Book Title: Shasana Chatustrinshika
Author(s): Anantkirti, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kastus Suhuși. 9. A., DIP. e.. Ingiche und Scharla प्रकीर्णक - पुस्तकमालाका श्राठवाँ पुरुष 400000000000000000000 9 हाप्रामाणिकचूडामणिश्रीमदनन्तकीर्तिविरचित शासन-चतुस्विंशिका हिन्दा-अनुवादादि सहित] सम्पादक और अनुवादक न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया, शास्त्री (सम्पादक - अनुवादक-न्यायदीपिका, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र और प्राप्तपरीक्षा) 00000000000000000000000000000000 000000002 प्रकाशक वीरसेवामन्दिर सरसावा, जिला सहारनपुर * प्रथमावत्ति भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं० २४७५ / विक्रम सं० २००६ 8 ५०० प्रति अगस्त १EYE बारह आने 8 00000000000000000000 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकाऽतुकम -+art १ सम्पादकीय २ श्रेय ३ प्रस्तावना २५ ४ विषय-सूची ५ शासन-चतुर्विंशिका " ६ शासन-चतुनिशिकाका पद्यानुक्रम ७ परिशिष्ट - शासन चतुस्विशिकाकी विशेष नाम सूची .. ५५-५६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. में, मेरी मला रासाजी . मी. N शमी प्रलयापन पER में siti ali ___TA:आ. . ५..२५० सम्पादकीय १. प्रति-परिचय प्रस्तुत प्रतिका जिस प्रतिपरसे अनुवाद तथा सम्पादन हुआ है मात्र कहीं एक प्रति जैन साहित्यमें उपलब्ध जान पड़नी है और भी आप पं० मापूनमः: ग गाईके गानुमसे कोई दो वर्ष पहले वीरसेवामन्दिरको प्राप्त हुई थी। इस प्रतिको लम्बाई चौड़ाई १०४६ इंच है। दागी और पायीं वोनों ओर एक-एक इंचका हाशिया छूटा हुआ है। इसमें कुल पाँच पत्र हैं और अन्तिम पत्रको छोड़कर प्रत्येक पत्रमें १८.१८ पंक्तियाँ तथा प्रत्येक पंक्ति में प्रायः ३२, ३२ अक्षर हैं । अन्तिम पत्रमें (6+३==) १२ पक्तियाँ और हरेक पंक्ति में उपर्युक्त (३२, ३२) जितने अक्षर हैं । कुछ टिप्पण भी साथमें कहीं कही लगे हुए हैं जो मूलको समझने में कुछ मदद पहुंचाते हैं । यह प्रति काफी (सम्भवतः चार-पाँचसौ वर्षकी) प्राचीन प्रतीत होती है और बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण दशामें है। लगभग चालीस-पैंतालीस स्थानोंपर तो इसके अक्षर अथवा पद-वाक्यादि, पत्रोंके परस्पर चिपक जाने आदिके कारण, प्रायः मिद से गये हैं और जिनके पढ़ने में बड़ी करिनाई महसूस होती है । इस कठिनाईका प्रेमीजीन भी अनुभव किया है और अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' (पृ. १३६ के फुटनोट) में प्रविका कुछ परिचय देते हुए लिखा है-"इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है परन्तु वह दो-तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती 1 जगह जगह अक्षर उड़ गये हैं जिससे Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9000000000000 बहुतसे पद्य पूरे नहीं पढ़े जाते " हमने सन्दर्भ, अर्थसंगति, अक्षरविस्तारकयंत्र आदिसे परिश्रमपूर्वक सम जगहके अक्षरोंको पढ़ कर पद्योंको पूरा करनेका प्रयत्न किया है-सिर्फ एक जगह के अक्षर नहीं पढ़े गये और इसलिये यहाँपर"...पसे बिन्दु बना दिये गये हैं। जान पड़ता है कि अबतक इसके प्रकाशनमें न सकने में शायद यही कठिनाई कारण रही है। अस्तु । २. प्रस्तुत संस्करण ६ अप्रेल सन् १९४७को जब इस कृतिकी उलिखित प्रति प्राप्त हुई तो मित्रवर परिखत परमानन्दजीका विचार उसे अनेकान्तमें प्रकाशित कर देनेका हुआ और इसके लिये उन्होंने प्रेमीजीसे स्वीकृति भी मँगा ली, साथमें उसकी एक पाण्डुलिपि मी करली. पर बादको वे कुछ अनिवार्य कारणवश इस विचारको मूर्तरूप न दे सके । गत दिसम्बर (१९४८)में जब इसके प्रकाशनके विषयमें पुनः चर्चा चली तो इसे सम्पादन कर अनेकान्त में अवश्य प्रकट कर देनेका विचार स्थिर हुथा। तदनुसार हमने पं. परमानन्दजीकी पाण्डुलिपिपर पहले मूलके साथ मिलान करके संशोधन किया और जो पाठ पढ़नेसे रह गये थे उन्हें पूरा कर प्रेस कापी करके संक्षिप्त नोटके साथ इसे अनेकान्त में प्रकट किया जो नषवें वर्षकी ११ वी १२ वीं संयुस किरणमें प्रकाशित है। इस बीचमें इसकी उपयोगिता, महत्व और गाम्भीर्यको देख कर अनुवादादिके साथ पुस्तकाकार रूपमें भी प्रकाशित करनेका निश्चय हुश्रा और प्रस्तुत संस्करण उसीका फलद्रूप परिणाम है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय [५ eeeeeeeeeeeeeeeee ___ काश ! यह जीर्ण-शीर्ण प्रति भी न मिली होती तो जैन साहित्यको एक अनमोल कृति और अपने समय के विख्यात विद्वान के सम्बन्धमें इन दो-चार पंक्तियोंको भी लिखनेका अवसर न मिलता । न मालूम ऐसी ऐसी कितनी साहित्यिक कृतियाँ जैन-साहित्य-भएद्वारमेंसे सड़-गल गई और जिनके नाम शेष भी नहीं है। आचार्य विशनन्दका विद्यानन्दमहोदय. अनन्तबीका प्रमाणसंग्रहभाध्य आदि बहुमूल्यरत हमारे थोड़ेसे प्रमाद और लापरवाहीसे जैन-वाङ्मय-भण्डारमें नहीं पाये जाते, वे या तो नष्ट होगय या अन्यत्र चले गये ! ऐसी हालतमै इस उत्तम और जीर्ण-शीणं कृतिको प्रकाशमें लानेकी कितनी जरूरत थी, यह पाठोपर स्वयं प्रकट होजाता है। ३. आभार अन्तमें हम जैन साहित्य और इतिहासके सततोपासक और ममन्न विद्वान् प्रेमीजी और मुख्तारसाहबको नहीं भूल सकते जिनके संरक्षण और प्रकाशन-प्रयत्नोंसे ही यह ऋदि पाठकोंके हाथोंमें जारही है। अपने मित्र पं० परमानन्दजीके भी हम आभारी हैं जिन्होंने इस कृतिकी तया अप्रकाशित मुनिउदयकीर्तिकृत अपभ्रंशनिर्वाणभक्ति की अपनी पाण्डुलिपियाँ दीं। हम उन लेखकों तथा सम्पादकोंके भी कृतज्ञ हैं जिनके प्रन्यों, लेखों और पत्र-पत्रिकाओंका प्रस्तावना एवं तीर्थ-परिचयमें उपयोग हुश्रा है। इति । वीरसेवामन्दिर, सरसावा दरवारीलाल जैन कोठिया ६ फरवरी १६४६ न्यायाचार्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना शासनचतुस्त्रिशिका श्रौर मदनकीर्ति १. शासनचतुस्त्रिंशिका 3)स्तुत कृतिका नाम 'शासनचतुस्त्रिशिका' है। यह एक छोटी-सी किन्तु सुन्दर एवं मौलिक रचना है। विक्रमकी १३वीं शताब्दी के सुविख्यात विद्वान मुनि श्रीमदनकीर्तिजी द्वारा यह रची गयी है। इसमें कोई २६ तीर्थस्थानों---८ सिद्ध तीर्थक्षेत्रों और १८ अतिशय तीर्थक्षेत्रों का परम्परा अथवा अनुश्रुतिसे यथाज्ञास इतिहास एक-एक पद्यमें अति संक्षेप एवं संकेतरूपमें निबद्ध है। साथ ही उनके प्रभावांल्लेख पूर्वक दिगम्बरशासनका महत्व ख्यापित करते हुए उसका जयघोष किया गया है। वस्तुतः जैन तीर्थों के ऐतिहासिक परिचयमें जिन रचनाओं दिसे विशेष मदद मिल सकती है उनमें यह रचना भी प्राचीनता आदिकी दृष्टिसे अपना विशिष्ट स्थान रखती है। विक्रम संवत् १३३४में बनकर समाप्त हुए चन्द्रप्रभसूरिके प्रभावकचरित्र, विक्रम संवत् १३६१ में रचे गये मेरुतुङ्गाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि, विक्रम संवत् १३८६ में पूर्ण हुए जिनप्रभसूरिके विविधतोर्थकल्प और विक्रम संवत् १४०४ में निर्मित हुए राजशेखरसूरि के प्रबन्ध कोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध) में भी जैनतीर्थों के इतिहासकी उल्लेखनीय सामग्री पायी जाती है । परन्तु सुनि मदनकीर्तिकी, जिन्हें 'महाप्रामा एक चूडामणि का विरुद प्राप्त था और जिसका उल्लेख Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला €€€€€ 6666666666 राजशेखरसूरिने अपने उक्त प्रबन्धकोश (पुत्र ६४ ) में किया है और उनके सम्बन्धका एक स्वतन्त्र मदनकीर्तिप्रबन्ध' नामका प्रबन्ध भी लिखा है, प्रस्तुत शासनचतुस्त्रिंशिका, इन चारों रचनायों से सौ-पचास वर्ष पहले (विक्रम संवत् १२८५ के लगभग ) की रची हुई है। अतः यह रचना जैन तीर्थों के इतिहासके परिचयमें खास तौर से उल्लेखनीय है । इसमें कुल ३६ पद्य हैं जो अनुष्टुप् छन्दमें प्रायः ८४ जितने हैं। इनमें नंबरहीन पहला पथ अगले २२ पक्षोंके प्रथमाक्षरी से रचा गया है और जो अनुष्टुप - वृत्त में है । अन्तिम ( ३५षाँ) पद्य प्रशस्ति-पद्य है जिसमें रचयिताने अपने नामोल्लेखके साथ अपनी कुछ आत्मचर्या दी है और जो मालिनी छन्दमें हैं। शेष ३४ पद्य ग्रन्थ विषय से सम्बद्ध हैं, जिनकी रचना शार्दूलविक्रीडित वृत्तमें हुई है। इन चौतीस पयोंमें दिगम्बरशासन के प्रभाव और विजयका प्रतिपादन होनेसे यह रचना 'शासनचतुस्त्रिशि (शनि) का ' अथवा 'शासनचतीसी' जैसे नामोंसे जैन साहित्य में प्रसिद्ध है । इसमें विभिन्न तीर्थस्थानों और वहाँ के दिगम्बर जिनबिम्बोंके अतिशयों, माहात्म्यों और प्रभावोंके प्रदर्शनद्वारा यह बतलाया गया है कि दिगम्बरशासन अपनी अहिंसा, अपरिग्रह ( निर्मन्यता), स्याद्वाद आदि विशेषताओंके कारण सब प्रकारसे जयकारकी क्षमता रखता है और उसके लोक में बड़े ही प्रभाव तथा अतिशय रहे हैं । कैलासका ऋषभदेवका जिनबिम्ब, पोदनपुर के बाहुबलि, श्रीपुर के पार्श्वमाथ, हुलगिरि अथवा होलागिरिके शजिन, धाराके पार्श्वनाथ, बृहत्पुरके वृहदेव, जैनपुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ह प्रह SEটঙ 1 ( जैनबिद्री ) के दक्षिण गोम्मटदेव पूर्वदिशा के पार्श्वजिनेश्वर, विश्वसेनद्वारा समुद्र से निकाले शान्ति जिन, उत्तर दिशाके जिनविस्त्र. सम्मेदशिखरके बोस तीर्थकर, पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्त, नागद्रहके नागहृदेश्वरजिन, सम्मेदशिखरकी अमृतचापिका. पश्चिमसमुद्रतटके श्रीचन्द्रप्रभजिन छायापाश्ववसु श्री आदिजिनेश्वर पावापुर के श्रीवीर जिन गिरनारके श्रीनेमिनाथ, चम्पापुरके श्रीवासुपूज्य, नर्मदा के जलसे अभिषिक्त श्रशान्तिजिनेश्वर, अवरोधनगर (आश्रम' या श्राशारम्य) के श्रीमुनिसुव्रतजिन, विपुलागिरिका जिनविस्त्र विन्ध्यगिरिके जिनचैत्यालय मेदपाट (मेवाड़) - देशस्थ नागफणी ग्राम के श्रीमल्लिजिनेश्वर और मालवा देश के महल श्रीअभिनन्दनजिन इन २६ के लोक-विश्रुत अतिशयोंका इसमें समुल्लेख हुआ है। इसके अलावा यह भी प्रतिपादन किया गया है कि स्मृतिपाठक, वेदान्ती, वैशेषिक, मायावी, योग, सांख्य, चार्वाक और बौद्ध इन दूसरे शासनोंद्वारा भी दिगम्बरशासन कई बातों में समाश्रित हुआ है । प्रस्तावना ১००६० इस तरह यह रचना जहाँ दिगम्बरशासन के प्रभावकी प्रकाशिका है वहाँ साथ में इतिहास- प्रेमियोंके लिये इतिहासानुसन्धानकी कितनी ही महत्वकी सामग्रीको लिये हुए है और इसलिये इसकी उपादेयता तथा उपयोगिता इस विषय की किसी भी दूसरी कृतिसे कम नहीं है । इसका एक-एक पद्य एक-एक स्वतन्त्र निबन्धका विषय है, इसीसे पाठक इसके महत्वको जान सकते हैं। १ उदयकीर्तिमुनिकृत अपभ्र शनिर्वाण भक्ति में आश्रम और प्रा० निर्वाणकाड गाथा २० में प्रशारम्यनगरका उल्लेख है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रकीर्णक-पुस्तकमाला eeseeeeeeeeeeeeeeee २. मुनि मदनकीर्ति ___ अब विचारणीय यह है कि इसके रचयिता मुनि मदनकीर्ति कब हुए हैं, उनका निश्चित समय क्या है और वे किस विशेष अथवा सामान्य परिचयको लिये हुए हैं ? अतः इन सब बातोपर नीचे कुछ विचार किया जाता है समय-विचार (क) जैसा कि ऊपर कहा गया है. श्वेताम्बर विद्वान् राजशेखरसूरिने विक्रम सं० १४०५ में प्रबन्धकोष लिखा है जिसका दूसरा नाम चतुर्विशतिप्रवन्ध भी है। इसमें २४ प्रसिद्ध पुरुषों-१० प्राचार्यों, ४ संस्कृतभाषाके सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितों, ७ प्रसिद्ध राजाओं और ३ राजमान्य सद्गृहस्थोंक प्रबन्ध (चरित) निबद्ध हैं। संस्कृतभाषाके जिन : सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितोंके प्रबन्ध इसमें निबद्ध हैं उनमें एक प्रबन्ध दिगम्बर विद्वान विशाल कीतिके प्रख्यात शिष्य मदनकीर्तिका भी है और जिसका नाम 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध है। इस प्रबन्धमें मदनकीतिका परिचय देते हुए राजशेखरमूरिने लिखा है कि "उज्जयिनीमें दिगम्बर विद्वान् विशालकीर्ति रहते थे। उनके मनकोर्तिनामका एक शिष्य था । वह इतना बड़ा विद्वान था कि उसने पूर्व, पश्चिम और उत्तरके समस्त वादियोंको जीत कर 'महाप्रामाणिकचूडामणि' के विरुदको प्राप्त किया था। कुछ दिनों के बाद उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि दक्षिणके वादियोंको भी जीता जाय और इसके लिये उन्होंने गुमसे आज्ञा मांगी। परन्तु गुरुने दक्षिणको 'भोगनिधि' Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ००००००००००००००००००० देश बतलाकर वहाँ जानेकी आशा नहीं दी। किन्तु नार्थ गुरुकी आज्ञाको उलंघ करके दक्षिणको चले गये। भाग में महाराष्ट्र आदि देशों के वादियों को पददलित करते हुए कर्णाट देश पहुँचे। कर्णाटदेश में विजयपुर में जाकर वहाँके नरेश कुन्तिभोजको अपनी विद्वत्ता और काव्यप्रतिभासे चमत्कृत किया और उनके अनुरोध करनेपर उनके पूर्वजों के सम्बन्ध में एक ग्रन्थ लिखना स्वीकार किया । मदनकीर्ति एक दिनमें पांचसौ श्लोक बना लेते थे, परन्तु स्वयं उन्हें लिख नहीं सकते थे। श्रतएव उन्होंने राजासे सुयोग्य लेखककी माँग की। राजाने अपनी सुयोग्य विदुषी पुत्री मदनमंजरी को उन्हें लेखिका दो। वह पर्दा के भीतरसे लिखती जाती थी और मनकीर्ति चाहसे बोलते जाते थे । कालान्तर में इन दोनों में अनुराग होगया। जब गुरु विशालकीर्तिको यह मालूम हुआ तो उन्होंने समझाने के लिये पत्र लिखे और शिष्योंको भेजा। परन्तु मदनकीर्तिपर उनका कोई असर न हुआ। प्रस्तावना इस प्रबन्धके कुछ आदिभागको नीचे नमूने के तौर पर दिया जाता है— "उज्जयिन्यां विशाल कीर्तिदिगम्बरः । तच्छिष्यो मदनकीर्तिः । स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिनः सर्वान् विजित्य 'महाप्रामाणिकचूडामणिः' इति विरुदमुपार्थं स्वगुर्वलंकृतामुज्जयिनीभागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रु ततत्कीर्त्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठमरलाधिष्ठ । सोऽपि प्रामोदिष्ट | दिनकतिप्रथानन्तरं च गुरं न्यगदीतभगवन् । दाक्षिणात्यान् वादिनो विजेतुमीहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम् - वत्स । दक्षिणां मागाः । स हि भोगनिधिर्देशः । