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अचलगच्छ का इतिहास रहते हैं। श्रमण परम्परा के बाह्य स्वरूप अर्थात् साधना के विधि-विधानों का देशकाल में परिवर्तन होता रहा है और उसके परिणाम यह श्रमणधारा भी विभिन्न वर्गों में विभाजित होती रही है। इनमें से कुछ तो जैसे आजीवक आदि कालकवलित हो गईं, तो कुछ जैसे- सांख्य-योग आदि आज बृहद् हिन्दूधर्म में, जो वैदिक एवं श्रमण धारा का समन्वित रूप है, विलीन हो गईं। औपनिषदिक चिन्तन जो मूलत: श्रमणधारा का अंग था, आज वैदिक परम्परा में आत्मसात् होकर उसका ही अंग बन गया है। वर्तमान में निवृत्तिमार्गी श्रमण धारा की जैन और बौद्ध- ये दो शाखाएँ स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में हैं। इनमें बौद्ध धारा- हीनयान, महायान और वज्रयान के रूप में मुख्यत: तीन भागों में विभाजित हुई, पुनः इनमें भी कालक्रम में अनेक निकाय अस्तित्व में आये। वस्तुत: जब भी किसी धर्म या साधना पद्धति का विकास होता है, तो वह देश-कालगत परिस्थितियों के कारण अथवा मान्यता भेद के कारण विभिन्न भागों में विभाजित हो ही जाती है। जैनधर्म भी उससे अप्रभावित नहीं रहा। ___ आज हम जिसे जैनधर्म के नाम से जानते हैं, वह नाम तो उसे ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में प्राप्त हुआ। अपभ्रंश जइण से जैन शब्द बना है। जिन के उपासक जइण कहलाये और यही उनका धर्म आगे चलकर जैनधर्म के नाम से प्रचलित हुआ। छठी-सातवीं शती के पूर्व इसके दो नाम प्राप्त होते है- (१) आर्हत्, (२) निर्ग्रन्थ। आर्हत् और निम्रन्थ में भी आर्हत् नाम अपेक्षाकृत प्राचीन है और निम्रन्थ नाम उससे परवर्ती है फिर भी यह नाम अशोक के अभिलेखों में जैनों के लिए व्यवहृत हुआ है। वस्तुत: पार्श्वनाथ और महावीर दोनों के ही अनुयायी निर्ग्रन्थ कहे जाते थे- अत: उन दोनों को अलग करने के लिए पापित्यीय श्रमण और ज्ञातृपुत्रीय श्रमण- ये नाम प्रचलित थे। ज्ञातव्य है कि इस समय बौद्ध श्रमण शाक्यपुत्रीय श्रमण और गोशालक की परम्परा के श्रमण आजीवक कहलाते थे। जैन परम्परा में पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख मिलता है- १. शाक्यपुत्रीय श्रमण (बौद्ध), २. निर्ग्रन्थ (जैन), ३. आजीवक (मंखली गोशालक के अनुयायी), ४. तापस (सांख्य और योग परम्परा के अनुयायी) और ५. गैरुक (गेरुवा वस्त्र धारण करने वाले हिन्दू संन्यासी)। वस्तुत: अर्हत्, जिन, बद्ध और तीर्थङ्कर ऐसे नाम थे, जिन्हें श्रमण परम्परा की प्रत्येक शाखा अपने आराध्य या उपास्य के रूप में स्वीकार करती थी, अत: अपनी स्वतन्त्र पहचान के लिए ये अलग-अलग नाम दिये गये थे। सम्पूर्ण श्रमण परम्परा के लिए प्राचीनतम नाम आर्हत् ही था। आर्हतों में से विभिन्न श्रमण परम्पराएँ विकसित हुईं उनमें आजीवक, बौद्ध और निर्ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हुईं। इनमें भी आजीवक परम्परा चिरजीवी नहीं रह सकी और ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व ही वह नामशेष हो गई। आजीवकों के नामशेष हो जाने और तापस, गैरुक आदि के बृहत्तर हिन्दू समाज का अंग बन जाने पर श्रमणों की निर्ग्रन्थ और बौद्ध ये दो धाराएं ही चिरजीवी बनीं। इनमें भी बौद्धधारा विदेशों में तो पल्लवित
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