Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ ९७) साधु को निरंतर चिंतन योग्य ३ भावनाएँ १. कब में सब श्रुत-ज्ञान को पढुंगा । आगम का पारगामी बगा। -- २. कब में एकलविहारी प्रतिमा धारण कर अप्रमत विचरुंगा (१२ प्रतिमा धारक भिक्षु बढुंगा) ३. कब में पादोपगमन संथारा करुंगा । (अनशनव्रत अंगीकार करुंगा) ९८) दोष रहित अभ्यास बिना श्रुत-ज्ञान के अर्थ की प्रतिती न होने से सुध्यान होता नहीं है, यानि ज्ञान प्रकाशक' है, तप 'शोधक है और संयम 'गुप्तिकर' है इन तीनो के समायोग में ही मोक्ष कहा गया है। ९९) धर्मध्यान के ४ प्रकार १. आज्ञा विचय =आप्त पुरुष समान तीर्थंकर आचार्यादि के वचनो को सुनकर प्रवचन के अर्थ का विचार करना। २. अपाय विचय=आश्रव-प्रमाद आदि से होनेवाले दोषो का चिंतन करता। ३. विपाक विचय-शुभ या अशुभ कर्म के भूगतने वाले विपाक फल-परिणाम का चिंतन करना (यहाँ मूर्ति, आलंबन आदि स्थापना निक्षेप) आया। ४. संस्थान विचय = द्रव्य-क्षेत्र-आकृति का चिंतन करना (यहा मूर्ति आलंबन आदि से स्थापना निपेक्षा आया) १००) शुक्ल ध्यान के ४ भेद : १. पृथकत्व विर्तक सविचारी-शब्द से अर्थ में या मन आदि कोई एक योग से दुसरे योग में श्रुत सहित जाना वह विचार सहित ध्यान (वह भेद अरागभाव दशावाले जीव को होता है।)

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86