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सम्पादकीय
- प्राचीन जैन साहित्य में बत्तीस आगमों का स्थान सर्वोपरि है। इन आगमों में तीर्थंकर भगवंतों के उपदेश उनके प्रधान शिष्यों (गणधरों) ने सूत्रबद्ध करके संकलित किए हैं। कुछेक सूत्रों का संकलन/निर्वृहण बाद के आचार्यों ने भी किया। परन्तु इन सूत्रों में भी मूल उपदेश भगवान् महावीर के ही हैं।
तीर्थंकर महावीर ने कैवल्य के आलोक में जैसा देखा, वैसा ही प्ररूपित किया। गणधरों ने तीर्थंकर महावीर की प्ररूपणाओं को यथारूप अपनी प्रज्ञा में सहेजा और पूरे कौशल से उन प्ररूपणाओं को सूत्रबद्ध किया। वह सूत्रबद्ध ज्ञान गंगोत्री गुरु-शिष्य परम्परा से एक हजार वर्षों तक प्रवाहित होती रही। गुरु अपने शिष्य को सिखाते, आगे शिष्य अपने शिष्यों को सिखाते। काल के प्रभाव से साधकों की स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगी। स्मरण-शक्ति के ह्रास से आगम-साहित्य भी प्रभावित होने लगा। विशाल वाङ्मय को स्मृति में सुरक्षित रख पाना सहज नहीं था। समय-समय पर पड़ने वाले दुर्भिक्ष भी श्रुत-राशि के विच्छेद के कारण बने। अनेक श्रुत-सम्पन्न श्रमण दुर्भिक्ष के कारण काल-कवलित हो गए। अनेक श्रमण-समुदाय भारतवर्ष के दक्षिणादि सुदूर अंचलों में चले गये। परस्पर मिलन के अभाव में जो बड़ी हानि हुई वह श्रुतराशि के विच्छेद के रूप में सामने आयी। आखिर भगवान् महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने श्रुत के ह्रास को रोकने के लिए वल्लभी नगरी में श्रमण-सम्मेलन का आह्वान किया। इस सम्मेलन में अनेक विद्वान मुनिराजों ने सहभागिता की। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के निर्देशन में प्रथम बार सूत्रों को कलमबद्ध किया गया। पुस्तकारूढ़ होने से आगम साहित्य में जहाँ एकरूपता आई वहीं सूत्रपाठों के विच्छेद का क्रम भी बन्द हो गया।
वर्तमान में बत्तीस आगमों की उपलब्धता देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की दूरदर्शिता का सुपरिणाम है। इसीलिए जैन जगत में आर्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण को एक युगान्तरकारी महापुरुष के रूप में जाना-माना और पूजा जाता है।
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