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प्रस्तावना
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स्थानादि-विचार
समयका विचार करनेके बाद अब मदनकीति के स्थान, गुरुपरम्परा, योग्यता और प्रभावादिपर भी कुछ विचार कर लेना चाहिए । मदनकीर्ति बादीन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य थे और वादीन्द्र विशालकीर्तिने पं० आशाधरजीसे न्यायशास्त्रका अभ्यास किया था। पं० आशाधरजीने धारा में रहते हुए ही उन्हें न्यायशास्त्र पढ़ाया था और इसलिये उक्त दोनों विद्वान् (विशालकीर्ति तथा मदनकीति) भी धारामें ही रहते थे। राजशेखरसूरिन भी उन्हें उज्जयिनीके रहने वाले बतलाया है। अतः मदनकीर्तिका मुख्यतः स्थान उज्जयिनी (धारा) है । ये वाद-विद्यामें बड़े निपुण थे। चतुर्दिशाओंके वादियोंको जीत कर उन्होंने 'महाप्रामाणिकचूडामणि'की महनीय पदवी प्राप्त की थी। ये उच्च सथा आशु कवि भी थे। कविता करनेका इन्हें इतना उत्तम अभ्यास था कि एक दिनमें ५०० श्लोक रच डालते थे। विजयपुरके नरेश कुन्तिभोजको इन्होंने अपनी काव्यप्रतिभासे श्राश्वर्यान्वित किया था और इससे वह बड़ा प्रभावित हुआ था। पण्डित आशाधरजीने इन्हें 'यतिपति' जैसे विशेषणके साथ उल्लेखित किया है। इन सघ यातोंसे इनकी योग्यता और प्रभाक्का अच्छा आभास मिलता है।
पण्डित आश
इन सथ यातोरस विशेषण
संभव है राजाकी विदुषी पुत्री और इनका आपसमें अनुराग हो गया हो और ये अपने पदसे च्युत हो गये हों; पर वे पीछे सम्हल गये थे और अपने ऋत्यपर घृणा भी करने लगे थे। इस बातका कुछ स्पष्ट आभास उनकी इसी शासनचतुर्विंशतिकाके