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] प्रकीराक-पुस्तकमाला ఆ000 అందిఅee को नाम तन्न गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् । एतद्गुरुवचन विलंध्य विद्यामदाध्मानो जालकुदालनि:श्रीएयादिभिः प्रभूतेश्च शिष्यैः परि. करितो महाराष्ट्रादिवा दिनो मृगन कर्णाटदेशमाप । तत्र विजयपुरे कुन्तिभोज नाम राजानं स्वयं विद्यविदं विद्वात्मिय सदसि निषरणं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श । तमुपश्लोकयामास...!" इत्यादि । इस प्रबन्धमे दो लाते स्पष्ट है । एक तो गह मिलकीर्ति निश्चय ही एक ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध विद्वान हैं और वे दिगम्बर विद्वान विशालकीर्तिके सुविख्यात एवं 'महाप्रामाणिकचूडामणि' की पदवी प्राप्त. वादिविजेता शिष्य थे तथा झन प्रवन्धकोशकार गजशेखरसूरि अर्थात विक्रम सं० १४.५ से पहले हो गये हैं। दूसरी बात यह कि वे विजयपुरनरेश कुन्तिभोजके समकालीन हैं। और उनकेद्वारा सम्मानित हुए थे। अब देखना यह है कि कुन्तिभोजका समय क्या है ? जैन-साहित्य और इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान् पं. नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है। कि प्रबन्धकोषवर्णित विजयपुरनरेश कुन्तिभोज और सोमदेव(शब्दार्णवचन्द्रिकाकार)-वर्णित वीरभोजदेय एक ही हैं। सामदेवमुनिने अपनी शब्दावचन्द्रिका कोल्हापुर प्रान्तके अर्जुरिका ग्राम में बादीभवनाश विशालकीर्ति परिडतदेवके वैयावृत्यसे वि० सं० १२६२में बनाकर समाप्त की थी। --.- - ---- १ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १३६ । २ देखो, उक्त ग्रन्थके पृ० १३८के फुटनोटमें उद्धृत शब्दावचन्द्रिकाकी अन्तिम प्रशस्ति । - - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना eeeeeeeeeeeeeeeeee और उस समय वहाँ वीर-भोजदेवका राज्य था । सम्भव है विशालकीत अपने शिष्य मदनकीर्तिको समझाने के लिये उधर कोल्हापुर . सरफ गये हों और तभी उन्होंने सोमदेवकी वैयावृत्त्य की हो।' यदि प्रेमीजीका अनुमान ठीक हो तो कुन्तिभोजका समय विक्रम सं. १९६२ के लगभग जाना पड़ता है और इस लिये विशालकीर्तिके शिष्य मदनकीतिका समय भी यही विक्रम सं. १२६२ होना चाहिये। (ख) पण्डित आशाधरजी ने अपने जिनयज्ञकल्पमें', जिसे प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं और जो विक्रम संयत् १२८५ में बनकर समान हुआ है, अपनी एक प्रशस्ति दी है। इस प्रशस्ति में अपना विशिष्ट परिचय देते हुए एक पछमें उन्होंने उल्लेखित किया है कि वे मदनकीर्तियतिपतिके द्वारा 'प्रज्ञापुञ्ज'के नामसे अभिहित हुए थे अर्थात् मदनकीर्तियतिपति ने उन्हें 'प्रज्ञापुज' कहा था । मदनकीर्तियतिपतिके उल्लखवाला उनका वह् प्रशस्तिगत पद्य निम्न प्रकार है: इत्युदयसेनमुनिना कविसहदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । प्रज्ञापुजोसीति च योऽभिहि(म तो मदनकीर्तियतिपतिना। __इस उल्लेखपरसे यह मालूम होजाता है, कि मदनकीर्तियतिपति, पण्डित आशापरीके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती ---. ...- - १ विक्रमवर्षसपंचाशीतिद्वादशशतेवतीतेष । अाश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमतापराक्षस्य ।।१६|| २ यही प्रशस्ति कुछ हेर-फेरके साथ उनके सागारधर्मामृत आदि दूसरे कुछ ग्रन्थोंमें भी पाई जाती है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक पुस्तकमाला १४ ] ee0 ०००००००० विद्वान थे और विक्रम संवत् १२८५ के पहले वे सुविख्यात हो चुके थे तथा साधारण विद्वानों एवं मुनियोंमें विशिष्ट व्यक्तित्वको भी प्राप्त कर चुके थे और इसलिये यतिपति-मुनियोंके श्राचार्य माने जाते थे । अतः इस उल्लेखसे मदनकीर्त्ति विक्रम संवत् १२८५ के निकटवर्ती विद्वान सिद्ध होते हैं । (ग) मदनकीर्त्तिने शासनचतुस्त्रिंशिका में एक जगह (३४वें में) यह उल्लेख किया है कि आततायी म्लेच्छोंने भारतभूमिको रौंधते हुए मालवदेश के मङ्गलपुर नगर में जाकर वहाँके श्रीश्रभि नन्दन - जिनेन्द्रकी मूर्तिको भग्न कर दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये, परन्तु वह जुड़ गई और सम्पूर्णावयव बन गई और उसका एक बड़ा अतिशय प्रकटित हुआ। जिनप्रभसूरिने अपने विविधतीर्थंकल्प अथवा फल्पप्रदीपमें, जिसकी रचना उन्होंने विक्रम सं० १३६४ से लगाकर विक्रम सं० १३८६ तक २५ वर्षो की है', एक 'अवन्तिदेशस्थ - अभिनन्दन देव कल्प' नामका कल्प निबद्ध किया है। इसमें उन्होंने भी म्लेच्छसेना के द्वारा अभिनन्दनजिनकी मूर्तिके भग्न होने का उल्लेख किया है और उसके जुड़ने तथा श्रतिशय प्रकट होनेका वृत्त दिया है और बतलाया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंहदेव के राज्यकाल से कुछ वर्ष पूर्व हो ली थी और जब उसे श्रभिनन्दनजिनका आश्चर्यकारी अतिशय सुनने में आया तो वह उनकी पूजा के लिये गया और पूजा करके अभिनन्दनजिनकी देखभाल करने वाले अभयकीर्ति, भानुकीर्ति आदि मठपति आचार्यो (भट्टारकों) के लिये देवपूजार्थ २४ हलकी १ देखो, मुनिजिनविजयजी द्वारा सम्पादित विविधतीर्थकल्पकी प्रस्तावना पृ० २ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ eeee ०००००6०6०00०० खेती योग्य जमीन दी तथा १२ हलकी जमीन देवपूजकों के वास्ते प्रदान की । यथा प्रस्तावना "तमतिशय मतिशायिनं निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वरः स्फुरद्भक्तिप्राग्भार भास्वरान्तःकरणः स्वामिनं स्वयमपूजयजत् । देवपूजार्थं च चतुर्विंशतिलकृप्याँ भूमिमदत्त मवपतिभ्यः । द्वादशहलबाह्य arati areaभ्यः प्रददाववन्तिपतिः । अद्या दिग्मण्डलव्यापाaara भगवानभिनन्दनदेवस्तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति ।" - विविधतीर्थ० पु० ५८ । जिनप्रभसूरिद्वारा उल्लिखित यह मालवाधिपति जयसिंहदेव द्वितीय जयसिंहदेव जान पड़ता है. जिसे जैतुगिदेव भी कहते हैं और जिसका राज्यसमय विक्रम सं० १२६० के बाद और विक्रम सं० १३१४ तक वतलाया जाता है। परिहत आशाधरजीने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, सागारधर्मामृतटीका और अनगारधर्मामृतटीका ये तीन प्रन्थ क्रमशः विक्रम सं० १२६२, १२६६ और १३०० में इसी (जयसिंहदेव द्वितीय अथवा जैतुगिदेव) के राज्यकाल में बनाये २। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति ( प ५) में पण्डित आशाधरजीने यहाँ ध्यान देने योग्य एक बात यह लिखी है' कि 'म्लेच्छ्रपति १ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १३४ | २ देखो, इन ग्रन्थोंकी अन्तिम प्रशस्तियाँ | ३ म्लेच्छेशेन सादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तदतित्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदोः परिमलस्फूर्जस्त्रिवर्गों जसि । प्रासो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीभावसन् यो धारामपट चिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ||१५|| 'मच्छेशेन साहिबुदीन तुरुष्कराजेन ' - सागारधर्मा० टीका पृ० २४३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला eerS8650 साहिबुदीनने जब सपादलक्ष (सवालख) देश (नागौर-जोधपुरके आसपासके प्रदेश) को ससैन्य अाक्रान्त किया तो वे अपने सदाचारकी हानिके भयसे वहाँ से चले आये और मालवाकी धारा नगरी में अा बसे । इस समय वहाँ विन्ध्यनरेश (विक्रम सं० १२१७ से विक्रम सं० १२४६)का राज्य था ।' यहाँ पण्डित श्राशाधरजीने जिस मुस्लिम बादशाह साहिबुद्धीनका उल्लेख किया है वह शहाबुद्दीनगौरी है । इसने विक्रम सं० १२४६ (ई. सन् ११६२) में गजनीसे आकर भारतपर हमला करके दिल्लीको हस्तगत किया था और उसका १४ वर्ष तक राज्य रहा । और इसलिये असम्भव नहीं इसी आततायी बादशाह अथवा उसके सरदाराने ससैन्य उक्त १४ वर्षों में किसी समय मालवाके उल्लिखित धन-धान्यादिसे भरपूर मङ्गलपुर नगरपर धावा मारा हो और हीरा-जवाहरातादिके मिलनेके दुर्लोभ अथवा धार्मिक विद्वेषसे वहाँ के लोकविश्रुत श्रीअभिनन्दनजिनके चैत्यालय और बिम्बको तोड़ा हो और उसीका उल्लेख मदनकीर्तिने "म्लेच्छ प्रतापागतः" शब्दों द्वारा किया हो । यदि यह ठीक हो तो यह कहा जा सकता है कि मदनकात्तिने इस शासनचतुर्विंशिकाको विक्रम सं० १२४६ और वि० सं० १२६३ या वि० सं० १३१४ के भीतर किसी समय रखा है और इसलिये जनका समय इन संवताका मध्यकाल होना चाहिये ।। इस ऊहापोहसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि मदनकीर्ति वि० सं० १८५ के पं० आशाधरजीकृत जिनयज्ञकल्पमें उल्लिखिप्त होनेसे उनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती विद्वान् निश्चितरूपमें हैं, और इसलिये उनका वि० सं० १२८५ के आसपासका समय सुनिश्चित है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना Seasosaeeeeeeeeeose स्थानादि-विचार समयका विचार करनेके बाद अब मदनकीति के स्थान, गुरुपरम्परा, योग्यता और प्रभावादिपर भी कुछ विचार कर लेना चाहिए । मदनकीर्ति बादीन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य थे और वादीन्द्र विशालकीर्तिने पं० आशाधरजीसे न्यायशास्त्रका अभ्यास किया था। पं० आशाधरजीने धारा में रहते हुए ही उन्हें न्यायशास्त्र पढ़ाया था और इसलिये उक्त दोनों विद्वान् (विशालकीर्ति तथा मदनकीति) भी धारामें ही रहते थे। राजशेखरसूरिन भी उन्हें उज्जयिनीके रहने वाले बतलाया है। अतः मदनकीर्तिका मुख्यतः स्थान उज्जयिनी (धारा) है । ये वाद-विद्यामें बड़े निपुण थे। चतुर्दिशाओंके वादियोंको जीत कर उन्होंने 'महाप्रामाणिकचूडामणि'की महनीय पदवी प्राप्त की थी। ये उच्च सथा आशु कवि भी थे। कविता करनेका इन्हें इतना उत्तम अभ्यास था कि एक दिनमें ५०० श्लोक रच डालते थे। विजयपुरके नरेश कुन्तिभोजको इन्होंने अपनी काव्यप्रतिभासे श्राश्वर्यान्वित किया था और इससे वह बड़ा प्रभावित हुआ था। पण्डित आशाधरजीने इन्हें 'यतिपति' जैसे विशेषणके साथ उल्लेखित किया है। इन सघ यातोंसे इनकी योग्यता और प्रभाक्का अच्छा आभास मिलता है। पण्डित आश इन सथ यातोरस विशेषण संभव है राजाकी विदुषी पुत्री और इनका आपसमें अनुराग हो गया हो और ये अपने पदसे च्युत हो गये हों; पर वे पीछे सम्हल गये थे और अपने ऋत्यपर घृणा भी करने लगे थे। इस बातका कुछ स्पष्ट आभास उनकी इसी शासनचतुर्विंशतिकाके Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८1 प्रकीएक-पुस्तकमाला eseodeseeeeeeeese "यत्मापवासाद्वालोय" इत्यादि प्रथम पद्य और "इति हि मदनकीर्चिचिन्तयन्नामचित्" इत्यादि ३५वे पद्यसे होता है और जिसपरसे मालूम होता है कि वे कठोर सपका आचरण करते तथा अकेले विहार करते हुए इन्द्रियों और कषायोंकी उद्दाम प्रवृत्तियोंको कठोरतासे रोकने में उद्यत रहते थे और जीवमात्रके प्रति बन्धुत्वकी भावना रखते थे । तात्पर्य यह कि मदनकीर्ति अपने अन्तिम जीवन में प्रायश्चित्तादि लेकर यथावत् मुनिपदमें स्थित होगये थे और दगम्बरी वृत्ति तथा भावनासे अपना समय यापन करते थे. ऐसा उक्त पद्योंसे मालूम होता है । उनका स्वर्गवास कब, कहाँ और किस अवस्थामें हुआ, इसको जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नहीं है। पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे मुनि-श्रवस्थामें ही स्वर्गवासी हुए होंगे, गृहस्थ अवस्था में नहीं; क्योंकि अपने कृत्यपर पश्चात्ताप करनेके बाद पूर्ववत् मुनि होगये थे और उसी समय यह शासनचतुर्विंशिका रची, ऐसा उसके अन्त:परीक्षणपरसे प्रकट होता है। इसमें सन्देह नहीं कि कमजोरियाँ प्रायः हरेक मनुष्यमें होती है और वे उन कमजोरियों के शिकार भी हो जाते हैं । परन्तु जो गिरफर षठ जाता है वह कमजोर या पतित नहीं, कमजोर या पतित तो वह है जो गिरा ही गिरा रहता है, उठना नहीं जानता राजशेखरसूरिने कुछ घटा-बढ़ाकर उनका चरित्र चित्रण किया जान पड़ता है। प्रेमीजीने' भी उनके इस चित्रणपर अविश्वास प्रकट किया है और मदनकीर्तिसे सौ वर्ष बाद लिखा होनेसे १ बैनसाहित्य और इतिहास पृ. १३८ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना aceedeseseseseseee 'घटनाको गहरा रंग देने' या 'तोड़े मरोड़े जाने' तथा 'कुछ तथ्य' होनेका सूचन किया है। जो हो, फिर भी उसमेंके ऐतिहासिक तथ्यका मूल्यांकन इतिहासमें होगा ही। इस रचनाके अलावा मदनकीर्तिकी और भी कोई रचनाएँ हैं या नहीं, यह अज्ञात है। पर विजयपुर नरेश कुन्तिभोजके पूर्वजोंके सम्बन्धमें लिखा गया इनका परिचयमन्थ शायद रहा है, जिसके रचनेका उल्लेख राजशेखरने अपने प्रबन्धकोष-गत मदनकीर्ति-प्रबन्ध किया है। अस्तु । दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य वीरसेवामन्दिर, सरसावा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय पद्य 0 कैलाशके ऋषभजिन पोदनपुरके श्रीवाहुबली श्रीपुरके पार्श्वनाथ हुलगिरिक शस्खजिन धाराके श्रीपार्श्वनाथ बृहत्पुरके श्रीबृहदेव जैनपुर (जनविद्री)के श्रीदक्षिण-गोम्मटदेव पूर्वदिशाके श्रीपार्श्वजिनेश्वर श्रीशान्तिजिनेश्वर उत्तरदिशाके श्रीनिम्रन्थदेव सम्मेदगिरिके बीस तीर्थङ्कर पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्त नागदहके श्रीनागहदेश्वर सम्मेदगिरिकी अमृतवापिका .... स्मृतिपाठक तथा वेदान्तियोंद्वारा दिगम्बरशासनका आश्रय पश्चिमसमुद्रके श्रीचन्द्रप्रभजिन छायापाश्वप्रभु .... Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची *****6660606060€ लवणसमुद्रके श्रीश्रादिजिनेश्वर पावापुरके श्रीवीरजिन सौराष्ट्र स्थित श्रीगिरनारके श्रीनेमिनाथ चम्पार्क श्रीवासुपूज्य वैशेषिक (करणाद) द्वारा दिगम्बरशासनका आश्रय श्वेताम्बरों द्वारा दिगम्बरशासनका श्राश्रय योगों (कापालिकों) द्वारा दिगम्बरशासनका आश्रय सांख्यों द्वारा दिगम्बरशासनका श्रश्रय चावकों द्वारा दिगम्बर शासनका समाश्रयण नर्मदाके जलसे अभिषिक्त श्री शान्तिजिन अवरोधनगर के श्रीमुनि सुत्रतजिन परिग्रहकी लोकमान्यता विपुलगिरिका जिनबिम्ब बौद्धों द्वारा दिगम्बरशासनका श्रश्रय विन्ध्यगिरिके जिनालय मेवाड़ - देशस्थ नागकरणी के मल्लिजिनेश्वर मालवदेशस्थ मङ्गलपुर के श्रीअभिनन्दनजिन प्रशस्ति ( आत्मनिवेदन) Id.. WAFF .... 4804 11++ deba 1146 .... 2644 Ber .... 4441 .... .... .... .... www. ---- - [ २१ ee १८ १६ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २.७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नमः स्याद्वादसताय * महाप्रामाणिकचूडामणि श्री मदन कीर्ति यतिपति विरचित शासन- चतुस्त्रिशिका [ हिन्दी अनुवाद सहित ] अनुष्टुप्) यस्यापवासाद्वालोयं ययौ सोपास्त्र ( अ ) यं स्मयं । शु (शो) त्यसौ यतिर्जेनम घुः श्रपूज्यसिद्धयः ' ॥ , यह श्लोक, जो अनुष्टुप वृत्त (छन्द) में है, अगले बत्तीस श्लोकोंके प्रथमाक्षरोंसे रचा गया है। इसका अर्थ यह है कि 'यह बाल( मदनकीर्ति) जिस पाप- गन्धसे मदको प्राप्त हुआ उसे वह यति (साधु) - इन्द्रियविजयी होकर नाश करनेमें उद्यत है और इसलिये श्री पूज्य - सिद्धियोंने उसे जैन - राग-द्व ेष-मद आदिका विजेता - कहा है ।" इस पर प्रकारान्तरसे यह प्रकट है कि इस शासनचतुस्त्रिशिका ( शासन - चौबीसी) के रचयिता एक विद्वान् जैन साधु हैं जो पहले किसी कारणवश अपने पदसे व्युत होगये और पीछे उपदेशादि मिलने अथवा अपनी गलतीका बोध होनेपर पुनः अपने पदपर आरूढ हो गये ज्ञात होते हैं। इसका कुछ विचार प्रस्तावना में किया गया है। १ (अमेंतन ) वृत्तानामाद्यक्षरै ( निर्मितः ) श्लोकोऽयम् । २ यः पापपानाशाय यते स यतिर्भवेत् । -- यशस्तिलक मा० ८, ६० ४४ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 600000000000 (शार्दूलविक्रीडित) यहीपस्य शिखेव भाति भविनां नित्यं पुनः पर्वसु भूभृन्मूर्द्धनिवासिना मुपचितप्रीति प्रसन्नात्मनाम् । कैलासे जिन विम्यमुत्तमधमत्सौवरावरणे सुरा वन्य(न्द)न्तेऽद्य दिगम्बरं सदमलं दिग्बाससां शासनम् ।।१।। कैलास पर्वतके उस सातिशय चमकीले सुवर्णमय उत्तम जिनबिम्बकी देवगण आज भी वन्दना करते हैं जो दीपककी शिखा (ज्योति) की तरह देदीप्यमान है, जिसे भव्यजन प्रतिदिन और पर्वोपर पूजाते हैं, और कैलास पर्वतपर रहनेवाले प्रसन्नात्माओंको प्रीति उत्पन्न करने वाला है तथा अमल-निदोष दिगम्बर शासनका प्रभावक है। जैन पौराणिक अमुश्र ति है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेयके पुत्र सम्राट भरतने कैलास पर्वतपर ७२ सुवर्णमय जिनमन्दिर बनवाये थे और जो लोकमें बहुत प्रसिद्ध तथा प्रभावशाली माने जाते थे एवं दिगम्बर जैन शासनके सातिशय प्रभावको प्रकट करने वाले थे। जान पड़ता है रचयिताने यहाँ उन्हीं जिनमन्दिरोंके अथवा और किसी समय निर्मित हुए ऋषभदेवके सातिशय जिनबिम्बका उल्लेख किया है। पादाङ्गुष्ठनखप्रभासु भविनामाऽऽभान्ति पश्चाद्भवा यस्यात्मीयभवा जिनस्य पुरतः' स्वस्योपवास-प्रमाः । अद्याऽपि प्रतिभाति पोदनपुरे यो वन्द्य-वन्द्यः स वै देवो बाहुबली करोतु बलवद्दिग्नाससां शासनम् ||२|| जिनके पैरके अँगूठेकी नख कान्तियों में भव्य जीवोंको अपने आगे-पीछेके अनेक भव प्रतिभासित होते हैं और जो इतर लोकजनों के १ अप्रतः अमे भवाः आत्मीयभवाः अाभान्ति । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्लिंशिका [३ speeeeeeeeeeeeeeeeee भी वन्दनीय ऋषिमुनियों और देवादिकों द्वारा बन्दनीय हैं तथा आज भी पोदनपुरमें शोभित हैं यह बाहुबली स्वामी दिगम्बर शासनको प्रवृद्ध करें। पोदनपुरमें, बाहुबली स्वामीकी विशालकाय एवं प्रभावपूर्ण जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित बतलाई जाती है जो रचयिताके समयमें वहाँ मौजूद थी और जिसके लिये उन्होंने 'अन्धाऽपि प्रतिभाति पोदनपुरे यो धन्वन्धः स बैं' शब्दोंका स्पष्ट प्रयोग किया है तथा जो दिगम्बर मुद्रामें विराजमान थी और लोकमें अपने प्रभावद्वारा दिगम्बर शासनकी महत्ताको प्रकट करती हुई ख्यातिको प्राप्त थी ||२|| पत्रं यत्र विहायसि प्रविपुले स्थातुं क्षणं न क्षम सत्राऽऽस्ते' गुणरत्ररोहणगिरियो देवदेवो महान् । चित्र नाऽत्र करोति कस्य मनसो दृधः पुरे श्रीपुरे स श्रीपार्श्वजिनेवरो विजयते दिग्वाससां शासनम् ॥३।। जिस बहुत ऊँचे श्राकाशमें एक पता भी क्षणभरके लिये ठहरनेको समर्थ नहीं है उस आकाशमें भगवान पार्श्वजिनेश्वरका गुणरमपर्वतरूप भारी जिनबिम्ब स्थिर है, श्रीपुर नगरके कह पार्श्वजिनेश्वर दर्शन करनेपर किसके मनको चकित नहीं करते ? अर्थात जिसने एक भी बार उनका दर्शन किया है उसके भी मनको उनकी उक्त प्रकारको स्थितिपर आश्चर्य होता है। श्रीपुरके वह श्रीपार्श्वजिनेश्वर दिगम्बर शासन की लोकमें विशिष्ट जय करते हुए वर्तमान रहें । श्रीपुरके पार्श्वनाथका अतिशय प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि वहाँ भगवान पार्श्वनाथका जिनबिम्ब श्राकाशमें इतने ऊँचे स्थिर रहता १ या पाश्र्वजिनेश्वरः तत्र विहायसि (नभसि) श्रास्ते । २ दृष्टः सन् । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला seeeeeeesesaneDSEa90 था कि उसके नीचेसे एक सवार निकल जाता था। इस अतिशयका प्रस्तुत पद्यमें मुनि मदनकीर्तिने उल्लेख किया है । तार्किकशिंगमणि प्राचार्य विद्यानन्दने तो श्रीपुर के पार्श्वनाथको लक्ष्य करके एक महत्वका स्तोत्र ग्रन्थ ही रचा है, जिसका नाम 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र' है और जो तीस पद्यात्मक है ॥३॥ चास सार्थपतेः पुरा कृतवतः शङ्कान् गृहीत्वा बहून् सद्धर्मोन्यतचेतसो हुलगिरी कस्याऽपि धन्यात्मनः । प्रातमागभुपेयुषो न चालता शशस्य गोणी पदं यावच्छङ्गजिनो निरावृतिरभाडिग्वाससां शासनम् ॥४॥ पूर्वकालमें एक सार्थपतिने, जिसका नाम सागरदत्त था और जो परम धार्मिक धनिक सत्पुरुष था, बहुत शहडोको ग्रहणकर हुलगिरिपर रात्रिमें वास किया। जब वह वहाँसे प्रातः चलने लगा तो शलकी गोणी (गांन) एक पद (डग) भी न चली, जब तक वहाँ शङ्खजिन दिगम्बर मुद्राको लिये हुए प्रकट हुए और इसलिये दिगम्बरोंका शासन महामहिमाशाली होनेसे सदा जयवन्त हो। अर्थात लोकमें सर्वत्र प्रवर्तता हुआ वह सबका कल्याण करे। इस पद्यमें, जिस अतिशय एवं महिमाको लिये हुम शलजिनका आविर्भाव हुआ उसका समुल्लेख किया गया है और बतलाया गया है कि उनके दिगम्बररूपद्वारा ही वह महिमा लोक में प्रसिद्ध हुई । यही कारण है कि अनेक जैन विद्वानोंने शङ्खजिनपर स्तोत्रादिके रूपमें कई महत्वपूर्ण रचनाएँ भी लिखी हैं। मालूम होता है कि उक्त हुलगिरि ही शवजिनतीर्थ है और जो जैन साहित्यमें बहुत प्रसिद्ध रहा है ॥४॥ १ सागरदत्तामिधानस्य । २ तावत् शंखदेवः । ३ दिगम्बररूपः । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्विंशिका [५ Geeeeeeeeeeeeeee699 मानन्द निधयो' नवाऽपि नवधा यं" स्थापयाञ्चकिरे बाप्या पुण्यवत: म कस्यचिदहास्वं' स्वादिदेश प्रभुः । धारायां धरणारगाधिप - शित - च्छन्न - श्रिया राजते श्रीपार्थो नबम्ब (द)एड-मण्डित-तनुदिवाससां शासनम् ॥५॥ जिन पार्श्वप्रभुकी नव निधियों ने बड़े आनन्दपूर्वक नवप्रकार (नवधा भक्तिः) से वापी (बावड़ी) में स्थापना की और एक पुन्यात्माके लिये अपना रूप प्रदर्शित किया तथा जो धरणेन्द्रनागपतिरूप छत्र. श्रीसे धारा (नगरी) में सुशोभित है एवं नव हाथकी अवगाहनासे संयुक्त हैं वह धाराके श्रीपार्श्वनाथ दिगम्बर शासनको प्रवृद्ध करें। यहाँ जिस धाराके श्रीपार्श्वप्रभुकी महिमाका गान किया गया है वह उज्जयिनीकी प्रसिद्ध सांस्कृतिक और विद्याकेन्द्र नगरी तथा राजा भोस, जयसिंह आदि धारानरेशोंकी राजधानी प्रख्यात धारा जान पड़ती है। विद्ववर्य पंडित आशाधरजीने इसी घारामें कुछ काल तक विद्याभ्यास किया था । कोई आश्चर्य नहीं, पं० आशाधरजीके समकालीन मुनि मदनकीर्तिजीने यहाँ उसी धाराका उल्लेख किया है और वहाँ के अतिशयप्राप्त श्रीपार्श्वनाथके दिगम्बर जिनपिम्बका इस पद्यमें प्रभाव प्रदर्शित किया है ||५|| द्वापञ्चाशदननपाणिपरमोन्मानं करः पञ्चभि. ये चक्रे जिनमर्ककीर्तिनृपतिर्मावाणमेकं महन् । तन्नाम्ना सा बृहत्पुरे वरबृहद्द वाख्यया गीयते श्रीमत्यादिनिपिद्धिकेयमवतादिग्वाससां शासनम् ॥६॥ १ कारः । २ कर्मतापन्न ! ३ स्वकीय स्वरूपं । ४ यः प्रभुः श्रीपार्श्वनाथः । ५. प्रति । ६ पंचभि करैः सह द्वापंचाशत् | सप्तपंचाशत् इत्यर्थः । ७ कथभूत शासनं महत् । ८ स जिनः । ६ इयं श्रीमती आदि निषिद्धिका इति च लोकथिते । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] प्रकीर्णक पुस्तकमाला 3666 सतावन (५७) हाथ प्रमाण पाषाण के जिस महान् जिनत्रिम्बको कीर्ति नृपतिने बनवाया, जिसे बृहत्लुरमे 'बुदेव ( बड़े बाबा ) इस श्रेष्ठ नाम से सम्बोधित किया जाता है और लोगोंद्वारा यह भी कहा जाता है किं "यह श्रीमती आदिको निपिद्धिका (निसइसमाधिस्थान) है' वह बृहत्पुरके श्रीबृहद्द व दिगम्बर शासनकी रक्षा करें-- लोकमें उसे सदा बनाये रखें। 000000 रचयिताने इस श्लोक में बृहत्पुरके वृहद्देव की महिमा यह बतलाई है कि वह ५७ हाथकी विशाल प्रस्तर मूर्ति है, जिसे अर्क कीर्ति राजाने निर्मित कराया था और इस विशालता के कारण ही वह 'बृहद्देव' इस उत्तम संज्ञाको लोकमे प्राप्त हुई । श्रीमती श्रादिकी निषिद्धा भी लोगों द्वारा वही बतलाई जाती है ॥६॥ लौकैः पञ्चशती मितैरविरतं संहत्य निष्पादित यत्कक्षान्तरमेकमेव महिमा सोऽन्यस्य कस्याऽस्तु भो ! | यो देवैरतिपूज्यते प्रतिदिनं जेने पुरे साम्प्रतं दे दक्षिण गोम (म)टः स जयताद्दिग्वाससां शासनम् ॥७॥ + निरन्तर पाँचौ जनों / आदमियों ने मिलकर जिसका निर्माण fear और जिसका मध्यभाग केवल लताबेलों और सूखे घासादिसे युक्त है सो इस प्रकारकी महिमा और अन्य किसी है अर्थात सी महिमा और दूसरे किसीकी भी नहीं है तथा जिनकी देवोंद्वारा इस समय जैनपुर - जैनबिद्री में प्रतिदिन सविशेष पूजा की जाती है वह श्रीदक्षिण गोम्मटदेव दिगम्बरशासनकी जय करे - लोकमें वे उसे सदा स्थिर रखें। प्रतीत होता है कि जैनबिद्रीके दक्षिणगोम्मटदेवका निर्माण पाँचसौ लोगोंने किया था, जो उसके बनाने में एक साथ निरन्तर लगे Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्बिंशिका [७ అఆఆ0096669eeeeeee रहे थे और जिसका अतिशय यह है कि जैनबिद्रीमें वह देवोद्वारा आज भी प्रतिदिन पूजा जाता है और इस तरह अपने प्रभावद्वारा लोकमें दिगम्बर-शासनकी महत्ता त्यापित करता है ॥७॥ यं दुष्टो न हि पश्यति क्षणमपि प्रत्यक्षमेवाऽखिलं सम्पूर्णावयवं मरीचिनिचयं शिष्टः पुनः पश्यति । पूर्वस्यां दिशि पूर्वमेव पुरुः सम्यूज्यते' सन्ततं स श्रीपार्श्वजिनेश्वरो दृढयते दिग्वाससां शासनम् ।।।। जिसका प्रत्यक्ष अतिशय यह है कि समस्त और सम्पूर्ण अवयव विशिष्ट होनेपर भी जिस मरीचिनिचय (तेजोमय) श्रीपाश्वनाथका दुष्टको एक क्षण के लिये भी दर्शन नहीं होता किन्तु शिष्ट (सज्जन )को उनका दर्शन होता है और पुरुषोंद्वारा पूर्व दिशामें हमेशा सबसे पहले जिनकी सासरूपसे पूजा की जाती है वह श्रीपार्श्व जिनेश्वर दिगम्बर-शासनको हद करें-मजबूत करें। इस पद्यमें पूर्वदिशाके पार्श्वजिने घरका यह अतिशय बतलाया गया है कि दुष्ट आशयवालोंको उनका दर्शन नहीं होता; किन्तु श्रेष्ठ आशयवालोंको उनका दर्शन होता है । अर्थात शृभाशयवाले ही उनका दर्शन कर पाते हैं ॥८॥ यः पूर्व भुवनैकमण्डनमणिः श्रीविश्वसेमाऽऽदरात् निश्वकाम महोदधेरिव हृदात्सद्वत्रवत्याऽद्भुतम् । क्षुद्रोपद्रव-वर्जितोऽवनि-तले लोक नरीनर्तयन स श्रीशान्तिजिनेश्वरो विजयते विश्वाससां शासनम् ||६|| १ सः सम्पूज्यते । २ प्रति । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक पुस्तकमाला అఅఅఅఅ000000000000 जो जगतके अद्वितीय भूषण हैं और आश्चर्यको भात है कि जो विश्वसेनके श्रादर (भक्ति से समुद्रसे उसी तरह निकल-पाट हुए जिसप्रकार तालाबसे सद्बत्रवती (चेतवा)। और जो पृथ्वीपर क्षुद्र उपद्रवोंसे रहित होते हुए लोकको-अखिल विश्वको आनन्दकारक हुए। वह श्रीशान्तिजिनेश्वर दिग्वासों के शासनकी विजय करें-लोकमें उसके प्रभावको अधिकाधिक स्थायित करें॥६॥ योगा यं परमेश्वरं हि कपिलं सांख्या निर्ज' योगिनो बौद्धा बुद्धमज हरि द्विजवरा जल्पन्स्युदीच्या दिशि । निश्चीरं वृषलाञ्छनं ऋजुतनुं देवं जटाधारिणं निर्गन्धं परमं समाहुरमलं दिग्याससां शासनम् ॥१०॥ योग (नैयायिक और वैशेषिक) उत्तर दिशा में स्थित जिस नग्न मूर्तिको “परमेश्वर' (ईश्वर), सांस्य 'कपिल', योगी (आत्मध्यानी) जन "निज' (आत्मा), बौद्ध 'बुद्ध', बाभण 'ब्रह्मा', 'विष्णु' वृषलांछन, सरलशरीरी और जटाधारी महादेव इन भिन्न भिन्न नामोसे पुकारते हैं--कथन करते हैं तथा जैन उसे परमनिर्गन्थदेव कहते हैं वह उत्तरदिशाके मतिशययुक्त जिनदेव निर्मल दिगम्बरशासनको प्रवृद्ध करें ।। १८ ॥ सोपानेषु सफष्ट्रमिष्ट-सुकृतादारुह्य ग्रान् बन्दति(ते) सौधर्माधिपति-प्रतिष्ठित-वपुष्काये जिना विंशतिः । प्रख्याः स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला सम्मेदपृश्वीरहि भन्योऽन्यस्तु न पश्यति ध्रुमिदं दिग्याससाशासनम् ॥११॥ १ निजं परमेश्वरं | २ ब्रह्माणं । ३ श्रवस्त्र । ४ प्रति । ५ सन्तीति अस्याहारः । ६ तु पुनः । ७ कस्यचित् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनचतुविशिग्न එරටට [ ε 5000 जो सोधर्मेन्द्र से सम्पूजित सम्मेदगिरिपर प्रसिद्ध बीस जिनेन्द्र हैं, जो अपने ज्ञानकी प्रभासे अतुलनीय हैं और जिनकी भव्यजन ही अपने उत्तम पुरायसे कष्टके साथ सीढियोंपर चढ़कर वन्दना करते हैं, अभव्यको जिनके दर्शन नहीं होते, यह घव है वह बीस जिनेन्द्र दिगम्बर शासनके प्रभाव एवं महिमाको लोकहृदयों में अति करें। प्रस्तुत में यह बताया गया है कि श्रीसम्मेदगिरिसे निर्वाणप्राप्त बीस जिनेन्द्रोंके जो frase as प्रतिष्ठित हैं और जो arratमुद्रामें मौजूद हैं उनके भव्योको तो दर्शनादि होते हैं परन्तु अभव्यको नहीं होते, यह सम्मेदशिखर और वहाँ के बीस जिनेन्द्रोंका खास अतिशय तथा माहात्म्य है ||११|| पाताले परमादरेण परया भक्त्याऽर्चितो व्यन्तरेर्यो देवैरधिकं स तोपमगमत्कस्याऽपि पुंसः पुरा । भूभृन्मध्यतलादुपर्यनुगतः श्रीपुष्पदन्तः प्रभुः श्रीमत्पुष्पपुरे विभाति नगरे दिग्वाससां शासनम् ||१२|| जो पहले व्यन्तरदेवोंके द्वारा पातालमें— अधोलोकमें बड़ी भक्तिसे पूजे गये, वादको पर्वतके मध्यतलसे ऊपर आनेपर किसी पुरुष अधिक तोषके विषय हुए अर्थात् जिनके भूगर्भसे प्रकट होने पर किसी एक पुण्यात्माको बड़ा आनन्द हुआ और जो श्रीपुष्पपुर (पटना) नगर में सुशोभित है वह श्रीपुष्पदन्तप्रभु दिगम्बर शासनकी महिमा विस्तारित करें ||१२|| स्रष्टेति द्विजनायकैर्हरिरिति [ प्रोद्गीयते] वैश्र (ष्ण) वे बौद्धर्बुद्ध इति प्रमोदविवरौः शूलीति माहेश्वरैः । कस्यचित् | २ सन् | ३ प्रति । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला seeeeeeeeeee02 कुष्टाऽनिष्ट-बिनाशनो जनदृशां योऽलक्ष्यमूर्ति विभुः स श्रीनागहृदेश्वरो जिनपतिर्दिवासमां शासनम् ॥१३॥ द्विजनायक-नामण जिन्हें 'स्रष्टा', वैष्णव हरि (विष्णु), बौद्ध 'युद्ध' और माहेश्वरी-शैव 'शूली' बड़े हर्षपूर्वक बतलाते हैं तथा जो कुष्ट (कोढ़) और अनिष्टों (चिम्न-बाधाओं) को विनष्ट (दूर) करनेवाले हैं अथांत जिनके दर्शनादिमात्रसे कोढ़ाजनीका कोढ़ जैसे रोग और दर्शनाधी भव्योंके नाना अनिष्टोका सर्वथा नाश हो जाता है, और साधारण लोगोंके लिये जिनकी मूर्ति अलक्ष्य (अदृश्य) है वह श्रीनागदहतीर्थके नागहृदेश्वर (पार्श्व) जिनेन्द्रप्रभु दिगम्बर शासनका प्रभाव लोकमें खूब ख्यापित करें। नागद्रहतीर्थके श्रीनागजिन (पार्श्वनाथ) का यह माहात्म्य है कि उनके दर्शनादिसे कोड जैसे भबकर एवं असाध्य रोग तथा अनिष्ट दूर होजाते हैं और सामान्यजनों के लिये वे अदृश्य हैं । इस माहात्म्यके कारण प्रमुख बाझरण उन्हें 'सष्टा', वैष्णव, "विष्णु' बौद्ध 'बुद्ध' और शैव 'शुली' कहकर पुकारते हैं और इसमें उन्हें वड़ा प्रमोद होता है ॥१३॥ यस्याः पाथसि नामविशतिमिढ़ा पूजाऽष्टधा तिप्यते मन्त्रोच्चारण-बन्धुरेण युगपन्निग्रन्थरूपात्मनाम् । श्रीमत्तीर्थकृतां यथायथमियं संसंपनीपचते सम्मेदामतवापिकेयमवताहिग्वाससां शासनम् ॥१४॥ जिसके पवित्र जलमें निर्मन्थरूपके धारक श्रीतीर्थक्करों के एक साथ बीस नामोंसे सुन्दर मन्त्रों के उच्चारणपूर्वकज ल-चन्दनादि पाठ १ सन् । २ प्रति। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शामन-चतुस्चिशिका [११ eeeeeeee00000000000 प्रकारकी पूजा सामग्री चदाई जाती है और यथायोग्य शैलिसे उनकी पूजा सम्पन्न की जाती है वह सम्मेदगिरिकी अमृतवापिका दिगम्बर शासनको सदा रक्षा को-लोकमें उसे हमेशा स्थिर रक्खें । समोदगिरिकी अमृतवापिका (जलमन्दिरके जलकुण्ड) की यह महिमा है कि उसमें भव्यजन, सम्मेदगिरिसे निर्वाण प्राप्त बीस तीर्थङ्करोंके नामोंका उच्चारण करके उनके लिये अष्टद्रव्य चढ़ाते हैं और अपनी सातिशय भक्ति प्रकट करते हैं ॥१४॥ स्मात्ती' पाणिपुटोदनादनमिति ज्ञानाय मित्र-द्विषोरात्मन्यत्र च साम्यमाहुरसकृन्नन्थ्यमेकाकितां । प्राणि-ज्ञान्तिमद्वेषतामुपशमं वेदान्तिकाश्चापरेर तद्विद्धि प्रथमं पुराण-कलित दिग्याससां शासनम ॥१५।। स्मृतिपाठक, ज्ञानप्रातिके लिये हाधोंमें रखकर भोजन करना, मित्र और शत्रु तथा अपने और परमें समता (एक-सा) भाव रखना, निर्गन्थ (निर्वसन) रहना और एकाकी (अकेले ) रहना इन बातोंका कथन करते हैं । तथा वेदान्ती, प्रारिणयोंपर शान्ति (दया भाव) रखना, किसीसे द्वष नहीं करना और उपशममात्र (मन्दकपाय) रखना बतलाते हैं सो यह सब पुराण-प्रतिपादित दिगम्बरोंका शासन है अर्थात उक्त सब बातें दिगम्बर शासनमें सर्व प्रथम और मुख्यतया प्रतिपादित हैं। यहाँ रचयिताका आशय है कि स्मृतिपाठकों और वेदान्तियों. ने भी दिगम्बर शासनको अपनाया है और इससे उसका महत्व प्रकद है ॥१५शा १ स्मृतिपाठकाः । २ श्राहु इति क्रिया अत्रापि योज्या । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक पुस्तकमाला ०००००9690966666००० यस्य स्नानपयोऽनुलिप्तमखिलं कुष्टं दनीध्वस्यते सौवर्णस्तव केश (न) निर्मितमिव क्षेमङ्करं विग्रहम् । शक्तिविधायिनां शुभतमं चन्द्रप्रभः स प्रभुः तीरे पश्चिम सागरस्य जयतादिग्वाससां शासनम् ||१६|| १२ ] जिनके अभिषेकजल ( गन्धोदक) को शरीर में लगानेसे भक्तजनका समस्त कुष्ट नष्ट होजाता है और सम्पूर्ण शरीर सुवर्णमय सुन्दर गुच्छोंसे निर्मित हुए की तरह होजाता है तथा अत्यन्त शुभ (उत्तम) और क्षेमङ्कर ( कल्याणकारी) बन जाता है, वह पश्चिमसमुद्र तटपर प्रतिष्ठित श्रीचन्द्रप्रभप्रभु दिगम्बर शासनको जयवन्त करें । इस में पश्चिम समुद्रके तटपर स्थित श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रका यह अतिशय एवं प्रभाव बतलाया गया है कि उनके अभिषेक जलको लगाने से समस्त कोट नाश होजाता है और शरीर सर्वाङ्ग सुन्दर तथा सुवर्णमय बन जाता है, यह उनकी भक्ति करनेवालों को प्रत्यक्ष फल मिलता है ||१६|| शुद्धे सिद्धशिलातले सुविमले कर्पूरागुरु- कुंकुमादिकुसुमैरभ्यर्चिते फुल्लत्कार - फणापति - स्फुटफटा-रनावली -भासुरः छायापार्श्व विभुः भ भाति जयलादिग्वाससां शासनम् ||१७|| पञ्चामृतस्नापिते सुन्दरैः । जो पंचामृत से अभिषिक्त, कपूर, धूप और केशरादिक सुन्दर पुष्पोंसे संपूजित, विमल और पवित्र सिद्धशिलातलपर शोभित हैं तथा १ प्रति । २ प्रति । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन- धातुस्त्रीशिका eee स्फुरायमान सहस्रफणाओंसे विशिष्ट घरणेन्द्रकी प्रकट होरही फणाओंकी रक्षावली ( मणियों) की बृहद्ज्योतिले भासमान हैं वह श्रीज्ञायापार्श्वप्रभु दिगम्बर शासन की जय करें । इस में छायापार्श्वप्रभुका अतिशय बतलाया गया है ॥१७॥ क्षाराम्भोधिपयः सुधा इव प्रत्यक्षमाऽऽस्वाद्यते रसकृत् यच्छायया संभरत् । पूर्त (तः) पूततमः स पञ्चशत कोइएड प्रमाणः प्रभुः श्रीमानादिजिनेश्वरी स्थिरयते दिग्वाससां शासनम् ॥१८॥ se [ ५३ 16666e जिनकी छायाके पढ़नेसे प्रतिबिम्बको धारण करता हुआ लवणसमुद्रका जल प्रत्यक्ष मृतकी तरह स्वादु (मीठा) लगता है वह अत्यन्त पवित्र पाँचौ धनुष प्रमाण श्रीश्रादिजिनेश्वरप्रभु दिगम्बर शासनको स्थिर करें । जान पड़ता है लवण समुद्र के किनारे कहीं श्रीश्रादिनाथ जिनेश्वरका कोई प्रसिद्ध जिनमन्दिर रहा है जिसमें पाँचसो धनुषकी अवगाहनासे युक्त श्रीश्रादिनाथ जिनकी सातिशय प्रतिमा प्रतिष्ठित थी और जिसका यह अतिशय था कि उसकी छाया समुद्र में पड़नेसे उसका जल प्रत्यक्ष ही अमृतकी तरह मीठा मालूम होता था ||१८|| तिर्योऽपि नमन्ति यं निज-गिरा गायन्ति भक्त्याशया दृष्टे' यस्य पदद्वये शुभद्दशो' गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्रार्चित-पाद- पङ्कज-युगः पावापुरे पापड़ा श्रीमद्वीर जिनः स रक्षतु सदा दिग्वाससां शासनम् ||१६|| १ सति । २ सम्यग्दृष्टयः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १४] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला అం900980000000000eee जिन्हें तिर्यंच भी भक्तिपूर्वक 'अपनी वाणीद्वारा नमस्कार करते हैं और जिनके चरणदयके दर्शन कर लेनेपर भव्य जीव दुर्गतिको प्राप्त नहीं होते तथा जो पावापुरमें इन्द्रद्वारा सम्पूजित हैं वह निष्पाप श्रीवीरजिनेन्द्र दिगम्बर शासनकी सदा रक्षा करें:-लोकमें उसके प्रभावको हमेशा कायम रखें। ___ पावापुरमें श्रीवीरजिनेन्द्रकी जो प्रतिमा प्रतिष्ठित है उसका अतिशय यह है कि तिर्यंच भी उसे अपनी हार्दिक भक्ति प्रकट करने हैं तथा उसके दर्शन करनेवाले भव्योंको खोटी गतिकी प्राप्ति नहीं होती-वे उत्तम्-देव-मनुष्यकी गति को प्राप्त होते हैं ॥१६॥ सौराष्ट्र यदुवंश-भूषण-मरणे: श्रीनेमिनाथस्य या मूर्तिर्मुक्तिपथोपदेशन-परा शान्ताऽऽयुधाऽपोहनात् । वसभरणविना गिरिवरे। देवेन्द्र-संस्था(ला)पिता चित्तभ्रान्तिमपाकरोतु जगतो दिग्वाससां शासनम् ॥२०॥ यदुवंशभुषण श्रीनेमिनाथ तीर्थकरकी सौराष्ट्र (गुजरात) में गिरनार पर्वतपर जो आयुध, वन और श्राभरण रहित भव्य, शान्त तथा मोक्षमार्गका मूक उपदेश करने वाली मूर्ति सुप्रतिष्ठित है और जो देवेन्द्र द्वारा संस्था(स्ना)पित है वह संसारीजनके चित्तकी भ्रान्तिअज्ञानको दूर करे और दिगम्बर शासनके माहात्म्यको लोकमें प्रसृत करे । गिरनार पर्वतपर श्रीनेमिनाय तीर्थकरकी मनोन और शान्त दिगम्बर जिनमूर्ति बनी हुई है । वह मूर्ति इतनी भव्य और चित्ता१ गिरिनारपर्वते । २ पति । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुरिंशिका [ १५ 9000000000000000 कर्षक है कि लोग वहाँ जाकर उसके बड़ी श्रद्धासे दर्शनादि करते हैं और उसके मूक उपदेशको सुनते हैं जिससे उनके चित्तको बड़ी शान्ति निराभुतता पा ही है ॥२०॥ यस्याऽधाऽपि सुदुन्दुभि-स्वरमलं पूजां सुराः कुर्वते 'भव्य-प्रेरित-पुष्प-गन्ध-निचयोऽध्यारोहति मातले(ल) 1 नित्यं नूतन-पूजयाऽर्चित-तनुः श्रीवासुपूज्योऽवाच्य)भात् चम्पायां परमेश्वरः सुखकरो दिग्वाससां शासनम् ।।२।। जिनकी आज भी देवगण दुदुन्दुर्मिक मनोहर स्वरके साथ यथेष्ट पूजा करते हैं तथा भव्याद्वारा जिनपर चढ़ाये गये फूलों की भारी गन्ध पृथिवीपर फैल जाती है और जो चम्पापुरी में नित्य मई पूजाओंसे पूजित होते हुए शोभित हैं वह चम्पापुरीके परम सुखकारी श्री वासुपूज्य परमेश्वर दिगम्बर शासनको प्रवृद्ध करें। चम्पापुरीके श्रीवासुपूज्यजिनकी यह महिमा है कि इस समय भी देव उनकी बड़ी भक्ति के साथ पूजा-अर्चा करते हैं तथा भव्यजन उल्लेखनीय भारी पुष्प चढ़ाते हैं ||२|| तिर्यग्वेपमुपास्य पश्यत तपो वैशेषिकेनारणा)ऽऽदरात् भन्योत्सृष्ट-कर्णरत्रश्यमसम - पास सदा कुर्वता । चक्रे घोरमनन्यचीर्णमखिलं काऽऽनिहन्तुं त्वरा तत्वेनाऽपि समाश्रितं सुविशद दिग्वाससां शासनम् ॥२२॥ देखो, वैशेषिकमतप्रवर्तक करणाद महर्षिने तिर्यच (कपोत)का वेष धारणकर भव्यजनी ( दयालु लोगों ) के द्वारा डाले गये १ यस्येति अत्रापि सम्बन्धो (सम्बद्धयत इति) ज्ञेयः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] प्रकीरणक-पुस्तकमाला eeeeeeeDEO :54:44 फरयोंके न्यूनाधिक पासों (कौरों-कबलों) को चुनते हुए समस्त कोको जल्दी नाश करनेके लिये असाधारण एवं घोर तप किया । अतः ज्ञात होता है कि उन्होंने भी दिगम्बरोंके शासनका महत्व जानकर उसका समाश्रय लिया ||२॥ जैनाभासमतं विधाय कुधिया यैरप्यदो मायया इस्त्रारम्भ-(ग)हाश्रयो हि विविधप्रासः स वासा(सां)पतिः । माण्डोदएखकरोऽर्च्यते स च पुनः निर्ग्रन्थलेशस्ततो युक्त्या तैरपि साधु भाषितमिदं दिग्वाससां शासनम् ॥२३॥ जिन्होंने भी दुर्बुद्धिसे माया (छल) द्वारा अमुक जैनाभासमत को उत्पन्न कर अल्प पारम्भ और गृहरूप अल्प परिग्रहका आश्रय लिया, तथा विविध प्रासोको पसंद किया और बस्रोके स्वामी बने एवं भाण्ड (पात्र) तथा उन्नत दण्डको हाथमें लेना मान्य किया और इन सबको निम्रन्थोश (निम्रन्थता-अपरिप्रह) बतलाया है उन्होंने भी युक्तिसे-एक तरीकेसे दिगम्बर शासनको साधु कहा है। अर्थात् उनके द्वारा भी दिगम्बर शासनकी महत्ता स्वीकार की गई है। प्रतीत होता है कि यहाँ रचयिताने श्वेताम्बर मतका उल्लेख किया है और बतलाया है कि उन्होंने भी अल्प पत्र, पात्र और दण्डको आंशिक निर्गन्यता बतलाकर उस (निम्रन्थता) के महत्वको मान्य किया है और इस तरह दिगम्बर शासनका प्रभाव उनपर भी प्रकट है ||२३|| नाऽभुक्तं किल कर्मजालमसकृत् संहन्यते जन्मिनां योगा इत्यवबुध्य भस्म-कलितं देह जटा-धारिणम् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्लिंशिका [१७ ఉతంఅంఅeet00006 मुनर्ष स्थाचरणं च भैल्यमशन से चत्रिी देवी प्रोक्तं हि प्रथम प्रवन्धममलं विश्वाससा शासनम् ॥२४॥ 'प्राणियोंका कर्मजाल अनेक जन्मोमें भी बिना भोगे नाश नहीं होता'' ऐसा मानकर जिन योगों (शैवों-कापालिक ने शरीरमें भस्म (राख) लगाना, जटा रखना, सिरपर पैरोंको स्थापित करना और भिक्षावृत्तिसे भोजन लेना आदि प्राचररगोंका विधान किया है, प्रकट है कि उन्होंने भी निर्मल दिगम्बरशासनको नश्चम वन्दनीय कहा हैअर्थात् उनके द्वारा भी दिगम्बरशासनकी कितनी ही चर्याको स्वीकार कर उसके महत्वको मान्य किया गया है ||२४|| मूर्तिः कर्म शुभाशुभं हि भविना मुंक्त पुनश्चेतनः शुद्धोनिमल-निःक्रियाऽगुण इहाऽकर्त्तति' सांख्योऽप्रचीन् । संसर्गस्तदष्टरूपजनितस्तेनाऽपि संमन्यते वै तेनाऽपि समाश्रितं सुविशदं दिग्वाससां शासनम् ॥२५॥ मूर्ति (पुद्गलप्रकृति)-जीवों के शुभाशुभ कर्मकी की है और चेतन (पुरुष-आत्मा) उसका भोक्ता है, शद्ध है, निर्मल है, निष्क्रिय १ मामुक्त क्षीयते कर्म कल्प-कोटिशतैरपि ।' २ साख्योंके सिद्धान्तकी प्रतिपादक सारख्यकारिकागत निम्न कारिकाएँ शातल्य हैं: "तस्माश्च विपर्यासात्मिा' साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं दृष्टत्वामक भावश्च ॥१॥ तस्मात्तत्संयोगादचेतनं वेतनादिव लिंगम् । गुणकतवे च तथा कतॆव भवत्युदासीनः ॥२०॥ पुरुषस्य दर्शनार्थ केवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । पक ग्बन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥२१॥ . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9630000086660ee है, निर्गुण है तथा अकर्ता है, इन दोनों का अहवरूपसे संसर्ग-- संयोग होता है, ऐसा सारयों ने कहा और माना है सो सुस्पष्ट है कि उन्होंने भी दिगम्बरशासनका आश्रय लिया है। सांख्यो ने मन में दो तत्त्व स्वीकार किये हैं-१ प्रकृति और २ पुरुष | प्रकृति जड एवं पुद्गल है और पुरुष चेतन एवं साक्षी (दृष्टा) है। प्रकृति पुण्यपापादि कर्मकी की है और पुरुष (आत्मा) भोक्ता है, पुष्करपलाशकी तरह निर्लेप तथा श्रबन्धक है। किन्तु दोनोंमें उपकार्युपकारकभाव, जो कि अदृष्टरूप है, होने संसर्ग होता है और उससे संसारादि होता है । दिगम्बरशासनमें भी मूलमें दो तत्व स्वीकार किये गये है'- जीव और २ अजीव । जीव तन तथा अपने चैतन्यभावोंका भोक्ता है निश्चयनयसे अजीव-पुद्गल कोका अकर्ता तथा प्रबन्धक है, शुद्ध है और निर्मल है। और अजीव जड एवं पुद्गल है पुण्यपापदि शुभाशुभकर्मका कर्ता है । इन दोनोंके संयोगसे, १(क) जीवम जीवं दवं जिणवरचसहेगा जेग रिंगहिंड। - द्रव्यसंग्रह गा.' (स) 'जो पस्सदि अप्याणं अबद्धपुर अणण्णमविसेस । अपदेससंतमझ पस्दि जिरासासणं सध्यं ||१|| अगणाणमोहिदमदी मझमिण भणदि पुग्गलं दव्यं । बद्धमवद्ध च सहा जीवो बहुभावसंजुत्तो ||२|| श्रमिकको खलु मुदो दंसणणारामइश्रो सदाऽरूवी । ण दि अस्थि मम किं चि वि अगणं परमाणुमित पि ॥३८॥' - समयसार (ग) 'संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःस्वपरम्परा ।'- लघुसामायिकपाठ । इत्यादि दिगम्बर जैन शासन के सिद्धान्तशास्त्र द्रष्टव्य है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्चिशिका [ १६ వరింపంఅంఅంఅఅఆ जो रागादि अदृष्ट चेतनभावकर्म के निमित्तसे होता है, दुःखपरम्परारूप संसारादि होता है और संयोगके न रहनेपर आत्माको कैवल्य एवं निर्वाणकी प्राप्ति होती है और इस तरह स्पष्ट है कि सोख्यों द्वारा भी कितनी ही बातोंमें दिगम्बरशासन समाश्रित हुआ है और इसलिये उसका प्रभाव प्रकट है || चार्वाकैश्चरितोकिनेरभिमनो जन्मादि-नाशान्तको जीवः हमादिमयस्तथाऽस्य न पुनः स्वर्गापवर्गों कचित् । न्यायाऽऽयानवचोऽनुमार-धिषणात्मान्तरं मन्यते यैस्तव(स्तैों)चितमेव(त) देव परम दिग्वाससां शासनम ।।