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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
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एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतलका विचरण कर आइये, गोम्मटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको कचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बड़े-बड़े पश्चिमीय विद्वानोंके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चकर खा गये हैं। इतने भारी और प्रबल पाषाणपर सिद्धहस्त कारीगरने जिस कोशसे अपनी छैनी चलाई है उससे भारतके मूर्त्तिकारों का मस्तक सदैव गर्वसे ऊँचा उठा रहेगा। यह सम्भव नहीं जान पड़ता कि ५७ फुटकी मूर्ति खोद निकालनेके योग्य पापा कहीं अन्यत्रसे लाकर इस ऊंची पहाड़ी पर प्रतिष्ठित किया का होगा | इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थानपर किसी प्रकृतिदत्त स्तम्भकार चट्टानको काटकर इस मूर्त्तिका आविष्कार किया गया है । कम-से-कम एक हजार वर्ष से यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोंसे कर रही है पर अब तक उसमें किसी प्रकारकी थोड़ी भी क्षति नहीं हुई । मानो मूर्तिकार ने उसे आज ही उद्घाटित की हो ।'
इस मूर्तिके बारेमें मदनकीर्तिने लिखा है कि 'पाँचसी आदमियोंके द्वारा इस विशाल मूर्तिका निर्माण हुआ था और आज भी देवगण उसकी सविशेष पूजा करते हैं । प्राकृत निर्धाकाण्ड' और अपभ्रंश निर्वाणभक्ति में भी देवोंद्वारा उसकी पूजा होने तथा पुष्पवृष्टि ( केशर की वर्षा) करनेका उल्लेख है । इन सब वर्णनोंसे जैनपुरके
१ गोम्मटदेवं वंदमि पंचसयं धरगुह देह उच्चत्तं ।
देवा कुणति बुड़ी केसर - कुसुमाय तस्त उवरिम्मि ||२५||
२ मंदिर गोम्मट देऊ तित्धु, जसु अणु-दिणु पवई सुरहं सत्थु ।