Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 27
________________ यहाँ एक बात उल्लेखनीय है की, लब्धि का सेवन सुविहित संवेगी साधु जीवन में प्रमाद के द्वारा होता है, इसलिए यदि ऐसे मुनि लब्धि का प्रयोग करने के बाद आलोचना-प्रतिक्रमण कीये बिना काल (मृत्यू) करे तो विराधक बनते है और अपने कीए हुए लब्धि प्रयोग की आलोचना आदि करके काल करे तो आराधक १३९) साधु को उत्सर्ग से, सुर्योदय से ४ घडी बाद तक और शाम सूर्यास्त से ४ घडी पहेले (कामली काल) मे अपने स्थान (उपाश्रय) से बाहर जाना भी कल्पना नहीं है। . १४०) साधु को शास्त्र का विशिष्ट ज्ञान न भी हो, तो भी जधन्य से अष्टप्रवचन माता का ज्ञान और उसके अनुरुप उत्कृष्ट आचारण करनेवाला क्षमण भी सुंदर आराधक है। १४१) आलोचना करनेवाले आलोचक के दोष विपरीत आलोचना - १. आलोचना देनेवाले आचार्य की वैयावच्च करे, ताकी वो मेरे ___ पर प्रसन्न होकर मुझे थोडी ही आलोचना (प्रायश्चित) देवे। २. बडे अपराधो को छोटा करके बतावे (ज्यादा दंड के भय से) ३. आचार्य जब अपराध देख ले, पकड ले, तब ही आलोचना करे। ४. छोटे और बडे अतिचार हुए हो तो, छोटे छोटे अतिचार की आलोचना न करे. ५. छोटे से छोटे अतिचार ही आलोचे, ताकि सामनेवाले का विश्वास संपादित हो, फीर बडे अतिचार न आलोचे. ६. अति शरम से अस्पष्ट रुप से आलोचना करे।

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