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विविध प्रकार के पर्वत, गुफा, वन, नगर, आदि आवासो में अंतर (आश्रय) करनेवाला जीव को व्यंतर कहेते है। व्यघात को आश्रित बादर अग्नि अति स्निग्ध या अति रुक्ष कालमें नहीं होता । यहाँ अवसँपीणी काल के १-२-३- आरे में अति स्निग्ध काल और ठढे आरे में अति रुक्ष काल है,
इसलिए अग्नि नहीं है। १९०) कुशल (अच्छे) कार्य में भी गुरु की आज्ञा बिना प्रवृत्ती नहीं
करनी क्योंकि इससे विनय गुण की हानी होती है। १९१) जो अति दुःखी होते है वह अकसर तेज श्वास लेते है, श्वास
छोडते है, जो सुखी (मन-चित से प्रसन्न है) वह धीरे धीरे साँस लेते-छोडते है जैसे की नारकी के जीव निरंतर साँस लेते-छोडते है और देवलोक के जीव धीरे धीरे। व्यवहार में भी देखा गया है की कामवासना या क्रोध के समय जीव तेज साँस लेता-छोडता है, और शांति चित्त बैठा रहे, तब साँस धीरे चलती है । यानि
साँस 'शांति' का कारण होती है। १९२) जो तेज साँस लेते/छोडते है वह प्राय: ज्यादा आहारी होते है
और जो धीरे-धीरे (अल्प) साँस लेते/छोडते है वह प्राय: अल्प आहारी होते है। (उदा- नरक के जीव-वैमानिक या स्वार्थ सिध्ध के जीव) (या
कषायी मनुष्य-श्रमण/मुनि) १९३) पित्त प्रकोप से क्रोध अति बढता हुआ बनता है, ब्राह्मी औषध
रुप द्रव्य ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम का कारण है वैसे ही मदिरापान, ज्ञानावरणीय के उदय का और दहीं निरक्षररुप दर्शनावरणीय के उदय का कारण है।