२६।। चारित्ररूपधर्मका तिरस्कार करनेवाले जिन चार्वाकोने जीवको जन्म और नाशवान् तथा पथिवी आदि चार भूतरूप माना है और स्वर्ग तथा मोक्ष उसके स्वीकार नहीं किये फिर भी न्यायप्राप्त वचनानुसारी बुद्धिसे प्रात्मानन्तर-दूसरा आत्मा (जीव) उन्होंने माना है सो यह उचित ही है और इस तरह चार्वाकोंने भी दिगम्बर शासनका आश्रय लिया है। तात्पर्य यह कि आत्माबहुत्वको स्वीकार करके चार्वाकोंने भी दिगम्बरशासनके सिद्धान्त-आत्माबहुत्वको माननेसे इस शासनके महत्वको अङ्गीकार किया है ॥२६|| श्रीदेवीप्रमुबाभिरचितपदाम्भोजः सुरा (मुदा)पिकचिन कल्याणेऽत्र निवेशिनः पुनरतो नो चालितुं शक्यते । १ अन्म भादौ यस्य स जन्मादिः । नाशोन्ते यस्यामो नाशान्तः । पश्चात् कर्मधारयः । स्वायें कः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला అంఅంఅంఅంఅంత? यः पूज्यो जलदेवताभिरतुल-सन्नमैदा-पाथसि श्रीशान्तिविमल स रक्षतु सदा दिग्बाससां शासनम ||२७|| श्रीदेवी आदिके द्वारा जिनके चरणकमलोंकी पूजा की गई और हर्षके साथ किसी कल्याणकमें जिनकी स्थापना की गई और फिर जो उस स्थानसे चलायमान न किये जासके तथा नर्मदाके जल में जलदेवताओद्वारा जो पूजित हुए वह श्रीशान्ति जिनेवर प्रभु निर्मल दिगम्बर शासनकी सदा रक्षा करें। नर्मदाके श्रीशान्तिजिनका यह अतिशय है कि श्रीदवी श्रादिके द्वारा पूजे जाकर किसी एक कल्याणकस्थानपर स्थापित होजानेपर फिर वे वहाँसे चलायमान न हो सके और जलदेवताओं द्वारा नर्मदाके जल में वही पूजित हुए ॥२॥ पूर्व याऽऽअममाजगाम सरितां नाथास्तु दिव्या शिला तस्यां देवगणान् द्विजस्य दधत स्तस्थौ जिनेशः स्थिरम् । कोपाद्विप्रजनावरांधनगरे देवः प्रपूज्याम्बरे दधे यो मुनिसुव्रतः स जयतादिग्वाससा शासनम् |२८11 जो बहनद (गोदावरी । की दिव्यशिला पहले आश्रमको प्राप्त हुई उस शिलापर देवगणोंको धारण करनेवाले एक द्विज (ब्रालय) के कोपसे जो जिनेन्द्र प्रभु उस शिलापर स्थिर होकर ठहर गये-वहाँसे टस से मस न हुए और बादको देवोद्वारा अाकाशमें पूजित होकर विप्रजनों के अवरोधनगरमें विराजमान हुए ? बह श्रीमुनिसुनतजिन दिगम्बरोंके शासनकी जय करें। १ शिलायां । २ हरिहरकमलासनादिदेवसमहान् । ३ प्राणस्योपरि । ४ तस्यां शिलायां धारयतः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुनिशिका [२१ Saaeeeeeeeeeeeeeeee कहते हैं कि एक दिव्यशिला गोदावरीके किनारे रही उसपर कोई एक ब्राह्मण अपने इष्ट हरिहरादि देवोको स्थापित करना चाहता था; परन्तु उसपर मुनिसुव्रतजिन ही स्थिर होकर ठहरे अन्य देव उसपर नहीं ठहर सके । बादको जब मुनिसुव्रतजिनका यह अतिशय लोकमें प्रकट हुआ तो देवोंने उन्हें श्राकाशमें और विनों तथा इतर जनोंने अपरोक बड़े उता और ही : और इस तरह मुनिसुव्रतजिनका यह अतिशय लोकमें भारी ख्यातिको प्राप्त हुआ ॥२८॥ जायानामपरिग्रहोऽपि' भविनां भूयायदि श्रेयसे तत्कस्यास्ति' न मोऽधमोऽपि विधिना हस्वस्तदर्थ मतः । क्षीणारम्भपरिग्रह शिवपदं को वा न वा मन्यते इत्यालौकिकभाषितं विजयते दिवाससा शासनम् ।।२।। खियोंका अपरिग्रह भी जीवों के लिये कल्याणकारी है। अतः वह थोड़ा भी किस जीवका कल्याणकारी नहीं है अपितु है ही और इसलिये वह कम भी अपरिग्रह यथाविधि हरएकके कल्याएके लिये माना गया है। 'भारम्भ और परिग्रहसे रहित शिवपद (मोक्ष) है। यह सभी लौकिकजनों आम लोगों) का कथन है उसे कौन नहीं मानता! अर्थात प्रायः सभी उसे मानते हैं। और इस तरह भी दिगम्बर शासन विजयको प्राप्त होता है-उसका व्यापक प्रभाष प्रकट है। लोकमें संसारी जीवोंको सभी सांसारिक पदार्थोसे मोह होता है उनमें स्वीविषयक मोह और ज्यादा होता है। जो इस मोहका यथा१ अथवा जायानां अपरिग्रहः इस्योऽपि कस्य तदर्थ थेयोऽर्थ न मतोऽस्ति अपि तु मतोऽस्ति । २ तत् तस्मात् स कस्य भविनः भै यसे न अस्ति अपि तु अस्येव । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ఇంఅంఅంఅంఅంది विधि अल्प भी त्याग करते हैं उनके लिये उतना भी कल्याणकारक होता है और इसलिये इस मोहका त्याग हरएका कल्याणकारी माना गया है। आम लोग भी इस बातको कहते हुए पाये जाते हैं कि "प्रारम्भ और परिग्रहकी झंझटसे मुक्ति पाना ही शिवपद है-मोक्ष है-निराकुलतारूप सुखकी प्राप्ति है।' इस प्रकार दुनिया निर्मथताको ही महत्व देती है और इसलिये दिगम्बर शासन पूर्णतः विजयी क्षमता रखता है ॥२६॥ सिक्ते सत्तरितोऽम्बुभिः शायरिया सम्मान देने परे सानन्द विपुलस्य शुद्धहदयैरित्येव भव्यैः स्थितः । निर्गन्धं परमहतो यदमलं बिम्बं दरीदश्यते यावद्वादशयोजनानि तदिदं दिग्याससां शामनम् ॥३०॥ निकटवर्ती नदीके पवित्र जलसे अभिषिक्त विपुलगिरिक श्रेष्ठ प्रदेशमें स्थित शुद्धहृदयवाले भोंद्वारा बड़े आनन्दसे पूजित होकर जो अरहन्तदेवका निर्गन्ध एवं निर्मल दिगम्बर जिनबिम्ब १२ योजन तक देखा जाता है सो यह दिगम्बरशासनका माहात्म्य है। विपुलाचलके सुन्दर प्रदेशमें जो आभूषणादिरहित दिगम्बर जैनमूर्ति स्थित है उसका यह अतिशय है कि वह १२ योजन तक दिसती है ॥३०॥ धर्माऽधर्म-शरीर-जन्य-जनक स्वर्गापवर्गादिके सर्वस्मिन् क्षणिके न कस्यचिदहो तद्वन्ध-मोक्ष-क्षणः । इत्याऽऽलोच्य सुनिर्मलेन मनसा तेनाऽपि यन्मन्यते बौद्धनात्मनिबन्धन हि तदिदं दिग्याससां शासनम ॥३॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्विंशिका అకలం'cret000000066 ___ जो मानते हैं कि धर्म अधर्म, शरीर, जन्य-जनक; स्वर्गअपवर्ग आदि सब क्षणिक हैं न किसीके बन्ध है और न किसीके मोक्ष उन बौद्धोंने भी निर्मल मनसे श्रात्मतत्वको चित्सन्ततिके रूपमें माना है और दिगम्बर है। __ इस पधका आशय यह है कि सभी पदार्थोंको क्षणिक मानने वाले बौद्धोंने भी आखिर श्रात्मतत्वको किसी न किसी रूपमें माना है और आत्माका यह मानना आंशिकरूपमें दिगम्बरशासन है ॥३१॥ यस्मिन' भूरि 'विधातुरेकमनसो भक्ति नरस्याऽधुना मत्काल जगतां त्रयेऽपि विदिता जैनेन्द्रविम्बालयाः । प्रत्यक्षा इव भान्ति निर्मलदशो देवेश्वराऽभ्यर्चिता विन्ध्ये भूहि भासुरेऽतिमहिने विश्वाससा शासनम ॥३॥ सुप्रसिद्ध अथवा अत्यन्त पूजित तथा देदीप्यमान विन्ध्यगिरिपर जो जगत्पसिद्ध और इन्द्रद्वारा अर्चित सुवर्णादि विशिष्ट धातुओंसे बने हुए अगणित जिनमन्दिर विद्यमान हैं उनकी अनन्यभक्ति करने वारले सम्यग्दृष्टि मनुष्यको वे आज भी तत्काल प्रत्यक्षकी तरह प्रतिभासित होते हैं सो यह दिगम्बरशासनका ही अतिशय है। . विन्ध्यगिरिपर प्राचीन समयमें अनेक मनोज्ञ चैत्यालय बने थे, ऐसा जैन इतिहास और शिलालेखोंसे प्रकट है और जो रचयिताके समयमें वहाँ मौजूद थे। उनका यह अतिशय था कि वे सम्यग्दृष्टि भक्त मनुष्योंको सदा प्रत्यक्षसे मालूम होते थे ॥३॥ ----- १ विशिष्टा धातुर्विधातुः सुवर्णरून्यताम्नगरिकादिः बातावेक वचनम् । २ भक्ति प्रति एकचित्तस्य । ३ व सति प्रतिमहिते अति पूजिते सति । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला అeeeeeeeeeeee भास्ते सम्प्रति मेदपाटविषये प्रामो गुणग्रामभूर्माना नागफणीति तब कृषता लब्धा शिला केनचित । स्वप्नं वृद्धमहार्जिकामिह' दर्दा स्याकारनिर्मापणे स श्रीमविजिनेश्वरो विजयते दिग्याससां शासनम् ॥३३॥ मेदपाट (मेवाड़)देशमें 'नागफणी' नामका एक गाँव है जो गुणीजनों और गुणोंकी खानि है । वहाँ किसीको खेत जोतते हुए एक शिला मिली । उस शिलापर जिन्होंने अपना श्राकार बनवानेके लिये वृद्धमहार्जिकाको स्वम दिया वह श्रीमल्लिजिनेश्वर दिगम्बरशासनकी विजय करें । कहा जाता है कि मेवाड़के नागफणी नामक गाँवमें एक शिला के ऊपर श्रीमल्लिजिनेश्वर प्रकट हुए और उन्होंने स्वम दिया कि वहाँ उनका जिनालय बनाया जाय । बादको वहाँ विशाल जिनमन्दिर अनाया गया और इस तरह वे लोकमें 'नागफणीके मल्लिजिनेश्वर के नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए ||३|| श्रीमन्मालवदेश-मङ्गलपुरे म्लेन्डैः प्रतापागतः भमा मूर्तिरथोऽभियोजित-शिराः' सम्पूर्णतामाऽऽययौ । यस्योपवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावैर्युतः स श्रीमानमिनन्दनः स्थिरयते दिग्वाससा शासनम ||३|| मालवा देशके मङ्गलपुर नगरमें म्लेच्छोंके द्वारा, जो अपने प्रभावको फैलाते हुए वहाँ पहुँचे, श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्रकी मूर्ति जब १ शिलायां । २ अथ या रति अध्याहारः । ३ सती। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन चतुस्त्रिंशिका अनेक प्रभावयुक्त तोड़ दी गई तो वह पुनः जुड़ गई और पूर्ण अवयवविशिष्ट होगई । यादको उनके प्रभावसे नाना उपद्रव दूर हुए वह श्रीश्रभिनन्दन प्रभु दिगम्बरशासनको सुदृढ करें। यहाँ माल पुरस्थ श्रीअभिनन्दन नेन्द्रका यह अतिशय बतलाया है कि आततायी म्लेच्छोंने जब उनकी मूर्तिको तोड़ दिया तो वह मूर्ति तुरन्त जुड़ गई और पूर्ववत् सम्पूर्ण होगई। इस अतिशय और उपद्रवोंको दूर करने आदि अनेक प्रभावोंसे दिगम्बरशासनकी महिमा प्रकट हुई और इसलिये श्रीश्रभिनन्दन जिनके द्वारा उसके लोक सदा बने रहनेकी रचयिताने कामना की है ||३४|| प्रशस्ति [ २५ इति हि मदनकीर्तिश्चिन्तयन्नाऽऽत्मचित्ते , विगलति सति रात्रेस्तुर्य भागाभागे । कपट - शत - विलासान् दुष्टबागन्धकारान् जयति विहरमाणः साधुराजीव बन्धुः ||३४|| इस तरह यह मदनकीर्ति साधु (यति) इन उपर्युक्त चौतीस पद्योद्वारा कथित वस्तुका - दिगम्बरशासन के प्रस्तुत माहात्म्यका —रात के चौथे पहरके आधे भागके बीत जानेपर अपने चित्तमे चिन्तन करता और fitness प्रति बन्धुत्वक भावनाको लिये विहार करता हुआ कपटजालों एवं दुष्ट वचनों को जीतने में तत्पर रहता है । इस पद्यके द्वारा सुनिमदनकीर्तिने अपनी कुछ आत्मचर्या - शान्तवृत्ति और वीतरागपरिणति का संसूचन (कथन) किया है और अपने नामोल्लेखपूर्वक पूर्वोक्त वक्तव्यका उपसंहार किया है ||३५|| १ इति पूर्वोक्तचतुस्त्रिंशक्का न्योतार्थम् । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला e00066909090 शासनचतुस्चिशिकाका पधानुक्रम श्रास्ते सम्प्रति इति हि मदनकर्मिक्षाराम्भोधि पयः चार्वाकवरितोमिते. मायानामपरिग्रहोऽपि जैनाभासमतं विधाय तिर्यग्वेषमुपास्य तिर्यशोऽपि नमन्ति द्वापश्चाशदन्तधर्माधर्म-शरीरनाभुत किल पत्र यत्र विहायसि पाताले परमादरेण पादांगुष्टनखप्रमासु पूर्व याऽऽअममा जगाम मूर्तिः कर्म शुभाशुम यत्पापवासाद्वालोयं यद्दीपस्य शिलेव ३३ यस्मिन् भूरिविधातु३५ यस्य नानपयो१८ यस्याद्यापि २६ यस्याः पाथसि २६ या पूर्वे भवनक२३ यं दुष्टो न हि पश्यति २२ योगा यं परमेश्वरं १६ लोकैः पञ्चरातीमितैर६ वास सार्थपतेः पुरा ३१ शुद्ध सिद्धशिलातले २४ श्रीदेवीप्रमुखाभि ३ श्रीमन्मालवदेश१२ सानन्दं निधयो २ सिक्त सत्मरितोऽम्बुभिः २८ सोपानेषु सकष्ट२५ सौराष्ट्र यदुवंश१ स्मार्ताः पाणिपुटो१ सष्टेति द्विजनायकः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन - चतुस्त्रिंशिका ›636606 परिशिष [ २७ ee शासन चतुस्त्रिशिका में उल्लिखित तीर्थ और उनका कुछ परिचय इस शासनचतुस्त्रिंशिका में जिन तीर्थों एवं सातिशय दिगम्बर जिनबिम्बों का उल्लेख हुआ है वे २६ हैं। उनमें दतो सिद्धतीर्थ हैं और १८ अतिशयतीर्थ हैं। उनका नीचे कुछ ऐतिहासिक परिचय दिया जाता है । सिद्धतीर्थ जहाँ से कोई पवित्र आत्मा मुक्ति अथवा निर्वाण प्राप्त करता है उसे जैनधर्ममें सिद्धतीर्थ कहा गया है। इस पुस्तकमें इसके रचयिता यतिपति मदनकीर्त्तिने ऐसे ८ सिद्धतीर्थंका सूचन किया है। वे ये हैं: १ कैलासगिरि, २ पोदनपुर, ३ सम्मेदशिखर (पाश्र्वनाथहिल), ४ पाषापुर, ५ गिरनार (जर्जयन्तगिरि), ६ चम्पापुरी, ७ विपुलगिरि और ८ विन्ध्यगिरि । १. कैलासगिरि भारतीय धर्मो विशेषतः जैनधर्ममें कैलासगिरिका बहुत बड़ा महत्व लाया गया है। युगके आदिमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ ने यहाँ से मुक्ति-लाभ किया था। उनके बादमें नागकुमार, चाति और महाबालि आदि मुनिवरोंने भी यहीसे सिद्ध पद पाया था । जैसा कि विक्रमकी छठी शताब्दीके सुप्रसिद्ध विद्वानाचार्य Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9000 300000000000 पूज्यपाद देवनन्दि)की संस्कृत निर्याणभक्तिसे और अज्ञातकर्तृक प्राकृत निर्वाणकाण्डसे' प्रकट है:(क) कैलासशैलशिखरे परिनिर्वृतोऽसौ शैलेसिभावमुपपद्य वृषो महात्मा। नि० भ० श्लो० २२ । (ख) अट्ठावयम्मि उसहो.--नि० का० गा० नं०१ । णागकुमारमुगिंदो बालि महाबालि चेव अज्मेया। अठ्ठावय-गिरिंसिहरे णिवाणगया णमो तेसिं ।।-नि.का.१५ । मुनि उदयकीर्तिने भी अपनी 'अपभ्रश निर्वाणभक्ति में कैलासगिरिका और वहाँ से भगवान ऋषभदेवक निर्वाणका निम्न प्रकार उल्लेख किया है(ग) कइलास-सिहरि सिरि-रिसहनाहु. जो सिद्धउ पयडमि धम्मलाहु । ___ यह ध्यान रहे कि अष्टापद भी इसी कैलासगिरिका दूसरा नाम है । जैनेतर इसे 'गौरीशङ्कर पहाई' भी कहते हैं। भगजिनसेनाचार्यके आदिपुरा तथा दूसरे दिगम्बर ग्रन्थोंमें इसकी बड़ी महिमा गाई गई है। श्वेताम्बर और जैनेतर सभी इसे अपना तीर्थ मानते हैं। इससे इसकी व्यापकता और महानता स्पष्ट है। किसी समय यहाँ भगवान् ऋषभदेवकी बड़ी ही मनोज और आकर्षक सातिशय सुवर्णमय दिगम्बर जिनमूत्तिं प्रतिष्ठित थी, जिसका उल्लेख मदनकीर्तिजींने इस रचनाके प्रथम पद्यमें सबसे पहले और बड़े गौरवके साथ किया है १ इसके रचयिता कौन हैं और यह कितनी प्राचीन रचना है। यह अभी अनिश्चित है फिर भी वह सात साठ-सौ वर्षसे कम प्राचीन नहीं मालूम होती । