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दस प्रकार की सत्य भाषा है, उसमें स्थापना सत्य यानि जिसकी स्थापना हुई हो, उसका नाम बोलना जैसे की, अरिहंत प्रतिमा की स्थापना को अरिहंत बोलना-मानना-अन्यथा मृषावाद का
दोष लगे। १९४) उन्मार्ग उपदेशक, मार्ग नाशक, गूढ हृदयी, मायावी, शठ
स्वभावी, शल्य युक्त जीव को तिर्यंय गती का आयुष्य बांधता है। १९५) जोर-जोरसे हँसना, गुरु आदि के साथ निष्ठुरताएँ या वक्रोक्ति से
स्वेच्छापूर्वक बोलना, कामकथा करनी या उपदेश देना, स्वप्रशंसा करनी यह सब कंदर्प वचन है । इसका त्याग करना
चाहिए। १९६) मोक्षभिलाषी साधु को ज्योतिषशास्त्र, जंबू-द्विपादि खगोल
आदि ज्ञान शीखने की क्या जरुरत है ? - ऐसा बोलना भी
श्रुतज्ञान का अवर्णवाद (निंदा) है। १९७) जिसके द्वारा मनमें आर्तध्यानादि अशुभ चिंतन चले, इन्द्रीयो का
नाश होवे, और योग क्षीण होवे - ऐसा अशक्य तप करने का
जिनेश्वरोने निषेध किया है। १९८) पूर्व भव के शरीर, शस्त्र, अधिकरण आदि को जो वोसिराया न
हो, तो उसके द्वारा होनेवाले कर्मबंध का दोष जीवो को इस भव में भी लगता है। इसलिए अनुपयोगी सब चीजो को वोसीराना (त्यागना) अत्यंत
जरुरी है। १९९) अभव्य जीवो को तीर्थंकर अप्रिय लगते है।
प्रश्न : गैवेयक और अनुतर विमानवासी देव मैथुन का सेवन नहीं करते है तो उन्हे ब्रह्मचारी क्युं नहीं कहा ?