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आचारांगभाध्यम नवांग
१. सुत्त --भगवान् बुद्ध के गद्यमय उपदेश । २. गेग्य-गद्य-पद्य मिश्रित अंश । ३. बेय्याकरण-व्याख्यापरक ग्रन्थ । ४. गाथा-पद्य में रचित ग्रन्थ । ५. उदान-बुद्ध के मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार । ६. इतिवृत्तक-छोटे-छोटे व्याख्यान जिनका प्रारम्भ 'बुद्ध ने ऐसे कहा' से होता है। ७. जातक-बुद्ध की पूर्व-जन्म-सम्बन्धी कथाएं। . ८. अन्भुतधम्म- अद्भुत वस्तुओं या योगज-विभूतियों का निरूपण करने वाले ग्रन्थ ।
९. वेदल्ल-वे उपदेश जो प्रश्नोत्तर की शैली में लिखे गए हैं।' द्वादशांग
(१) सूत्र, (२) गेय, (३) व्याकरण, (४) गाथा, (५) उदान, (६) अवदान, (७) इतिवृत्तक, (८) निदान, (९) वैपुल्य, (१०) जातक, (११) उपदेश-धर्म और (१२) अद्भुत-धर्म।'
जैनागम बारह अंगों में विभक्त हैं-(१) आचार, (२) सूत्रकृत, (३) स्थान, (४) समवाय, (५) भगवती, (६) ज्ञाताधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अन्तकृद्दशा, (९) अनुत्तरोपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाक और (१२) दृष्टिवाद ।
'अङ्ग' शब्द का प्रयोग भारतीय दर्शन की तीनों प्रमुख धाराओं में हुआ है। वैदिक और बौद्ध साहित्य में मुख्य ग्रन्थ वेद और पिटक हैं । उनके साथ 'अङ्ग' शब्द का कोई योग नहीं है । जैन साहित्य में मुख्य ग्रन्थों का वर्गीकरण गणिपिटक है । उसके साथ 'अङ्ग' शब्द का योग हुआ है । गणिपिटक के बारह अङ्ग हैं-'दुवालसंगे गणिपिडगे।"
जैन-परम्परा में श्रुत-पुरुष की कल्पना भी प्राप्त होती है। आचार आदि बारह आगम श्रुत-पुरुष के अङ्गस्थानीय हैं । संभवतः इसीलिए उन्हें बारह अङ्ग कहा गया। इस प्रकार द्वादशांग गणिपिटक और श्रुत-पुरुष दोनों का विशेषण बनता है। ५. प्रथम अङ्ग
द्वादशांगी में आचारांग का पहला स्थान है। इस विषय में दो विचारधाराएं प्राप्त होती है। एक धारा के अनुसार आचारांग पहला अङ्ग स्थापनाक्रम की दृष्टि से है, रचना-क्रम की दृष्टि से वह बारहवां अङ्ग है। दूसरी धारा के अनुसार रचनाक्रम और स्थापना-क्रम-दोनों दृष्टियों से आचारांग पहला अङ्ग है। आचार्य मलयगिरि तथा अभयदेवसूरि दोनों ने ही उक्त दोनों विचारधाराओं का उल्लेख किया है। ये धाराएं उनसे पहले ही प्रचलित थीं। अङ्ग पूर्वो से निढ हैं, इस अभिमत के आलोक में देखा जाए तो यही धारा संगत लगती है कि आचारांग स्थापना-क्रम की दृष्टि से पहला अङ्ग है, किन्तु रचना-क्रम की दृष्टि से नहीं । नियुक्तिकार ने 'आचार' को प्रथम अङ्ग माना है। उनके अनुसार तीर्थङ्कर सर्व प्रथम 'आचार' का और फिर क्रमशः शेष अङ्गों का प्रतिपादन करते हैं।' गणधर भी उसी क्रम से अङ्गों की रचना करते हैं।' नियुक्तिकार ने आचारांग की प्रथमता का कारण भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है-आचारांग में मोक्ष के उपाय (चरण-करण या आचार) का प्रतिपादन किया गया है १. सद्धर्मपुंडरीक सूत्र, पृ० ३४ ।
(ख) वही, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : गणधराः पुनः २. बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ 'अभिसमयालंकार' की टीका, पृ० ३५ :
सूत्ररचनां विदधतः आचारादिक्रमेण विदधति सूत्रं गेयं व्याकरणं, गाथोदानावदानकम् ।
स्थापयन्ति वा। इतिवृत्तकं निदानं, वैपुल्यं च सजातकम् ।
७.(क) समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : प्रथममङ्ग स्थापनाउपदेशाद्भुतौ धर्मो, द्वादशांगमिदं वचः ॥
मधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमङ्गम् । ३. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८८ ।
(ख) वही, पत्र १२१ : गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना ४. मूलाराधना, ४१५९९ विजयोदया : श्रुतं पुरुषः मुखचरणा
आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च । द्यङ्गस्थानीयत्वादंगशब्देनोच्यते।
८. आचारांग नियुक्ति, गाथा : ५. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ८९ : से गं अंगट्ठयाए
सम्वेसि आयारो, तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । पढमे अंगे।
सेसाई अंगाई, एक्कारस आणुपुव्वीए। ६. (क) नंदी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २११: स्थापनामधिकृत्य ९. वही, गाथा ८ वृत्ति : गणधरा अप्यनयवानुपूर्व्या सूत्रतया प्रथममङ्गम् ।
ग्रन्थन्ति ।
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