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२७८) इरियावही कीये बिना चैत्यवंदन - स्वाध्याय - ध्यान आदि करना कल्पें नहीं ।
२७९) मैथुन संबंधी भोग का मन से कुछ मीनोटो के लिए विचार भी करे तब तक तो असंख्याता समय और आवलिका निकल जाती है, जितने समय और आवलीका निकली उसके प्रथम समय से ही कर्म की स्थिती बांधने की शुरुवात हो जाती है इस प्रकार दुसरे, तीसरे एैसे प्रत्येक समय यावत् असंख्यात - अनंत समय क्रमशः पसार हो जाते है तो असंख्यात उत्सपाणी - अवर्सपीणी काल पसार हो तब तक तिर्थय-नरक की कर्म स्थिती का जीव कर्म उपार्जन कर लेता है। इस प्रकार मैथुन संकल्प भी कालचक्र में भयंकर भवभ्रमण का कारण है, यह सोचकर जीव मन से भी मैथुन की इच्छा न करे ।
लेकिन इस में आसक्त - रागांध जीव को, इसमें अति भारी दोष, व्रत खंडन, शील भंग, संयम विराधना, परलोक में दुर्गति, अनंत भव भ्रमण आदि कुछ भी दिखता नहीं है । मैथुन सेवन की इच्छा से जीव शरीर अवयव सन्मुख बने तो वह अपनी कर्म स्थिती बध्ध स्पृष्ट करे और मैथुन सेवे तो वह निकाचीत कर्म स्थिती बाधे.
२८०) साधु-साध्वी या पौषधधारी रात को कान में रुई डाले बिना सोए तो प्रायश्चित आवे |
२८१) शायद मन में मैथुन विचार आ जाए तो उत्तम जीव उसे रोककर, साँसपर नियंत्रण करके, उस विचार के तुरंत निंदा गर्हाआलोचना करके शुध्द हो जावे ।
२८२) जिस प्रकार हिंसा के संकल्प करनेवाले को धर्म न स्पर्शे, उसी प्रकार स्त्री संकल्प करनेवालों को भी धर्म न स्पर्शे (न रुचे ) ।