Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 17
________________ हे गोशालंक (कुल्ले १ कोगळाजेटलुं पाणी) जो नाखून सहित मोडे हुए ( १ मुट्ठी) उडद के बाकुले की मुष्टी के द्वारा और एक चुलु प्रमाण पानी के द्वारा निरंतर छठ्ठ (बेले के पारणे बेला) तप करके उपर हाथ रखकर सूर्य की सन्मुख आतापना भूमि में आतापना लेता हुआ विचरे उसे ६ मास महिने के अंत में संक्षिप्त विस्तीर्ण ऐसी विपुल तेजोलेश्या की प्राप्ती होती है । वर्तमान कालमें २० वी सदीमें गिरनार के रहे हुए एक साधक ने ऐसी साधना करके यह सिध्धि पाई थी। साधु शरीर को किंचित झुकाता हुआ, अनिमेष नेत्र से एक पुदगल पर निश्चल दृष्टि रखकर, दोनो पैरो को संकुचित करके लंबे हाथ करके कार्योत्सर्ग में रहे। ९२) संघ का, या धर्म का, या साधु साध्वीओ का अपलाप-निंदा करनेवाला जीव किल्बीषीक बनता है, जैसे चांडाल आदि मनुष्यगति के अश्पृश्य है वैसे ही. किल्बीषीक (देवगती) के अश्पृश्य निम्न कोटी के है। ९४) हस्तकर्म करनेवाले, या रात्रिभोजन के दोष का सेवन करनेवाले मुनि को तथा शय्यात्तर के घर का आहार लेनेवाले मुनि को १५ उपवास का प्रायश्चित्त आता है। ९५) अविनित, विगई भोजन आसक्त, मायावी और अति क्रोधी को वाचना देनी चाहिए नहीं। परिहार विशुध्ध तप को आचरनेवाले मुनि परिहारक वर्षाऋतु में उत्कृष्ट से ५, मध्यम से ४, जधन्य से ३ उपवास करे, शिशिर में ४.३.२, ग्रीष्म में ३.२.१ उपवास करे और पारने में आयंबिल करके पुन: उपवास प्रारंभ करे। ९६)

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