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अचलगच्छ का इतिहास कठोरतम दण्ड की व्यवस्था थी। वस्तुत: जो दण्ड एक मुनि की हत्या करने वाले का था उतना ही दण्ड एक संघ भेद करने वाले को था। फिर भी संघ स्थापना के बाद प्रथम संघ भेद जामालि द्वारा ‘क्रियमान कृत या अकृत' के दार्शनिक विवाद के आधार पर हुआ। जहाँ महावीर के संघ स्थापना के पूर्व ही गोशालक ने एकाकी रूप से अलग होकर भी एक बृहद् संघ की स्थापना कर ली थी और ऐसा भी कहा जाता है कि महावीर के संघ की अपेक्षा गोशालक का संघ बृहद्काय था। वहीं जामालि पांच सौ शिष्यों के साथ अलग होकर भी अन्त में एकाकी ही रह गया। उसके प्राय: सभी श्रमण और श्रमणियाँ पुन: महावीर के संघ में लौट गये। यह भी सम्भव है कि जामालि के मतभेद के पीछे मूलत: उसकी पदलिप्सा भी रही हो, क्योंकि महावीर का जामाता होने के कारण उसकी यह अपेक्षा रही हो कि महावीर अपने संघ में उसे विशेष स्थान दें या संघीय व्यवस्था में उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करें, किन्तु निस्पृह वीतराग महावीर के लिए यह सम्भव नहीं था। जामालि की अपेक्षा गोशालक का आजीवक संघ अधिक दीर्घजीवी रहा और महावीर के पश्चात् भी लगभग चार शताब्दियों का वह चलता रहा।
जहाँ तक भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ की स्थिति का प्रश्न है, ऐसा लगता है कि आचार्य भद्रबाहु 'प्रथम' (ई०पू० तृतीय शती) तक यह संघ अविभाज्य रूप से चलता रहा। यद्यपि आर्य जम्बू के पश्चात् और भद्रबाहु के पूर्व के मध्यवर्ती आचार्यों के नामों को लेकर श्वेताम्बर-दिगम्बर पट्टावलियों में भिन्नता परिलक्षित होती है। जहाँ श्वेताम्बर पट्टावलियों में सुधर्मा और जम्बू के बाद प्रभव, स्वयंभव, यशोभद्र
और सम्भूति- ये चार नाम आते हैं, वहाँ दिगम्बर पट्टावलियों में विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित और गोवर्धन ये चार नाम मिलते हैं। इस मतभेद का स्पष्टत: कारण क्या था, आज यह बता पाना कठिन है। भद्रबाहु के कथानक भी दोनों परम्पराओं में भिन्न-भिन्न हैं। मुझे ऐसा लगता है कि दिगम्बर परम्परा में जिस भद्रबाहु का उल्लेख है वे कहीं वराहमिहिर के भाई भद्रबाहु (द्वितीय) तो नहीं हैं, यह भी सम्भव है कि उनके साथ उल्लेखित चन्द्रगुप्त कोई गुप्तवंशीय राजा हो। फिर भी इस सम्बन्ध में अभी खोज करने की आवश्यकता है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य कल्पसूत्र की पट्टावली से हमें इतना अवश्य ज्ञात होता है कि भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदासगण निकला और उसी से पौण्डवर्धनिका, ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया और दासीखर्पटिका नामक चार शाखाएँ निकलीं। किन्तु आगे गोदासगण और उसकी इन चार शाखाओं का क्या हुआ, इसकी कोई भी जानकारी न तो श्वेताम्बर स्रोतों से उपलब्ध होती है और न उत्तर भारत में इसका कोई अभिलेखीय साक्ष्य ही प्राप्त होता है। दक्षिण भारत में आन्ध्रप्रदेश में वढ्ढमाणु से गोदासगण का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, इससे यह अनुमान लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा दक्षिण भारत में चली गई और वहीं निर्ग्रन्थ संघ के नाम से फूली-फली। दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ सम्बन्धी अभिलेख पाँचवीं शती तक मिलते
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