Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 25
________________ १२८) मन-वचन-काया कि ऋजुता (तथा अविसंवादितता) (कथनी-करनी ऐक जैसी) के द्वारा जीव शुभनाम कर्म बांधता है । और इसके विपरीत करने से जीव अशुभ नाम कर्म बांधता है । १२९) जो व्यक्ति ने हमें कार्य सोपा हो, वह काम पूर्ण होने के बाद वापीस वह कार्य सोपनेवाले व्यक्ति को कार्य पूरा हो गया' ऐसा अवश्य कहना चाहिए। १३०) जमाली अणगार अरस-विरस-रुक्ष आहार लेकर बाह्य रुप से उग्र चारित्र का पालन करते हुए भी आचार्य-उपाध्याय यावत संघ की निंदा अवर्णवाद करके अंत समय १५ दिन का संथारा लेकर भी पूर्व के दोष की आलोचना प्रतिक्रमण-प्रत्याखयान नहीं करने से कील्बीषीक नाम की हलके में हलकी देवयोनी में उत्पन्न हुए। १३१) अभ्युपगमिक वेदना यानि जो वेदना खुद ही स्वीकारते है वो उदा-केशलोचन, आतापना लेनी कायक्लेश आदि और उपक्रमिकी वेदना यानि जो उदय में आई हो जैसे की दाहज्वर (बुखार) अन्य बिमारीयाँ आदि । १३२) पांचवे आरे के अंत में धर्म का जो नाश बताने आया है वह, देश विरती और सर्व विरती की अपेक्षा से समजना। १३३) श्रावक पौषध में हो, तो प्रवचन दे सके (यदी साधु न हो, तो) १३४) बेला (छठ्ठ) तप करके श्रमण जितने कर्म की निर्जरा करे उतने कर्म शेष (बाकी) रह जाने से जीवन अनुत्तर देवलोक में उत्पन्न होते है। १३५) हाथ या वस्त्र से मुख को ढककर बोली गई भाषा अनवर्ध है और बिना हाथ या वस्त्र मुख पर रखे, यूँही खुल्ले मुँह बोली गई भाषा सावध है।

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