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुनिशिका [२६ Seeeeeeeeeeeeeeeeee और अच' शब्दका प्रयोग करके अपने समयमें उसका होना तथा देवोद्वारा भी उसकी बन्दना किया जाना खासतौरसे सूचित किया है। मालूम नहीं, अब यह मूर्ति अथवा उसके चिह्नादि वहाँ मौजूद है या नहीं ? पुरातत्वोमियोंको इसकी खोज करनी चाहिए। २. पोदनपुर पोदनपुरकी स्थितिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंने विचार किया है। डाक्टर जैकोबी विमलमूरिष्कृत "पउमचरिय' के आधारसे पश्चिमोतरसीमाप्रान्तमें स्थित 'तक्षशिला'को योदनपुर बतलाते हैं और डाक्टर गोविन्द पै हैदराबाद-बरारमें निजामाबाद जिलेके 'बोधन' नामक एक ग्रामको पोदनपुर कहते हैं। बा. कामताप्रसादजी जैनने इन दोनो मतोंकी समीक्षा करते हुए जैन और जैनेतर साहित्यकी साक्षी द्वारा प्रमाणित किया है। कि तक्षशिला पोदनपुरसे भिन्न पश्चिमोत्तरसीमाप्रान्तमें अवस्थित था और पोदनपुर दक्षिणभारतमें गोदावरीके तटपर कहीं घसा हुआ था। भगवजिनसेनके परमशिष्य और विक्रमकी ध्वीं शताब्दीके विद्वानाचार्य गुणभद्र ने अपने उत्तरपुराणमें स्पष्ट लिखा है कि भारत के दक्षिण में सुरम्य (अश्मक) नामका एक बड़ा महान्) देश है उसमें पोदनपुर नामक पिशाल नगर है जो उस देशकी राजधानी है'। श्रीकामताप्रसादजीने यह भी बतलाया है कि जैनपुराणोंमें पोदनपुरको पोदन, पोदनापुर, पौदन और पोदन्य तथा बौद्धमन्थोंमें १ देखो, “पोदनपुर और तक्षशिला' शीर्षक लेस्व, 'जैन एन्टीकरी' • मा०४ कि. ३ । २ जम्बूषिभूषणे द्वीपे भरते दक्षिणे महान् | सुरम्यो विषयस्तत्र विस्तीर्णे पोदनं पुरं ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला అe000అeeeeeeeeee रक्षिणापथके अपमझ देशकी राजधानी पोतन या पोतलि एवं हिन्दग्रन्थ भागवतपुराणमें इक्ष्वाकुवंशीय राजाओंकी अश्मक देशकी राजधानी पौदन्य कहा गया है और वह प्राचीन समयमें एक विख्यात नगर रहा है । अस्तु । जैन इतिहासमें पोदनपुरका उल्लेखनीय स्थान है । श्रादिपुराण आदि जैनग्रन्थों और अनेक शिलालेखोंमें' वर्णित है कि श्रादितीर्थकर ऋषभदेवके दो पुत्र थे-भरत और बाहुबलि । ऋषभदेव जब संसारसे विरक्त हो दीक्षित हुए तो उन्होंने भरतको अयोध्याका और बाहुबलिको पोदनपुरका राज्य दिया और इस तरह भरत भयोन्याके और बाहुबलि पोदनपुरके राजा हुए । कालान्तरमें इन दोनों भाइयोंका युद्ध हुआ। युद्धमे बाहुबलि की विजय हुई। परन्तु राहुबलि संसारकी दशा देखकर राज्यको त्याग तपस्वी हो गये और कठोर तपकर पोदनपुरमें उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाण-लाभ किया । बादको सम्राट भरतने अपने विजयी अद्भुत त्यागी तथा अद्वितीय तपस्वी और इस युगमें सर्वप्रथम परमात्मपद एवं परिनिर्वति प्राम करनेवाले अपने इन आदर्श भाईकी यादगारमें पोदनपुरमें ५२५ धनुष. प्रमाला उनको शरीराकृतिके अनुरूप अनुपम मूर्ति स्थापित कराई जो बड़ी ही मनोज्ञ और लोकविश्रत हुई । तबसे पोदनपुर सिद्धातीर्थ और अतिरायतीर्थक रूपमें जैनसाहित्यमें विश्रुत है। आचार्य पूज्यपादने अपनी निर्वाणभक्ति में उसका सिखतीर्थक रूपमें समुल्लेख किया है । यथा-- १ देखो, शिलालेख न ५ श्रादि, जो बिन्ध्यगिरिपर उत्कीर्ण है। . --(शि०सं० पृ. १६६)। २ वह यह कि राज्य जैसे जघन्य स्वार्थ के लिये भाई-भाई भी लाते हैं और एक दूसरेकी नानके दुश्मन बन जाते है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्लिशिका Geeeeeeeeeeeeeeeeees (क) विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीपके घ ॥ ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाताः ' स्थानानि तानि अगति प्रथितान्यभूषन् ॥३०॥ 'नियोगकाण्ड' और मुनि उदयकीतिकात 'अपभ्रशानिर्वाणभक्ति में भी पोदनपुरके बाहुबली स्वामीकी अतिशय श्रद्धाके साथ बन्दना की गई है। यथा(ख) बाहूलि सह बदमि पोदनपुर हत्थिनापुरे वंदे । संती कुथुध अरिहो वाराणसीए सुपास पासच | गा. नं. २१ (ग) बाहुबलिदेड पोयणपुरंमि. इंउं बंदमि मासु जम्मि जम्मि ! ऐसा जान पड़ता है कि कितने ही समयके बाद बाहुबलिस्वामी की उक्त मूर्ति के जीर्ण होजानेपर उसका उद्धारकार्य और उस जैसी उनकी नयी मूर्तियाँ वहाँ और भी प्रतिष्ठित होती रही हैं। मदनकीर्तिके समयमें भी पौदनपुरमें उनकी अतिशयपूर्ण विशाल मूर्ति विद्यमान श्री, जिसकी सूचना उन्होंने 'अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो पत्रवन्धः स बैं' शब्दोंद्वारा की है और जिसका यह अतिशय था कि भन्योको उनके चरणनखोकी कान्तिमें अपने कितने ही आगे-पीछेके भव प्रतिभासित होते थे। परन्तु मदनकीर्तिके प्रायः समकालीन अथवा कुछ पूर्ववती कबडकवि पं.कोप्पणद्वारा लिखित एक शिलालेख नं. ८५ (३४)में, जो ३२ पद्यात्मक कनड रचना है और जो विक्रम संवत १२३७ (शक सं. ११०२)के लगभगका उत्कीर्ण है, यामुण्डरायद्वारा निर्मित दक्षिण गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके निर्माणका इतिहास देते हुए बतलाया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9000ceeeeeeeesdescea है कि चामुण्डरायको उक्त पोदनपुरके बाहुबलीकी मूर्ति के दर्शन करनेकी अभिलाषा हुई थी और उनके गुरुने उसे कुक्कुड सर्पोखे च्याप्त और बनसे प्राचादेश होज उसमर्शन होगा अशक्य तथा अगम्य बतलाया था और तब उन्होंने जैनबिद्री (श्रवणबेल्गोल में उसी तरहकी उनकी मूर्ति बनवाकर अपनी दर्शनाभिलाषा पूर्ण की थी । अतः मदनकीर्तिकी उक्त सूचना विचारणीय है और विद्वानोंको इस विषयमें खोज करनी चाहिये । उपर्युक्त उल्लेखोंपरसे प्रकट है कि प्राचीन काल में पोदनपुरके बाहुबलीका बड़ा माहात्म्य रहा है और इसलिये वह तीर्थक्षेत्र के रूपमें जैनसाहित्यमें खासकर दिगम्बर साहत्यमें उलिखित एवं मान्य है। ३. सम्मेदशिखर सम्मेदशिखर जैनोंका सबसे बड़ा तीर्थ है और इसलिये उसे 'तीर्थराज' कहा जाता है । यहाँसे चार नीर्थङ्करों (ऋषभदेव, वासुपूज्य, अरिष्टनेमि और महावीर)को छोड़कर शेष २० तीर्थङ्करों और अगणित मुनियोंने सिद्ध-पद प्राप्त किया है । इसे जैनोंके दोनों सम्प्रदाय (दिगम्बर और श्वेताम्बर) समानरूपसे अपना पूज्य तीर्थ मानते हैं। पूज्यपाद देवनन्दिने अपनी संस्कृतनिरिणभक्ति में लिखा है कि बीस तीर्थ रोने यहाँसे परिनिर्वाणपद पाया है । यथा(क) शेषास्तु ते जिनवरा जित-मोहमझा ज्ञानार्क-भूरिकिरणरषभास्य लोकान् । स्थान परं निरखधारितसौख्यनिष्ठ सम्मेदपर्षततले समवापुरीशाः ॥२५॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అ शासन-चतुस्विंशिका [३३ eeeee92900 అఅఅం इसी तरह 'प्राकृतनिर्वाणमण्ड' और मुनि उदयकीर्तिकृत 'अपभ्रंशनिर्वाणभक्ति में भी सेग्मेदपर्वतले बीस जिनेन्द्रोंके निवारण प्राप्त करनेका उल्लेख है और जो निम्न प्रकार है(ख) बीस तु जिणवरिंदा अपरान दिल्या ध्रुद किलेगा! ___ सम्मेदे गिरिसिहरे निवाणगया णमो तेसि ॥२|-नि० का० । (ग) सम्मेद-महागिरि सिद्ध जे वि, इंउ बंदउँ वीस-जिणिंद ते वि। -अ० नि० भ०। इस तरह इस तीर्थका जैनधर्म में बड़ा ही गौरवपूर्ण स्थान है। प्रतिवर्ष सहस्रों जैनी भाई इस सिद्धतीर्थकी वन्दना के लिये जाते हैं। यह विहारमान्तके हजारीबाग जिलेमें ईसरी स्टेशनके, जिसका अब पारसनाथ नाम होगया है, निकट है। इसे पारसनाथ हिल' (पार्श्वनाथका पहाड़) भी कहते हैं, जिसका कारण यह है कि पर्वतपर २३खें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथका सबसे बड़ा और प्रमुख जिनमन्दिर बना हुआ है। ४. पानापुर यहाँ से अन्तिम तीर्थङ्कर वर्ड मान-महावीरने निर्वाण प्राप्त किया है । अतएव पावापुर जेनसाहित्यमें सिद्धक्षेत्र माना जाता है । आचार्य पूज्यपादने लिखा हैपावापुरस्य बहिसन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुसवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्तमानजिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा। -निर्वा० भ० २४॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला Seeeeeeeeeeeeeeeeee निर्वाणकाण्ड और अपनश निर्वाणमक्तिमें भी यही बतलाया है। यथा (क) पावाए हिन्दो महावीरो-निः का० गा.१ (ख) पावापुर बंदाई वडूमाणु. जिणि महियाल पयदिउ विमलणाणु। अ. नि. भ. । यह पावापुर भी विहारप्रान्तमें है और पटनाके निकट है जो गुरगावासे १३ मील की दूरीपर है और जहाँ मोटर, ताँगे आदिसे जाते हैं । यहाँ कार्तिक वदी अमावस्याको भगवान महावीर के निर्वाण दिवसो. पलक्ष्यमें एक बड़ा मेला भरता है । यहाँ बीरजिनेन्द्रकी सातिशय मूर्ति रही है जिसका मदनकोतिने उल्लेख किया है। ५. गिरनार (ऊर्जयन्तगिरि) यहाँ से २२वें तीर्थकर अरिष्टनेमिने निर्वाण प्राप्त किया है और असंख्य ऋषि-मुनियोंने भी यहाँ तप करके सिद्धपद पाया है । अतएव यह सिद्धतीर्थ है। आचार्य पूज्यपादने कहा है कि जिन 'अरिएनेमिः की इन्द्रादि और जैनेतर साधुजन भी अपने कल्याण के लिये उपासना करते हैं उन अरिष्टनेमिने अष्टकोको नाशकर महान् उर्जयन्तगिरि -गिरनारसे मुक्तिपद प्राप्त किया।' यथायत्प्राय॑ते शिवमय विबुधेश्वरायः ।। पास्वरिष्ठभिश्च परमार्थ-गवेष-शीलैः । नष्टाऽट-कर्म-समये तदरिष्टनेमिः सम्प्राप्तवान क्षितिधरे बृहदूर्जयन्ते ।।२३।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्विंशिका [ ३५ ఆ0006eeeeeee90000006 निर्वाणकाण्डकार और अपभ्रंश निर्वाणभक्तिकारका भी यही कहना है (क) उम्जंते णेमिजिणो'-प्रा०नि० का गा.१। (स्य) उज्जतिमहागिरि सिद्धिपत्तू, सिरिनेमिनाहु जादवपयित्तु । इसके सिवाय इन दोनों अन्यकारोंने यह भी लिखा है कि प्रय म्नकुमार, शम्बुकुमार, अनिरुद्धकुमार और सात सौ बहत्तर कोटि मुनियों ने भी इसी उर्जयन्तगिरि-गिरनारसे सिद्ध पद प्राप्त किया है । यथा(क) एमसामिपाजुएणो संचुकुमारो तहेव अणिरुद्धो। बाहत्तरकोडीश्रो उज्जते सत्तसया सिद्धा ।। नि. का.५ (ख) अएणे पुणु सामपजुण्णवेवि, अणिरुद्धसहिय हई नवमि ते वि । अवरे पुणु सत्तसयाई तित्त्थु, बाह्तरिकोडिड सिद्धपत्तु । 55 सिखूपत्तु। -अप. नि. भ. । यह उर्जयन्तगिरि पाँच पहाड़ोंमें विभक्त है । पहले पहाड़की एक गुफामें राजुलकी मूर्ति है । राजुलने इसी पर्वतपर दीक्षा ली थी और तप किया था । राजुल तीर्थकर नेमिनाथकी पल्ली बननेवाली थी, पर नेमिनाथके किसी एक निमित्तको लेकर दीक्षित होजानेपर उन्होंने भी दीक्षा ले ली थी और फिर विवाह नहीं कराया था । दूसरे पहाड़से अनिरुद्धकुमार, तीसरेसे शम्भुकुमार, चौथेसे श्रीकृष्णजीके पुत्र प्रद्युम्नकुमार और पाँचसे तीर्थकर नेमिनाथने निर्वाण प्राप्त किया था। इस सिद्धतीर्थकी जैनसमाजमें वही प्रतिष्ठा है जो सम्मेदशिखरकी है। यह Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9089seeeeeeeeee सौराष्ट्र (गुजरात)में जूनागढ़के निकट अवस्थित है । तलहटीमें धर्मशालायें भी मनी नई हैं। सात उशा , यहाँ श्रीनेमि . नाधकी बड़ी मनोज्ञ और निरामरण मूर्ति रही जो खास प्रभाव एवं अतिशयको लिये हुए थी। मालूम नहीं वह मूर्ति अब कहाँ गई? या खण्डित हो चुकी है क्योंकि अब वहाँ चरणचिह्न ही पाये जाते हैं। ६. चम्पापुर बारहवें तीर्थकर वासुपूज्यका यह गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्षका स्थान है। अतएव यह सिद्धतीर्थ और अतिशय तीर्थ दोनों है । स्वामी पूज्यपादने लिखा है कि चम्पायुरमें वसुपूज्यसुन भगवान वासुपूज्यने रागादि कर्मबन्धको नाशकर सिद्धि (मुक्ति प्राप्त की है । यथा -- चम्पापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान । सिद्धिं परामुपगतो गतरागबन्धः ।। -सं. नि. भ. २२। यही निर्धारणकाण्ड और अपन'शनिर्वाणभक्तिमें कहा है(क) 'चंपाप व.मुपुज्ञजिणणाहो'-नि० का १ । (ख) पुगुं चंपनयरि जिणु वासुपुज, __णिवाण-पत्तु छंडेवि रज्जु ।-अ. नि० भ० । इस तरह चम्पापुरको जैनसाहित्यमें एक पूज्य तीर्ध माना गया है। इसके सिवाय, जनप्रन्थों में चम्पापुरकी प्राचीन दस राजधानियों में भी गिनती की गई हैं और उसे एक समृद्ध नगर बतलाया गया है। १ देखो, हा० जगदीशचन्द्रकृत 'जैनमन्थों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रचार" शोधक लेख, प्रेमी-अभिनन्दनग्रन्थ पृष्ठ २५४ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हांसे भापक कमल ही मन उससे सटा अप्रतीत होता है । शासन-चतुस्लिंशिका eeeeeeeeeeeee यह चम्पापुर वर्तमानमें एक गौवके रूपमें मौजूद है और भागलपुरसे ६ मील की दूरीपर है। मदनकीर्तिके उल्लेखानुसार यहाँ १२वें तीर्थङ्कर वासुपूज्यकी अतिशयपूर्ण मूर्ति रही है जिसकी देवमनुष्यादि पुष्प-निचयसे बड़ी भक्ति पूजा करते थे। प्रतीत होता है कि चम्पापुरके पास जो मन्दारगिरि है उससे सदा हुआ एक तालाब है। इस तालाबके कमल ही मदनकीर्तिको पुष्पनिचय विवक्षित हुए हैंउन्हींसे भक्तजन उनकी पूजा करते होंगे। ७. विपुलगिरि राजगृहके निकट विपुलगिरि, वैभारगिरि, कुण्डलगिरि अथवा पाण्डुकगिरि, पिगिरि और बलाह ऋगिरि ये पाँच पहाड़ स्थित हैं। बौद्ध-ग्रन्थोंमें इनके वेपुल्ल, वेभार, पाण्डव, इसिगिलि और गिज्मकूद ये नाम पाये जाते हैं । इन पाँच पहाड़ोंका जैनप्रन्थोंमें विशेष महत्त्व वर्णित है । इनपर अनेक ऋषि-मुनियोंने तपश्चर्या कर मोक्ष -साधन किया है। आचार्य पूज्यपादने इन्हें सिद्धक्षेत्र बतलाया है और लिखा है कि इन पहाड़ोंसे अनेक साधुओंने कर्म-मल नाशकर सुगति प्राप्त की है । यथा द्रोणीमति प्रवरकुण्डल-मेटके च वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्याद्रिके च विपुलाद्रि-बलाहके च ये साधयो हतमलाः सुगति प्रयाता: स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूषन् । –नि. भ. २६,३०। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला Geeeeeeeeeeeeeeeee इन पाँचोंमें "विपुलगिरि'का तो और भी ज्यादा महत्व है। क्योंकि उसपर अन्तिम तीर्थकर वर्धमान-महावीरका अनेकवार सम. वशरण भी पाया है और वहाँसे उन्होंने मुमुक्ष ओंको मोक्षमार्गका उपदेश किया है । मदनकीर्तिने यहाँ के प्रभावपूर्ण जिनयिम्बका उल्लेख किया है। जान पड़ता है उसका अतिशय लोकविश्रत था। सम्भव है जो विषुलगिरिपर प्राचीन जिनमन्दिर बना हुआ है और जो आज खण्डहरके रूपमें वहाँ मौजूद है उसी में उल्लिखित जिनविम्ब रहा होगा। अब यह सहा तासा के प्रति ' इसकी सुबई होनेपर जैनपुरातत्वकी पर्याप्त सामग्री मिलनेकी सम्भावना है। ८. विन्ध्यगिरि आचार्य पूज्यपादने 'विन्ध्यगिरि'को सिद्धक्षेत्र कहा है और वहाँसे अमेक साधुओंके मोक्ष प्राश करनेका समुल्लेख किया है' । यह विन्ध्यगिरि विन्ध्याचल जान पड़ता है जो मध्यप्रान्तमें रेवा (नर्मदा)के किनारे-किनारे बहुत दूर तक पाया जाता है और जिसकी कुछ छोटी छोटी पहाड़ियाँ पास-पास अवस्थित हैं । मदनकीर्तिने इसी विन्ध्यगिरि अथवा विन्ध्याचलके जिनमन्दिरोंका, निर्देश किया प्रतीत होता है। झाँसीके पास जो एक देवगड़ नामक स्थान है जो एक सुन्दर पहाड़ीपर स्थित है वहाँ विक्रमकी १०वीं शताब्दीके आस-पास बहुत मन्दिर बने हैं जो शिल्पकला तथा प्राचीन कारीगरीकी दृष्टिसे उल्लेखनीय हैं। भारत सरकारके पुरातत्वविभागको यहाँ से २०० के लगभग शिलालेख १ विन्ये च पौदनपुरे वृषद्वीपके च'-नि० भ० । २ देखो, कल्याणकुमार शशिकृत 'देवगड़' नामक पुस्तककी प्रस्तावना | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन चतुर्विशिका [३९ प्राप्त हुए हैं। उनमें ६० पर तो समय भी अक्षित है। सबसे पुराना लेख वि. सं. १ का है और अर्वाचीन सं. १८७६ का है। यह भी हो सकता है कि पूज्यपाद और मदनकीर्तिने जिस विन्ध्यगिरिकी सूचना की है वह मैसूर प्रान्तके हासन जिलेके चेवरायपाटन तालुकेमें पायी जानेवाली विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि नामकी दो सुन्दर पहाड़ियोंमेंसे पहली पहाड़ी विन्ध्यगिरि हो।