Book Title: Aagam Sambandhi Saahitya 01 Aagamiy Sooktaavalyaadi
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad

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Page 33
________________ [भाग-1] श्री आगमीय-सूक्तावलि-आदि आगमीय सूक्तावलि [आचारांगसूक्तानि] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: आगमीय-सूक्तावलि-आदि (आगम-संबंधी-साहित्य) श्री आगमीयसूक्तावली | आचारांगस्य सूक्तानि ॥२२॥ ४३ इणमेव नावकखंति, जे जणा धुवचारिणो । जाई मरणं परिमाय, चरे संकमणे दडे ॥ नस्थि कालस्स णागमो, सव्ये पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा, सब्बेसि जाषियं पियं, तं परिगिजा दुषवं चउप अभिजुजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवद अप्पा वा बहुया वा से तत्थ गहिए चिट्ठा भोषणाए, तो स एगया विविहं परिसिहूं संभूर्य महोबगरणं भवर, तपि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरंति, रायाणो वा से विलपंति, नस्सइ वा से विणस्सा वा से, अगारदाहेण वा से उज्झा, इय से परस्सऽट्ठाए कूराई कम्माई वाले पकुब्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुबेद, मुणिणा हु पयं पवेश्य, अणोहंतरा पए नोय ओह तरित्तए, अतीरंगमा पप नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा पए नो य पारं गमित्तए, आयाणिजं व आयाय तंमि ठागे न चिटर, वितह पप्पऽखेयन्ने तंमि ठाणमि चिट्ठा। (१२१) |४४ सन्दिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः। | यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेनास्तिको हतः ॥ |४५ शिशुमशिशुं कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीरं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रकाशमवलीनमचेतनमथ सचेतन, मिशिविष सेऽपि साम्भ्यसमयेऽपि विनश्य(नाशय)ति कोऽपि कथमपि ॥ |४६ रमा विहवी बिसेसे ठितिमित्तं थेववित्थरो महई।। मग्गा सरीरमहणो रोगी जीप च्चिय कयस्थो ॥ (१२२) |४७ रुमिकुलचित्तं लालाक्ति विगन्धि जुगुप्सितं, निरु पमरसप्रीत्या खादन्नरास्थिनिरामिषम् । सुरपतिमपि या पाश्र्वस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् ॥ | ४८ रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः। एष मूढ इति शेयो, विपरीतविधायकः ॥ (१२३) |४९ उत्तो या स्वत पब मोहसलिलो जन्माऽऽलवालोऽशुभो, | रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्षिबीजस्त्वया । रोगरत RRRRRRRRRRREE EVRRIERIERR ॥२१॥ "आगम-संबंधी-साहित्य" श्रेणी [भाग-1] ~33.

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