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शासन-चतुस्लिशिका Geeeeeeeeeeeeeeeeees
(क) विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीपके घ ॥
ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाताः ' स्थानानि तानि अगति प्रथितान्यभूषन् ॥३०॥
'नियोगकाण्ड' और मुनि उदयकीतिकात 'अपभ्रशानिर्वाणभक्ति में भी पोदनपुरके बाहुबली स्वामीकी अतिशय श्रद्धाके साथ बन्दना की गई है। यथा(ख) बाहूलि सह बदमि पोदनपुर हत्थिनापुरे वंदे ।
संती कुथुध अरिहो वाराणसीए सुपास पासच | गा. नं. २१ (ग) बाहुबलिदेड पोयणपुरंमि. इंउं बंदमि मासु जम्मि जम्मि !
ऐसा जान पड़ता है कि कितने ही समयके बाद बाहुबलिस्वामी की उक्त मूर्ति के जीर्ण होजानेपर उसका उद्धारकार्य और उस जैसी उनकी नयी मूर्तियाँ वहाँ और भी प्रतिष्ठित होती रही हैं। मदनकीर्तिके समयमें भी पौदनपुरमें उनकी अतिशयपूर्ण विशाल मूर्ति विद्यमान श्री, जिसकी सूचना उन्होंने 'अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो पत्रवन्धः स बैं' शब्दोंद्वारा की है और जिसका यह अतिशय था कि भन्योको उनके चरणनखोकी कान्तिमें अपने कितने ही आगे-पीछेके भव प्रतिभासित होते थे। परन्तु मदनकीर्तिके प्रायः समकालीन अथवा कुछ पूर्ववती कबडकवि पं.कोप्पणद्वारा लिखित एक शिलालेख नं. ८५ (३४)में, जो ३२ पद्यात्मक कनड रचना है और जो विक्रम संवत १२३७ (शक सं. ११०२)के लगभगका उत्कीर्ण है, यामुण्डरायद्वारा निर्मित दक्षिण गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके निर्माणका इतिहास देते हुए बतलाया