यह पहाड़ी दोडबेट्ट' अर्थात् बड़ीपहाड़ीके नामसे प्रसिद्ध है । इसपर आठ जिनमन्दिर बने हुए हैं । गोम्मटेश्वरकी संसारप्रसिद्ध विशाल मूर्ति इसीपर उत्कीर्ण है जिसे चामुण्डरायने विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित कराया था। अतएव इस प्रसिद्ध मूर्तिक कारण पर्वतपर और भी कितने ही जिनमन्दिर बनवाये गये होंगे और इसलिये उनका भी प्रस्तुत रचनामें उल्लेख सम्भव है। यह पहाड़ी अनेक साधु-महात्माओंकी तपःभूमि रही है । अतः विन्ध्यगिरि सिबतीर्थ तथा अतिशयतीर्थ दोनों है। अतिशयतीर्थ अब मदनकीर्तिद्वारा उल्लिखित १८ अतिशयतीर्थो अथवा सातिशय जिनपिम्बोंका भी यहाँ कुछ परिचय दिया जाता है । श्रीपुर-पार्श्वनाथ. जैनसाहित्यमें श्रीपुरके श्रीपार्श्वनाथका बना माहात्म्य और अतिशय बतलाया गया है और उस स्थानको एक पवित्र तथा प्रसिद्ध अतिशयतीर्थक रूपमें उल्लेखित किया गया है। निर्वाणकाण्डमें जिन अतिशय-तीर्थोका उल्लेख है उनमें 'श्रीपुर का भी निर्देश है और १ देखो, जैनशिलालेखसंग्रह प्रस्तावना पृ०२। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीपुस्तमासा ఉంది 6e000000000000 वहाँ के पार्श्वनायकी वन्दना की गई है। । मुनि उदयकीर्ति ने भी अपनी अपभ्रशनि रणभक्तिमें श्रीपुरके पार्श्वनाथका अतिशय प्रदर्शित करते हुए उनकी बन्दना की है। मदनकीर्तिसे कोई सो-वर्ष बाद होनेवाले श्वेताम्बर विद्वान् जिनप्रभसूरिने भी अपने 'विविधतीर्थकल्प में एक 'श्रीपुर-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकल्प' दिया है और उसमें इस अतिशयतीर्थका वर्णन करते हुए उसके सम्बन्धमें एक कथाको भी निबद्ध किया है | कयाका सारांश यह है कि "लकाधीश दशमीवने माली सुमाली नामके अपने दो सेवकों को कहीं भेजा । वे विमानमें बैठे हुए आकाशमार्गसे जा रहे थे कि जाते-जाते भोजनका समय होगया। सुमालीको ध्यान पाया कि जिनेन्द्र प्रतिमाको घर भुल आये और बिना देवयू जाके भोजन नहीं कर सकते। उन्होंने विद्याबलसे पवित्र बालद्वारा भाविजिन श्रीपार्श्वनाथकी नवीन प्रतिमा बनाई। दोनोने उसकी पूजा की और फिर भोजन किया । पश्चात् उस प्रतिमाको निकटवर्ती ताखाबमें विराजमान कर आकाशमार्गसे चले गये । वह प्रतिमा शासनदेवताके प्रभावसे तालाब में अखण्डितरूपमें बनी रही । कालान्तरमें उस तालावका पानी कम हो गया और सिर्फ उसी गड्ड में रह गया जहाँ वह प्रतिमा स्थित थी। किसी समय एक श्रीपाल नामका राजा, जिसे भारी कोट था, घूमता हुआ वहाँ पहुँचा और पहुँचकर उस पानीसे अपना हाथमुंह धोकर अपनी पिपासा शान्त की। जब वह घर लौटा तो उसकी रानीने उसके हाथ-मुहको कोदरहित देखकर पुनः उसी पानीसे मान १. यथा-'पास सिरपुरि वेदमि ।'–निर्वाणका | २ यथा-'अ बंदउं सिरपुरि पासनाहु, जो अंतरिक्खि दणाणलाहु । ३ देस्रो, सिंधी ग्रन्थमालासे प्रकाशित 'विविधतीर्थकल्प' पृ० १०२ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्त्रिंशिका [४१ అందింఅంఅంఅeeeeeee करने के लिये राजासे कहा । राजाने वैसा किया और उसका सर्व कोढ़ दूर हो गया। रानीको देवताद्वारा स्वममें इसका कारण मालम हुत्रा कि वहाँ पार्श्वजिनकी प्रतिमा विराजमान है और उसीके प्रभावसे यह सब हुआ है। फिर वह प्रतिमा अन्तरिक्षमें स्थित हो गई। राजाने वहाँ अपने नामाक्षित श्रीपुरनगरको बसाया ! अनेक महोत्सयोंके साथ उस प्रतिमाकी यहाँ प्रतिष्ठा की गई। तीनों काल उसकी पूजा हुई। आज भी वह प्रतिमा उसी तरह अन्तरिक्षमें स्थित है । पहले यह प्रतिमा इतने अधर थी कि उसके नीचेसे शिरपर घड़ा रक्खे हुए स्त्री निकल जाती थी, परन्तु कालवश अथवा भूमिरचनावश या मिथ्या. स्वादिसे दूषित काल के प्रभावसे अब वह प्रतिमा इतने नीचे होगई कि एक चादर (धागा ?)का अन्तर रह गया है। इस प्रतिमाके अभिषेक . जलसे दाद, खाज, कोढ़ आदि रोग शान्न होते हैं।" लगभग यही कथा मुनि श्रीशील विजयजीने अपनी तीर्थमाला में दी है और श्रीपुरके पार्श्वनाथका लोकविश्रुत प्रभाव प्रदर्शित किया है। मुनिजीने विक्रम सं. १७३१-३२ में दक्षिण के प्रायः समस्त तीर्थीकी वन्दना की थी और उसका उक्त पुस्तकमे अपना अनुभूत वर्णन निबद्ध किया है। यद्यपि उक्त कथाओं का ऐतिहासिक आधार तथ्यभूत है अथवा नहीं इसका निर्णय करना कठिन है फिर भी इतना अवश्य है कि उक्त कथाएँ एक अनुश्रुति हैं और काफी पुरानी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उक्त प्रतिमाके अभिषेकजलको शरीरमें लगानेसे दाद, खाज और कोढ़ जैसे रोग अवश्य नष्ट होते होंगे और इसी कारण उक्त प्रतिमाका अतिशय लोकमें दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया होगा । विक्रमकी नवमी शताब्दीके प्रखर तार्किक आचार्य विद्यानन्द जैसे १ देखो, 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २२७ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] ५कोणक-पुस्तकमाला Beeeeeeeeeeeeeeeee विद्वामाचार्य भी श्रीपुरके पार्श्वनाथकी महिमासे प्रभावित हुए हैं और उनका स्तवन करने में प्रवृत्त हुए हैं । अर्थात् श्रीपुरके पार्श्वनाथको लक्ष्यकर उन्होंने भक्तिपूर्ण 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र'की रचना की है । गङ्गनरेश श्रीपुरुषके द्वारा श्रीपुरके जैनमन्दिरके लिये दान दिये जानेका उल्लेख करनेवाला ई. सन ७७६ का एक ताम्रपत्र भी मिला है | इन सब बातोंसे श्रीपुरके पार्श्वनाथका ऐतिहासिक महत्व और प्रभाव स्पष्टतया जान पड़ता है। अब विचारणीय यह है कि यह श्रीपुर कहाँ है-उसका अवस्थान किस प्रान्तमें है ? मीजीका अनुमान है कि धारवाड़ जिलेका जो शिरूर गाँव है और जहाँसे शक सं. ७ का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है तथा जो पाण्डयन ए. भाग १२ पृ. २१६में प्रकाशित हो चुका है वहीं प्रस्तुत श्रीपुर है । कुछ पाश्चात्य विद्वान् लेखोंने बेसिक जिलेके 'सिरपुर' स्थानको एक प्रसिद्ध जैनतीर्थ बतलाया है और वहाँ प्राचीन पार्श्वनाथका मन्दिर होनेकी सूचनाएँ की हैं। गङ्गनरेश श्रीपुरुष (ई.७७६) और प्राचार्य विद्यानन्द ई. ७७४-८४०)को इष्ट श्रीपुर ही प्रस्तुत श्रीपुर जान पड़ता है और जो मैसूर प्रान्तमें कहीं होना चाहिए, ऐसा भी हमारा अनुमान है। विद्वानोंको उसकी पूरी खोज करके उसकी ठीक स्थितिपर पूरा प्रकाश डालना चाहिये। १ देखो, जैनसि० भा० भा० ४ किरण ३ पृ० १५८ । २ देस्रो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ. २३७ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन चतुखिं शिका हुलगिरि - शङ्खजिन श्रीपुरके पार्श्वनाथ की तरह हुलगिरिके शङ्खजिनका भी अतिशय जैनसाहित्य प्रदर्शित किया गया है। [ ४३ S इस तीर्थ सम्बन्धमें जो परिचय - पन्थ उपलब्ध हैं उनमें मदनकीर्तिकी प्रस्तुत शासनचतुस्त्रिंशिका सबसे प्राचीन और प्रथम रचना है । इसमें लिखा है कि- "प्राचीन समयमें एक धर्मात्मा व्यापारी ire in rear कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे हुलगिरिपर रात हो गई । वह वहीं बस गया। सुबह उठकर जब चलने लगा तो उसकी वह शो गोन अचल हो गई- चल नहीं सकी। जब उसमेंसे शङ्खजिन (पार्श्वनाथ का आविर्भाव हुआ तो वह चल सकी। इस अतिशयके कारण हुलगिरि शङ्खजिनेन्द्रका तीर्थ माना जाने लगा । अर्थात् तबसे शङ्खजिन तीर्थ प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ।" मदनकीर्तिसे एक शताब्दी बाद होनेवाले जिन प्रसूरि अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'शङ्खपुर-पार्श्वनाथ' नामक कल्प शङ्खजिनका परिचय देते हुए लिखते हैं कि "प्राचीन समयकी बात है कि नवमे प्रतिनारायण जरासन्ध अपनी सेनाको लेकर राजगृहसे नवमे नारायण कृष्ण से युद्ध करनेके लिये पश्चिम दिशा की ओर गये । कृष्ण भी अपनी सेना लेकर द्वारकासे निकलकर उसके सम्मुख अपने देश की सीमापर जा पहुँचे । वहाँ भगवान अरिष्टनेमिने शक बजाया और शंखेश्वर नामका नगर बसाया । शङ्खकी आवाजको सुनकर जरासन्ध क्षोभित हो गया और जरा नामकी कुलदेवता की आराधना करके उसे कृष्णकी सेनामें भेज दिया । जराने कृष्णकी सारी सेनाको श्वास रोगले पीडित कर दिया | जब कृष्णुने अपनी सेना का यह हाल देखा तो चिन्तातुर Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] ১০০ee होकर अरिष्टनेमिसे पूछा कि 'भगवन् ! मेरी यह सेना कैसे निरुपद्रव (रोगरहित) होगी और कैसे विजयश्री प्राप्त होगी। तब भगवान्ने अवधिज्ञानसे जानकर कहा कि 'भूगर्भ में नागजातिके देवद्वारा पूजित भाविजिन पार्श्वकी प्रतिमा स्थित है। यदि तुम उसकी पूजा-आराधना करो तो उससे तुम्हारी सारी सेना निरुपद्रव हो जायगी और विजयश्री भी मिलेगी ।" इस बातको सुनकर कृष्णने सात मास और तीन दिन तफ निराहार विधि नागेन्द्रकी उपासना की । नागेन्द्र प्रकट हुआ और उससे सबहुमान पार्श्वजिनेन्द्रकी प्रतिमा प्राप्त की। बड़े उत्सबके साथ उसकी अपने देवताके स्थान में स्थापनाकर त्रिकाल पूजा की उसके अभिषेकको सेनापर छिड़कते ही उसका यह सब श्वासरोगादि उपद्रव दूर होगया और सेना लड़नेके समर्थ हो गई । जरासन्ध और कृष्ण दोनोंका युद्ध हुआ, युद्धमें जरासन्ध हार गया और कृष्णको विजयश्री प्राप्त हुई । इसके बाद वह प्रतिमा समस्त faalat नाश करने और ऋद्धि-सिद्धियोंको पैदा करनेवाली हो गई। और उसे वहीं शङ्खपुर में स्थापित कर दिया । कालान्तर में वह प्रतिमा अन्तर्धान हो गई। फिर वह एक शङ्खकूपमें प्रकट हुई । वहाँ वह आज तक पूजी जाती है और लोगोंके विभादिको दूर करती है। यवन राजा भी उसकी महिमा (अतिशय ) का वर्णन करते हैं ।" मुनि शीलविजयजी ने भी तीर्थमाला में एक कथा दी है जिसका आशय यह है कि 'किसी यक्षने भावकोंसे कहा कि नौ दिन तक एक शखको फूलोंमें रक्खो और फिर दसवें दिन दर्शन करो। इसपर श्रावकोंने नो दिन ऐसा ही किया और नवें दिन ही उसे देख लिया और प्रकीर्णक पुस्तकमाला ०००००००० १ देखो, 'विविधतीर्थकल्प' पृ० ५२ । २ प्रेमीजी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास' (४० २३७ ) से उद्धृत | Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुस्थिशिका eeeeeeeeeeee990 उन्होंने शलको प्रतिमारूपमें परिवर्तित पाया, परन्तु प्रतिमाके पैर शहरूप ही रह गये, अर्थात यह दश दिनकी निशानी रह गई। शङ्खमेसे नेमिनाथ प्रभु प्रकट हुए और इस प्रकार वे 'शहपरमेश्वर' कहलाये ।' निर्वाणकाराख और अपभ्र शनिर्वाणभक्ति के रचयिताओंने भी होलागिरिक शङ्खदेवका उल्लेख करके उनकी वन्दना की है । यथा (क) ... वंदमि होलागिरी संखदेव पि ।—नि० का० २४ । (ख) 'होलागिरि संखुजिणेंदु देउ, विझणाणरिदु ण वि लद्ध छेउ ।'-१०नि० भ० । यद्यपि अय-शनिर्वाणभक्तिकारने विमण (विन्ध्य १) नरेन्द्रले द्वारा उनकी महिमाका पार न पा सकनेका भी उल्लेख किया है पर उससे विशेष परिचय नहीं मिलता। ऊपर के परिचयोंमें भी प्रायः कुछ विभिलता है फिर भी इन सब उल्लेखों और परिचयों इतना स्पष्ट है कि शङ्ख जिमतीर्थ रहा है और जो काफी प्रसिद्ध रहा है तथा जिनप्रभमूरिके उल्लेखानुसार वह यक्न राजाओं द्वारा प्रशंसित और परिणत भी रहा है। श्रीमानुकीर्तिने शहदेवाएक', श्रीजयन्तविजयने शंखेश्वर महातीर्थ और श्रीमणिलाल लालचन्दने शंखेश्वरपार्श्वनाथ' जैसी स्वतन्त्र रचनाएँ भी शाजिनपर लिखी हैं । १ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसंग्राम सङ्कलित । २ विजयधर्मसूरि-ग्रन्थमाला, उज्जैनसे प्रकाशित । ३. सस्तीवाचनमाला अहमदाबादसे मुद्रित | Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला eeeeeeeeeeeeeeeeeee शङ्खजिनतीर्थकी अवस्थितिपर विचार करते हुए प्रेमीजीने लिखा'-- 'अतिशय क्षेत्रकाण्ड में "होलगिरि संखदेवं पि पाठ है जिससे मालूम होता है कि होलगिरि नामक पर्वतपर शहदेच या शंखेश्वर पार्श्वनाथ नामका कोई तीर्थ है। मालूम नहीं, इस समय नशान है या नहीं।... जैनसाहित्य और इतिहासको प्रस्तुत करते हुए अब उन्होंने उसमें लिखा है---- 'लक्ष्मेश्वर धारवाड़ जिलेमें मिरजके पटवर्धनकी जागीरका एक गाँव है। इसका प्राचीन नाम 'पुलगेरे' है । यहाँ 'शब-वस्ति' नामका एक विशाल जैनमन्दिर है जिसकी छत ३६ खम्भोंपर थमी हुई है । यात्री (मुनि शीलविजय ने इसीको 'श-परमेश्वर' कहा जान पड़ता है । इस शल-बस्तिमें बह शिलालेख प्राप्त हुए हैं। शक संवत् ६५६के लेखके अनुसार चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (द्वितीय)ने पुलगेरेकी शंखतीर्थवस्तीका जीर्णोद्धार कराया और जिनपूजाके लिये भूमि दान की। इससे मालूम होता है कि उक्त पस्ति इससे भी प्राचीन है। हमारा (प्रेमीजीका / अनुमान है कि अतिशयक्षेत्रकाण्डमें कहे गये शंखदेवका स्थान यही है । जान पड़ता है कि लेखकोंकी अज्ञानतासे 'पुलगेरे' ही किसी तरह 'होलगिरि' हो गया है। १ देखो, सिद्धान्तसारादिसंग्रहकी प्रस्तावना पृ. २८का फुटनोट | २ देखो, 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २३६-२३७का फुटनोट । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्विंशिका 9000009800090909 मुगि सोलविजयजी पक्षियक तीक्षेत्रीको बदल भन्दा की थी और जिसका वर्णन उन्होंने तीर्थमाला में किया है । वे धारवाड़ जिलेके बकापुर को, जिसे राष्ट्रकूट महाराज अमोघवर्ष (८५१-६९)के सामन्त 'पंकेयेरस ने अपने नामसे बसाया था', देखते हुए इसी जिलेके लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ पहुँचे थे और वहाँ के 'शंखपरमेश्वर' की बन्दना की थी, जिनके बारे में उन्होंने पूोल्लिखित एक अनुश्र ति दी है। प्रेमीजीने इनके द्वारा वर्णित उक्त 'लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ पर टिप्पणा देते हुए ही अपना उक्त विचार उपस्थित किया है और पुरलगेरेको शंखदेवका तीर्थ अनुमानित किया है तथा होलगिरिको पुलगेरेका लेखकों द्वारा किया गया प्रान्त उल्लेख बतलाया है। पुलगरेका होलगिरि या हुलगिरि अथवा होलागिरि हो जाना कोई असम्भव नहीं है। देशभेद और कालभेद तथा अपरिचितिके कारण उक्त प्रकारके प्रयोग बहुधा हो जाते हैं । मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा जहाँ प्रकट हुई उस स्थानका तीन लेखकोंने तीन तरहसे उल्लेख किया है । निर्वाणकाण्डकार 'अस्सारमे पट्टरिण' कहकर 'आशारम्य' नामक नगरमें उसका प्रकट होना बतलाते हैं और अपभ्रशनिर्वाणभक्तिकार मुनि उदयकीतिं 'आसरमि' लिखकर 'आश्रम में उसका आविर्भाव कहते हैं। मदनकीर्ति उसे 'श्राश्रम' और अवरोधनगर वर्णित करते हैं और जिनप्रभमूरि आदि विद्वान् प्रतिष्ठानपुर मानते है । अतएव देशादि भेदसे यदि पुलगेरेका हुलगिरि या होलागिरि श्रादि बन गया हो तो आश्चर्यकी बात नहीं है । अतः जब तक कोई दूसरे स्पष्ट प्रमाण हुलगिरि या होलागिरिके अस्तित्व साधक नहीं मिलते तब तक प्रेमीजीके उक्त विचार और अनुमानको ही मान्य करना उचित जान पड़ता है। १ देखो, प्रेमीजी कृत 'जैनसाहित्य और इतिहास' पृ. २३६का फुटनोट । