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भूमिका
जैनसंघ के इतिहास को सम्यक् रूप से समझने के लिए भारतीय संस्कृति के अतीत की गहराई में डुबकी लगाना आवश्यक है। जहाँ एक ओर परम्परागत विद्वान् जैनधर्म को अनादि मानते हैं और वर्तमान अवसर्पिणी कालचक्र में इसके प्रथम प्रवर्तक के रूप में ऋषभदेव (आदिनाथ) को स्वीकार करते हैं वहीं दूसरी ओर जैनेतर विद्वान् सामान्यतया जैनधर्म के प्रवर्तक के रूप में महावीरस्वामी (वर्धमान) को स्वीकार करते हैं। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि ये दोनों मान्यताएँ परस्पर विरोधी हैं। जबकि सत्य यह है कि दोनों ही मान्यताएं सापेक्षिक रूप में सत्य हैं। वस्तुतः विश्व में जब से मानव समाज का अस्तित्व है विवेक, तप-त्याग, ध्यान-योग और अहिंसा के जीवन मूल्य प्रतिष्ठित हैं और जीवन में तप, त्याग, विवेक और वैराग्य ही जैनधर्म है। मनुष्य जिस दिन मनुष्य बना, उसी दिन ये मूल्य जीवन में प्रतिष्ठित हुए होंगे, क्योंकि इनके अभाव में 'मानव' अस्तित्व की कल्पना ही निरर्थक है। अत: मानवीय मूल्यों की जीवन में प्रतिष्ठा और जैनधर्म सहगामी हैं।
यदि तपत्याग और संयम की मानव जीवन में प्रतिष्ठा करने वाले किसी प्रथम पुरुष की खोज करना हो तो निश्चित रूप से यह मानना होगा कि भारतीय संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से ये प्रथम पुरुष ऋषभदेव या आदिनाथ ही हैं। भरत क्षेत्र के वर्तमान कालचक्र में ऋषभ ने ही मानवीय समाज और सभ्यता का बीजवपन किया था, यह तथ्य जैन एवं जैनेतर साक्ष्यों से सिद्ध है। ऋग्वेद जो भारतीय साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है उसमें न केवल ऋषभ का उल्लेख है, अपितु उसमें श्रमण धारा से सम्बन्धित अर्हत् (अर्हन्त), व्रात्य, श्रमण, वातरसना मुनि आदि के भी उल्लेख हैं। पुन: ऋग्वेद आर्हत् (श्रमण परम्परा) और वार्हत् (वैदिक/ब्राह्मण परम्परा) --- दोनों परम्पराओं का उल्लेख करता है। अत: इन दोनों परम्पराओं का सह-अस्तित्व ऋग्वेद के काल जितना प्राचीन तो है ही। पुन: यह भी सत्य है वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा दोनों में ही ऋषभ को इस आर्हत् परम्परा अर्थात् तप-त्याग एवं ध्यान-योग की निवृत्तिमार्गी परम्परा का आदि पुरुष भी माना गया है। अत: वे श्रमण धारा के प्रथम प्रवर्तक हैं, इसमें संशय करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी आज का जैनधर्म ठीक वैसा ही है, जिस रूप में ऋषभ ने उसका प्रवर्तन किया था, यह कहना कठिन है। स्वयं जैन परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि तीर्थङ्कर अपने देशकाल के अनुरूप धर्म के बाह्यस्वरूप में परिवर्तन करते हैं, फिर भी श्रमण संस्कृति की मूलात्मा अर्थात् तप-त्याग और निवृत्तिपरक जीवन मूल्य तो इन परिवर्तनों के बीच भी यथावत बने
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