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२५६) साधुओ को गृहस्थ के घर से लाई हुई कोई भी वस्तु (वस्त्र
पात्र - केवल) आदि पहले आचार्य (गुरु) के चरणों में रखकर, फीर उनकी आज्ञा लेकर अपने पास रखनी - उपयोग करनी कल्पती है ।
२५७) साधु-साध्वी, जहाँ ज्ञान दर्शन - चारित्र की वृध्धि होती हो, उसी क्षेत्र में विचरना कल्यें ।
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२५८) नूतन दिक्षितो को १ साल तक नए वस्त्र ग्रहण करने नहीं कल्पें । २५९) आचार्यादि का प्रथम विहार, मुहूर्त देखकर करने का विधान है।
२६०) ग्लान (बिमार साधु) की सेवा, तीर्थंकर की सेवा करने समान है। २६१) शय्यात्तर को उसकी वस्तु (पाट-पाटला इत्यादी) वापीस देकर ही ग्रामान्तर विहार करना कल्पें ।
२६२) साधु कलह करके जबतक उपशांत न बने तब तक उसे उपाश्रय के बाहर कीसी भी कारण से जाना-आना न कल्यें ।
३६. श्री व्यवहार सूत्र
२६३) 'इतने मेरे दोष है, और इस भाव से, इतनी बार इसका सेवन किया है' ऐसा बोलकर प्रायश्चित करना चाहिए ।
२६४) सत्य प्रतिज्ञा लीए हुए साधुओ के सत्य कथन के उपर ही प्रायश्चित का व्यवहार निर्भर होता है ।