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. प्रकीर्णक पुस्तकमाला ०००eesceepeeeeeee धारा-पार्श्वनाथ धाराके पावनाथके सम्बन्धमें मदनकौतिके प्रस्तुत उल्लेखके सिवाय और कोई परिचायक उल्लेख अभी तक नहीं मिले और इस लिये उसके बारे में इस समय विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। बार-बहरे व मदनीतिनै बृहत्पुर में बृहद्दपकी ५७ हाथको विशाल प्रस्तर मूर्तिका उल्लेख किया है जिसे अर्ककीति नामके राजाने बनवाया था। जान पड़ता है यह 'यहरपुर बड़वानीजी है जो उसीका अपभ्रंश (बिगड़ा हुआ) प्रयोग है और 'बृहद्दव' वहाँ के मूलनायक आदिनाथका सूचक है । बड़वानीमें श्रीआदिनाथकी ५७ हाथ की विशाल प्रस्तर मूर्ति प्रसिद्ध है और जो बावनगजाके नामसे विख्यात है। बृहद्दव पुरुदेवका पर्यायवाची है और पुरुदेव आदिनाथका नामान्तर है | भताएष बृहत्पुरके बृहद वसे मदनकोतिको बड़वानीके श्रीआदिनाथके अतिशयका वर्णन करना विवक्षित मालम होता है । इस तीर्थके बारे में संक्षिाम परिचय देते श्रीयुत पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने अपनी 'जैनधर्म' नामक पुस्तकके तीर्थक्षेत्र प्रकरण (पृ. ३३५ )में लिखा है: बड़वानीसे ५ मील पहाइपर जानेसे बड़वानी क्षेत्र मिलता है। ..""क्षेत्रफी वन्दनाको जाते हुए सबसे पहले एक विशालकाय मूर्ति के दर्शन होते हैं । यह खड़ी हुई मूर्ति भगवान ऋषभदेवकी है, इसकी ऊँचाई ८४ फीट है । इसे बावनगजाजी भी कहते हैं । सं. १२२३में इसके जीर्णोद्धार होनेका उल्लेख मिलता है । पहाइयर २२ मन्दिर हैं । प्रतिवर्ष पौष सुदी से १५ तक मेला होता है।' Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन - चतुस्त्रिंशिका ७७७० 666666 बड़वानी मालवा प्रान्तका एक प्राचीन प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है और जो इन्दौर के पास है। निर्वाणकाण्ड' और अपभ्रंश निर्वाणभक्ति के रचयिताओंने भी इस तीर्थका उल्लेख किया है । जैनपुर के दक्षिण गोम्मटदेव 'जैनपुर' जैनविद्री व श्रवणबेलगोलाका प्राचीन नाम है । नरेश रायमल्ल (ई. ९७४-६८४) के सेनापति और मन्त्री चामुण्ड रायने वहाँ बहुचरित स्वामीकी ५० फीट ऊँची खड्गासन विशाल पाषाणमूर्ति बनवाई थी। यह मूर्ति एक हजार वर्षसे जाड़े, गर्मी और बर्षातकी चोटोंको सहती हुई उसी तरह आज भी वहाँ विद्यमान है र संसारकी प्रसिद्ध वस्तुओं से एक है। इस मूर्तिकी प्रशंसा करते कालेलकर अपने एक लेखमें लिखा है : हुए [ ४६ 'मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजुक और कान्तिमान है। एक ही पत्थरसे निर्मित इतनी सुन्दर मूर्ति संसारमें और कहीं नहीं। इतनी बड़ी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि मक्लि साथ कुछ प्रेमी भी यह अधिकारिणी बनती है । धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछे की ओर ऊपरकी पपड़ी खिर पड़नेपर भी इस मुर्तिका लावण्य खडित नहीं हुआ है।' डाक्टर हीरालाल जैन लिखते हैं-'यह नम, उत्तर- मुख खड्गासन मूत्तिं समस्त संसारकी अधर्यकारी वस्तुसे है । १ देखो गाथा नं १२ । २ देखो गाथा नं. ११ । ३ जैनधर्म पृ० ३४२से उद्धृत | ४ शिलालेख संग्रह प्रस्तावना पृ० १७-१८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ००००००००००००० एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतलका विचरण कर आइये, गोम्मटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको कचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बड़े-बड़े पश्चिमीय विद्वानोंके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चकर खा गये हैं। इतने भारी और प्रबल पाषाणपर सिद्धहस्त कारीगरने जिस कोशसे अपनी छैनी चलाई है उससे भारतके मूर्त्तिकारों का मस्तक सदैव गर्वसे ऊँचा उठा रहेगा। यह सम्भव नहीं जान पड़ता कि ५७ फुटकी मूर्ति खोद निकालनेके योग्य पापा कहीं अन्यत्रसे लाकर इस ऊंची पहाड़ी पर प्रतिष्ठित किया का होगा | इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थानपर किसी प्रकृतिदत्त स्तम्भकार चट्टानको काटकर इस मूर्त्तिका आविष्कार किया गया है । कम-से-कम एक हजार वर्ष से यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोंसे कर रही है पर अब तक उसमें किसी प्रकारकी थोड़ी भी क्षति नहीं हुई । मानो मूर्तिकार ने उसे आज ही उद्घाटित की हो ।' इस मूर्तिके बारेमें मदनकीर्तिने लिखा है कि 'पाँचसी आदमियोंके द्वारा इस विशाल मूर्तिका निर्माण हुआ था और आज भी देवगण उसकी सविशेष पूजा करते हैं । प्राकृत निर्धाकाण्ड' और अपभ्रंश निर्वाणभक्ति में भी देवोंद्वारा उसकी पूजा होने तथा पुष्पवृष्टि ( केशर की वर्षा) करनेका उल्लेख है । इन सब वर्णनोंसे जैनपुरके १ गोम्मटदेवं वंदमि पंचसयं धरगुह देह उच्चत्तं । देवा कुणति बुड़ी केसर - कुसुमाय तस्त उवरिम्मि ||२५|| २ मंदिर गोम्मट देऊ तित्धु, जसु अणु-दिणु पवई सुरहं सत्थु । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्देिशिका eeeeeeeeeeeeeeeeee दक्षिण गोम्मटदेवकी महिमा और प्रभावका अच्छा परिचय मिलता है । विश्वसेन नृपद्वारा निष्कासित शान्तिजिन मदनीति और उदयकीतिके उल्लेखोंसे मालूम होता है कि विश्वसेन नामके किसी राजा द्वारा समुद्र से श्रीशान्ति जिनेश्वरकी प्रतिमा निकाली गई थी, जिसका यह अतिशय था कि उसके प्रभाव से लोगोंके क्षुद्र उपद्रव दूर होते थे और लोगोंको बड़ा सुख मिलता था। अद्यपि मदन कार्तिक उल्लेखसे यह ज्ञात नहीं होता कि शान्तिजिनेश्वरकी उक्त प्रतिमा कहाँ प्रकट हुई ? पर उदयकीतिक निर्देशसे' विदित होता है कि यह प्रतिमा मालपती में प्रकट हुई थी । मालवी सम्भवतः मालवाका ही नाम है । अस्तु । पुष्पपुर-पुष्पदन्त पुष्पपुर पटना विहार) का प्राचीन नाम है । संस्कृत साहित्यमें पटनाको पाटलिपुत्रके सिवाय कुसुमपुरके नामसे भी उल्लेखित किया गया है । अतएव पुष्पपुर पटनाका ही नामान्तर जान पड़ता है। मदनीतिके उल्लेखानुसार वहाँ श्रीपुष्पदन्त प्रभुकी सातिशय प्रतिमा भूगर्भसे निकली थी जिसकी व्यन्तरदेवों द्वारा बड़ी भक्तिसे पूजा की जाती थी। मदनकीर्तिके इस सामान्य परिचयोल्लेसके अलावा पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्तप्रभुके बारेमें अभीतक और कोई उल्लेख या परिचयादि प्राप्त नहीं हुआ। १ मालव संति वंदउ पवित्त, विससेणराय कहिन निरुत्त ।। २ देखो, 'विविधतीर्थकल्प' गत 'पाटलिपुत्रनगरकल्प' पृ० ६८ | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला అంంంంంంంంంంంంం नागद्रह-नागहृदेश्वर विविधतीर्थकल्पमें चौरासी तीर्थों के नामों को गिनाते हुए उसके कर्ता जिनप्रभसूरिने नागद्रह अथवा नागदमें श्रीनागहदेश्वर (पार्श्वनाथ) तीर्थका निर्देश किया है। । प्राक्कनिर्वाणाकाण्डकार तथा उदयकीर्तिने भी नागदहमें श्रीपार्श्वस्वयम्भुदेवकी वन्दना की है। इस तीर्थक उप. लब्ध उल्लेखोंमें मदनकीर्तिका उल्लेख प्राचीन है और कुछ सामान्य परिचयको भी लिये हुए है । इस परिचयमें उन्होंने लिखा है कि श्रीनागहदेश्वर जिन कोढ़ आदि अनेक प्रकार के रोगों तथा अनिष्टोको दूर करनेसे लोगोंके विशेष उपास्य थे और उनका यह अतिशय लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त था। इससे प्रकट है कि यह तीर्थ आजसे आठ सौ वर्ष पहलेका है । 'नागद्रह' नागदाका प्राचीन नाम मालूम होता है । जो हो। पश्चिमसमुद्रतटस्थ चन्द्रप्रभ __मदनकीर्तिने पश्चिम समुद्रतटके जिन चन्द्रप्रभ प्रभुका अतिशय एवं प्रभाव वर्णित किया है उनका स्थान कहाँ है ? उदयकीर्तिने उन्हें पश्चिम समुद्रपर स्थित तिलकापुरीमें बतलाया है । यह तिलकापुरी सम्भवतः सिन्ध और कच्छके आस-पास कहीं रही होगी । अपने समयमें यह तीर्थ काफी प्रसिद्ध रहा प्रतीत होता है। १ 'कलिकुपडे नागदे च श्रीपार्श्वनायः ।-विविधतीर्थकल्प पृ० ८६ । २ देखो, प्रा. नि. का. गाथा २० । ३ 'मायद्ह पासु सयंभुदेउ, हउं बंदउँ जसु गुण गास्थि छेव ।' ४ 'पच्छिमसमुहससि संख-श्यगु, तिलयापुरि चंदप्पहरषरगु ।' Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन चतुस्लिंशिका [५३ అం9699999009800 छाया-पाव प्रभु इस तीर्थका मुनि मदनकीति, जिनप्रभमूरि और मानवसंहिताकार शान्तिविजय इन तीन विद्वानोंने उल्लेख किया है। मदनकीर्तिने उसे सिद्धशिलापर और जिनप्रभसूरि' तथा शान्तिविजयने माहेन्द्रपर्वत और हिमालय पर्वतपर बतलाया है। आश्चर्य नहीं मदनकीर्तिको सिद्धशिलासे माहेन्द्रपर्वत अथवा हिमालय ही विवक्षित हो । यदि ऐसा हो तो कहना होगा कि माहेन्द्रपर्वत अथवा हिमालयपर कहीं यह तीर्थ रहा है और वह छायापार्श्वनाथतीर्थके नामसे प्रसिद्ध था । मालूम नहीं, अब उसका कोई अस्तित्व है अथवा नहीं ? अवरोधनगर-मुनिसुव्रतजिन मुनि मदनकीर्तिके लेसानुसार अवरोधनगरमें, प्राकृतनिर्वाणकाण्डकारके' कथनानुसार प्रशारम्यनगरमें, मुनि उदयकीर्तिके' उल्लेखानुसार आश्रममें और जिनप्रभसूरि', मुनि शीलविजय तथा शान्तिविजयके वर्णनानुसार प्रतिष्ठानपुर में गोदावरी (वाररागमा के १ 'माहेन्द्रपर्वते छायापाखनाया 1हिमाचले छायापान मन्त्राधिराब: श्रीस्फुलिंगः।'- विविधतीर्थकल्प पृ०६ । २ 'माहेन्द्रपर्वतमें लायात्रार्थनाथका तीर्थ है। हिमालय पर्वतमें छाया पार्श्वनाथ मन्त्राधिराज और स्फुलिग पार्श्वनाथका तीर्थ है। मानव धर्मसंहिता पृ० ५६६-६०० (वि० सं० १६५५ में प्रकाशित संस्करण) । ३ देखो, प्रा- नि० का० गाथा २०। ४ देग्यो, अपभ्रशनिर्वाण भक्ति गा. ६ । ५ देखो, विविधतीर्थकल्प पृ. ५E | ६ तीर्थमाला । ७ मानवधर्मसंहिता पृ. ५६६ | ८ प्रेमीजीने लिखा है कि इसका वर्तमान नाम पैठण है जो हैदराबादक आमाबाद जिलेकी एक तहसील है (बैन सा० ओर इति० पृ. २३८का फुटनोट)। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धकोणक-पुस्तकमाला అ eeeeee00000eeee किनारे एक शिलापर प्राचीन समयमें श्रीमुनिसुव्रतस्वामीकी प्रतिमा प्रकट हुई जिसका अतिशय लोकमें खूब फैला और तबसे यह तीर्थ प्रसिद्धिमें आया । उक्त विद्वानोंके लेखों और वर्णनोंसे स्पष्ट है कि विक्रमकी १३वी, १४वीं शताब्दीमें यह एक बड़ा तीर्थ माना जाता था | और वि. की १८वीं शताब्दी तक प्रसिद्ध रहा तथा यात्री उसकी बन्दनाके लिये जाते रहे हैं। मेवाड़देशस्थ नागफणी-मल्लिजिनेश्वर मदनकातिके उल्लेखसे मालूम होता है कि मेवाड़के नागफणी गाँवमे खेतको जोतते हुए एक आदमीको शिला मिली । उस शिलापर श्रीमल्लिजिनेश्वरकी प्रतिमा प्रकट हुई और वहाँ जिनमन्दिर बनाया गया । जान पड़ता है कि उसी समयसे यह स्थान एक पवित्र क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्धि में पाया और तीर्थ माना जाने लगा। यद्यपि यह तीर्थ कबसे प्रारम्म हुआ, यह बतलाना कठिन है फिर भी यह कहा जा सकता है कि वह सातसौ-साढ़े सातसौ वर्ष प्राचीन तो अवश्य है। अब मालग नहीं वह वर्तमानमें मौजूद है या नहीं ? मालबदेशस्थ मङ्गलपुर-अभिनन्दनजिन ___ मालाके मङ्गलपुरके श्रीअभिनन्दनजिनके जिस अतिशय और प्रभावका उल्लेख मदनकीर्तिने किया है उसका जिनाममूरिने भी अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'अवन्ति देशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्प नामके कल्प (पृ. ५७)में निर्देश किया है और साथमें एक कथा भी दी है । उस कथाका सार यह है कि म्लेच्छोंने अभिनन्दनदेवकी मूर्तिको तोड़ दिया लेकिन यह जुड़ गई और एक बड़ा अतिशय Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-चतुर्विंशिकागत विशेषनामसूची [५५ అe00000000 प्रगट हुआ। सम्भवतः इसी अतिशयके कारण प्राकृतनिर्वाणकाण्ड' और अपभ्रश निर्वाणभक्ति में उसकी वन्दना की गई है। अतएव इन सब उल्लेखादिकोसे ज्ञात होता है कि मालवाके मालपुरके अभिनन्दनदेवकी महिमा लोकविश्रत रही हैं और वह एक पवित्र अतिशयतीर्थ रहा है । यह तीर्थ भी पाठ-सौ वर्ष से कम प्राचीन नहीं है। इस तरह इस संक्षिप्त स्थानपर हमने कुछ ज्ञात अतिशय तीर्थों और सातिशय जिनविम्झेका कुछ परिचय देनेका प्रयत्न किया है । जिन अतिशय तीर्थों अथवा सातिशय जिनविम्बौका हमें परिचय मालूम नहीं हो सका उन्हें यहाँ छोड़ दिया गया है। आशा है पुरातत्व प्रेमी उनकी खोज कर यथास्थानादिका परिचय देंगे। अज शासन-चतुस्त्रिंशिकागत विशेषनामसूची - चाक अभिनन्दनजिन २४ छायापार्श्वविभु १२ अर्ककीर्तिनपति ५ जैनपुर अवरोधनगर २० दक्षिगोम्मट आदिजिनेश्वर १३ दिगम्बर कपिल ८ देवेन्द्र कैलास २ देवेश्वर गिरिवर (गिरनार) १४ धारा चन्द्रप्रम १२ नर्मदा चम्पा १५ नागफली १ पास सइ अहिणंदण णायद्दहि मंगलाउरे बंदे।'-गाथा २० । २ मंगलबुरि वंदनं जगफ्यासु, अहिणंदणु जिणु गुणगणरिणवासु ।' Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारर्णक-पुस्तक्रमाला नागहदेश्वर, परमेश्वर पावापुर पोदनपुर बाहुबलि 16 बौद्ध वृहदेव वृहत्पुर मदनकीर्ति मंगलपुर मालवदेश माहेश्वर मुनिसुव्रत मदपाट यति यदुवंश योगी योग वीरजिन वेदान्तिक वशेषिक वैष्णव विन्थ्यगिरि विपुल(गिरि) 10 व्यन्तर 8,15 वृद्धमहार्जिका 13 शंखजिन 2 शूली 2 श्रीदेवी 86 श्रीनेमिनाथ 8,682. श्रीपार्श्व 5 श्रीपुर 5 श्रीमुष्पदन्त 35 श्रीपुष्पपुर 24 श्रीपूज्य 24 श्रीमती 6 श्रीमनिलिनेश्वर 20 श्रीवासुपूज्य 24 श्रीविश्वलेन 5 श्रीशान्ति 14 सत्रवती 8 सम्मेदपृथ्वीलहि 8.16 सम्मेदामृतवापिका 13 सांख्य 11 सौधर्माधिपति 15 मौराष्ट्र 6 स्मात 23 हरि 22 हुलगिरि 5,20 8,17