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२८] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9000 300000000000 पूज्यपाद देवनन्दि)की संस्कृत निर्याणभक्तिसे और अज्ञातकर्तृक प्राकृत निर्वाणकाण्डसे' प्रकट है:(क) कैलासशैलशिखरे परिनिर्वृतोऽसौ
शैलेसिभावमुपपद्य वृषो महात्मा। नि० भ० श्लो० २२ । (ख) अट्ठावयम्मि उसहो.--नि० का० गा० नं०१ ।
णागकुमारमुगिंदो बालि महाबालि चेव अज्मेया। अठ्ठावय-गिरिंसिहरे णिवाणगया णमो तेसिं ।।-नि.का.१५ ।
मुनि उदयकीर्तिने भी अपनी 'अपभ्रश निर्वाणभक्ति में कैलासगिरिका और वहाँ से भगवान ऋषभदेवक निर्वाणका निम्न प्रकार उल्लेख किया है(ग) कइलास-सिहरि सिरि-रिसहनाहु.
जो सिद्धउ पयडमि धम्मलाहु । ___ यह ध्यान रहे कि अष्टापद भी इसी कैलासगिरिका दूसरा नाम है । जैनेतर इसे 'गौरीशङ्कर पहाई' भी कहते हैं। भगजिनसेनाचार्यके आदिपुरा तथा दूसरे दिगम्बर ग्रन्थोंमें इसकी बड़ी महिमा गाई गई है। श्वेताम्बर और जैनेतर सभी इसे अपना तीर्थ मानते हैं। इससे इसकी व्यापकता और महानता स्पष्ट है। किसी समय यहाँ भगवान् ऋषभदेवकी बड़ी ही मनोज और आकर्षक सातिशय सुवर्णमय दिगम्बर जिनमूत्तिं प्रतिष्ठित थी, जिसका उल्लेख मदनकीर्तिजींने इस रचनाके प्रथम पद्यमें सबसे पहले और बड़े गौरवके साथ किया है
१ इसके रचयिता कौन हैं और यह कितनी प्राचीन रचना है। यह
अभी अनिश्चित है फिर भी वह सात साठ-सौ वर्षसे कम प्राचीन नहीं मालूम होती ।