Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi, Amrutlal Bhojak
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 375
________________ ३१६ वियाहपण्णत्तिसुत्तं [स०७ उ०१० विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाते भदए भवति, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स०६ उ० ३ सु० २ [१]) जाव भुजो भुज्जो परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाते भद्दए भवइ, ततो पंच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग० जाव कजति । १७. अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कति ? हंता, कजति । १८. कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति ? कालोदाई ! १० से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहसम्मिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाते णो भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमति। एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवातवेरमणे जाव परिग्गह वेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ, १५ ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कति । [सु. १९. कालोदाइकयाए अगणिकायसमारभण-निव्वाषण संबंधियकम्मबंधपुच्छाए भगवओ समाहाणं] १९. [१] दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्न पिंडो॥ तत्र मांसत्रयम् जलजादिसत्कम् । जूषः-मुद्गा-तन्दुल-जीरक-कटुभङ्गादिरसः (कटुभङ्गम्आर्द्रकम् शुण्ठी वा)। भक्ष्याणि-खण्डखाद्यानि। गुललावणिया-गुडपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा । मूल फलानि एकमेव पदम् । हरितकं-जीरकादि । डाकः-वास्तुलकादिभर्जिका (भर्जिका-भाजी)। रसाल:-मर्जिका, तल्लक्षणं च इदम्-दो घयपला महुपलं दहियस्सऽद्धाढयं मिरिय वीसा। दस खंड-गुलपलाई एस रसालू निवइजोगो॥ पान-सुरादि। पानीयं-जलम् । पानकं-द्राक्षापानकादि। शाकः-प्रसिद्धः।" अवृ० । अभयदेवीयवृत्तिगत 'रसालू' शब्दपर्यायभूत 'मणिका'वत् 'मार्जिता' नामकलेह्योल्लेख उपलभ्यते, तद्यथा-“मार्जिता-दधि-सिता. मरीचादिकं लेह्यम् –“अर्धाढकं सुचिरपर्युषितस्य दध्नः खण्डस्य षोडश पलानि शशिप्रभस्य। सर्पिष्पलं मधुपलं मरिचद्विकर्षम् शुण्ठ्याः पलार्धमपि चापलं चतुर्णाम् ॥ श्लक्ष्णे पटे ललनया मृदुपाणिघृष्टा कर्पूरधूलिसुरभीकृतभाण्डसंस्था। एषा वृकोदरकृता सरसा(सुरसा) रसाला या स्वादिताभगवता मधुसूदनेन ॥" सूदशास्त्रम् , अमर० क्षीर०॥ १. पच्छा विपरि मु० अ०च॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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