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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
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राजशेखरसूरिने अपने उक्त प्रबन्धकोश (पुत्र ६४ ) में किया है और उनके सम्बन्धका एक स्वतन्त्र मदनकीर्तिप्रबन्ध' नामका प्रबन्ध भी लिखा है, प्रस्तुत शासनचतुस्त्रिंशिका, इन चारों रचनायों से सौ-पचास वर्ष पहले (विक्रम संवत् १२८५ के लगभग ) की रची हुई है। अतः यह रचना जैन तीर्थों के इतिहासके परिचयमें खास तौर से उल्लेखनीय है ।
इसमें कुल ३६ पद्य हैं जो अनुष्टुप् छन्दमें प्रायः ८४ जितने हैं। इनमें नंबरहीन पहला पथ अगले २२ पक्षोंके प्रथमाक्षरी से रचा गया है और जो अनुष्टुप - वृत्त में है । अन्तिम ( ३५षाँ) पद्य प्रशस्ति-पद्य है जिसमें रचयिताने अपने नामोल्लेखके साथ अपनी कुछ आत्मचर्या दी है और जो मालिनी छन्दमें हैं। शेष ३४ पद्य ग्रन्थ विषय से सम्बद्ध हैं, जिनकी रचना शार्दूलविक्रीडित वृत्तमें हुई है। इन चौतीस पयोंमें दिगम्बरशासन के प्रभाव और विजयका प्रतिपादन होनेसे यह रचना 'शासनचतुस्त्रिशि (शनि) का ' अथवा 'शासनचतीसी' जैसे नामोंसे जैन साहित्य में प्रसिद्ध है ।
इसमें विभिन्न तीर्थस्थानों और वहाँ के दिगम्बर जिनबिम्बोंके अतिशयों, माहात्म्यों और प्रभावोंके प्रदर्शनद्वारा यह बतलाया गया है कि दिगम्बरशासन अपनी अहिंसा, अपरिग्रह ( निर्मन्यता), स्याद्वाद आदि विशेषताओंके कारण सब प्रकारसे जयकारकी क्षमता रखता है और उसके लोक में बड़े ही प्रभाव तथा अतिशय रहे हैं । कैलासका ऋषभदेवका जिनबिम्ब, पोदनपुर के बाहुबलि, श्रीपुर के पार्श्वमाथ, हुलगिरि अथवा होलागिरिके शजिन, धाराके पार्श्वनाथ, बृहत्पुरके वृहदेव, जैनपुर