Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 58
________________ २९७) साधु त्रसकाय के जीव का संघट्टा करे - कुचले मर्दन करे तो वह कर्म जब उदय में आवे तब यंत्र में जैसे गन्ने का रस नीकले इस प्रकार से वह भुगतना पडे, यह भुगतने का जधन्य काल१२ वर्ष, मध्यम १.००० वर्ष, उत्कृष्ठ-१०,००० वर्ष, जानबुजकर उपद्रव या क्रिया करने के निमित्त से करे तो करोडो वर्ष तक यह पापफल भुगतना पडता है, ऐसा जिनेश्वरों का कथन है । और DIGE २९८ ) जो भावाचार्य है, वह तीर्थंकर के समान ही है, इसलिए भावाचार्य के वचन की आशातना साक्षात् तीर्थंकर की आशातना है । २९९) दिक्षा छोडकर गृहस्थी बननेवाले को, उसे यहाँ कोई न पहचाने ऐसा क्षेत्र- प्रदेश में जाकर रहना चाहिए । और अणुव्रत ( श्रावक) का पालन करना चाहिए, जिसके कारण परिणाम निर्ध्वंस न बने । ३००) बातचीत से प्रणय उत्पन्न होता है प्रणय से रति, रति से विश्वास और विश्वास से स्नेह उत्पन्न होता है, इसलिए मुनि स्त्रीयों से बातचीत भी ना करे । ३०१) दिक्षा छोडने की इच्छावाले मुनि को अपना वेश और रजोहरण कसी भी हालत में गुरु को वापीस हाथ में देकर ही जाना । ( उस समय अगर जीव योग्य - पात्र हो, तो गुरु द्वारा विविध युक्ति से समजाने, उपाय आजमाने पर, वह शायद संयम में पुनः स्थिर हो जावे। ३०२) एक मच्छीमार खुद की पूरी जिंदगी में मछली पकडके, जितना पाप बांधता है, उससे ८ गुना ज्यादा पाप महा व्रतभंग (नियमपंच्चखाण भंग) करने की मनसे इच्छा करनेवाला जीव बांधता है । -

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