Book Title: Acharangabhasyam
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ भूमिका १५ अन्य मुनियों ने आगम-ग्रन्थों की रचना नहीं की-यह प्रश्न सहज ही उठता है। भगवान् महावीर के चौदह हजार शिष्य थे।' उनमें सात सौ केवली थे, चार सौ वादी थे। उन्होंने ग्रन्थों की रचना नहीं की, ऐसा सम्भव नहीं लगता । नन्दी में बताया गया है कि भगवान महावीर के शिष्यों ने चौदह हजार प्रकीर्णक बनाए थे। ये पूर्वो और अङ्गों से अतिरिक्त थे। उस समय अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य ऐसा वर्गीकरण हुआ, यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है । भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रन्थ रचे, तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा । चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दस-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ किन्तु उन्हें स्वत: प्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परतः था। वे द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका परतः प्रामाण्य था, इसीलिए उन्हें अङ्ग-प्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हई। इस स्थिति के संदर्भ में आगम की अङ्ग-बाह्य कोटि का उद्भव हुआ। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य के भेद-निरूपण में तीन हेतु प्रस्तुत किए हैं१. जो गणधर-कृत होता है, २. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित होता है, ३. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता हैवही श्रुत अङ्ग-प्रविष्ट होता है। इसके विपरीत (१) जो स्थविर-कृत होता है, (२) जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थङ्कर द्वारा प्रतिपादित होता है, (३) जो चल होता है-तात्कालिक या सामयिक होता है-उस श्रुत का नाम अङ्ग-बाह्य है। अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है। जिस आगम के वक्ता भगवान महावीर हैं और जिसके संकलयिता गणधर हैं, वह श्रुत-पुरुष के मूल अङ्गों के रूप में स्वीकृत होता है, इसलिए उसे अङ्ग-प्रविष्ट कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते हैं -(१) तीर्थङ्कर, (२) श्रुत-केवली (चतुर्दश-पूर्वी) और (३) आरातीय। आरातीय आचार्यों के द्वारा रचित आगम ही अङ्ग-बाह्य माने गए हैं। आचार्य अकलंक के शब्दों में आरातीय आचार्य-कृत आगम अङ्गप्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होते हैं इसीलिए वे अङ्ग-बाह्य कहलाते हैं ।' अङ्ग-बाह्य आगम श्रुत-पुरुष के प्रत्यंग या उपांग स्थानीय ४. अङ्ग द्वादशांगी में संगभित बारह आगमों को अङ्ग कहा गया है। अङ्ग शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के साहित्य में प्राप्त होता है । वैदिक साहित्य में वेदाध्ययन के सहायक-ग्रन्थों को अङ्ग कहा गया है । उनकी संख्या छह है १. शिक्षा-शब्दों के उच्चारण-विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ । २. कल्प-वेद-विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित प्रतिपादन करने वाला शास्त्र । ३. व्याकरण-पद-स्वरूप और पदार्थ-निश्चय का निमित्त-शास्त्र । ४. निरुक्त-पदों की व्युत्पत्ति का निरूपण करने वाला शास्त्र । ५. छन्द -मंत्रोच्चारण के लिए स्वर-विज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र । ६. ज्योतिष-यज्ञ-याग आदि कार्यों के लिए समय-शुद्धि का प्रतिपादक शास्त्र । वैदिक साहित्य में वेद-पुरुष की कल्पना की गई है। उसके अनुसार शिक्षा वेद की नासिका है, कल्प हाथ, व्याकरण मुख, निरुक्त श्रोत्र, छन्द पैर और ज्योतिष नेत्र हैं । इसीलिए ये वेद-शरीर के अङ्ग कहलाते हैं।' पालि-साहित्य में भी 'अङ्ग' शब्द का उपयोग किया गया है। एक स्थान में बुद्ध-वचनों को नवांग और दूसरे स्थान में द्वादशांग कहा गया है। १. समवाओ १४॥४॥ ४. तरवार्थभाष्य, १२० : वक्तविशेषाद् दैविध्यम् । २. नन्दी, सू० ७८ : चोद्दसपइन्नगसहस्साणि भगवओ ५. सर्वार्थ सिद्धि, १२० : त्रयो वक्तारः-सर्वज्ञस्तीर्थकरः, वद्धमाणस्स। इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५२: ६. तत्त्वार्थराजवातिक, १२०: आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थगणहर-थेरकयं वा, आएसा मुक्क-वागरणओ वा । प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । धुव-चल विसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणतं ॥ ७. पाणिनीय शिक्षा, ४१,१२ । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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