्रुत में उपयोगवंत श्रुतज्ञानी अनजाने में अशुध्द गोचरी ग्रहण करके आवे, तो भी केवलज्ञानी उसको ग्रहण करें, अन्यथा श्रुतज्ञान अप्रमाणित बने । श्रुत के अप्रमाणितपणे में चारित्र का अभाव और चारित्र के अभाव में मोक्ष का अभाव होवे । ३४०) साधु प्राय: अलेपकृत आहार करे, इसलिए मुनि को ज्यादा से ज्यादा आयंबिल करने का विधान बताया है । शरीर या संयम योग की ग्लानि में बल प्राप्त करने कदाचित विगई का उपयोग करना पडे तो (छाछ) तक्रादि ही उपयोगी है, उसका ग्रहण करना । ३४१) चावल, उडद, वटाने (सूके), वाल, तुवेर, मुँग, मसुर आदि अलेपकृत द्रव्य है । ३४२) वत्थुले की भाजी, राब, छाछ, ओसामण, पकाई हुई दाल यह सब अल्प लेपकृत द्रव्य है । ३४३) दूध, दही, खीर, गुड का पानी, खजूर आदि द्रव्य बहुलेपकृत द्रव्य है, साधु बहुलेपकृत द्रव्य का त्याग करें ।

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