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११०) आचार्य और ग्लान (बिमार ) साधु के वस्त्र का काप बारम्बार निकालना अर्थात इन दोनो को श्वेत उज्जवल वस्त्र ही पहनने और श्रेष्ठतम आहार से आचार्यकी भक्ति करनी चाहिए (मेले नहीं)
१११) इन (८) चीजो में सम्यक पुरुषार्थ - उर्धम-पराक्रम करना चाहिए ।
(१) श्रुत धर्म सुनने में
(२) सूने हुए भूल न जाए, दृढ रहे उसके लीए (३) सयंम में ( ४ ) तप में
(५) शिष्यवर्ग के संग्रह के लिए
(६) नूतन दिक्षीतो को समाचारी भिक्षाचर्या आदि का ज्ञान शीखाने में
(७) बिमार की वैयावच्च करने में
(८) साधूओ के परस्पर कलह को रोककर शांत करने में
११२) साधु चार प्रकार के आहार मे से उत्सर्ग से खादिम और स्वादिम रुप २ प्रकार के आहार का कायमी त्यागी रहेवे ।
११३) काम विकार रोग का कारण है क्योंकि काम विकार की अप्राप्ति में भी पहेले अभिलाष, फीर चिंता - स्मरण - गुणकीर्तन-उद्वेगप्रलाप - उन्माद-व्याधि- जडता और अंत में मृत्यु होता है तथा अति विषय सेवन करने से भी क्षय रोग (टी.बी.) आदि होते है ।
११४) प्रश्न : अनागत और अतिक्रान्त तप यानि क्या ?
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कोई साधु पर्युषण में मुझे आचार्य, ग्लान, तपस्वी आदि की वैयावच्य करनी होनी तब मेरे से तप नहीं होगा इस लीए पर्युषण काल के पहले ही तप कर लेवे वो अनागत तप और इसी प्रकार