Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 47
________________ २२६) ३६ गुणयुक्त आचार्य भी दुसरे गीतार्थ आचार्य के पास अपनी आलोचना करे। २२७) आचार्य नए उपकरणो का मूर्छारहित होकर संग्रह करे, पुराने उपकरनो का संरक्षण करे। २२८) हे श्रमाश्रमण ! आप जैसे उत्तम पुरुष भी प्रमादाधीन होकर यदि ऐसा आचरण करेंगे तो इस संसार में हमारे लिए और कौन आलंबन होगा ? इत्यादि वचन मधुर रुप से कहकर शिष्य भी गुरु को उचित बोध करे। २२९) गुरु सभी कार्यो को अविपरित (झोळींळींश) देखे। २३०) जो आचार्य-उपाध्याय विधिपूर्वक प्रेरणा देकर शिष्यो को सूत्र अर्थ पढावे वह धन्य है, जिनेश्वरोने बताए हुए आचार मार्ग को यथार्थ रुप से बतावे वह आचार्य, तीर्थंकर समान है। २३१) भ्रष्ट आचारी साधु की उपेक्षा करनेवाले आचार्य, जिनमार्ग के नाशक है। २३२) गुरुकुलवास (गच्छ) में रहने से, सारणा-वारणा-प्रेरणादि समय-समय पर मिलती रहेने से, जीव को विपुल कर्म निर्जरा होती है। २३३) साध्वीजी की लाई हुई गोचरी साधु को कल्पें नहीं। २३४) उपाश्रय को झाडू से साफ करना नहीं कल्पे। २३५) साधुओ की गोचरी मांडली में साध्वीओं का प्रवेश सर्वथा वर्ण्य २३६) मुनि वस्त्र-उपकरण-मुमुक्षु आदि का क्रय विक्रय करके (धन से लेन देन) संयम भ्रष्ट न बनें।

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