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सम्पादकीय
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___ काश ! यह जीर्ण-शीर्ण प्रति भी न मिली होती तो जैन साहित्यको एक अनमोल कृति और अपने समय के विख्यात विद्वान के सम्बन्धमें इन दो-चार पंक्तियोंको भी लिखनेका अवसर न मिलता । न मालूम ऐसी ऐसी कितनी साहित्यिक कृतियाँ जैन-साहित्य-भएद्वारमेंसे सड़-गल गई और जिनके नाम शेष भी नहीं है। आचार्य विशनन्दका विद्यानन्दमहोदय. अनन्तबीका प्रमाणसंग्रहभाध्य आदि बहुमूल्यरत हमारे थोड़ेसे प्रमाद और लापरवाहीसे जैन-वाङ्मय-भण्डारमें नहीं पाये जाते, वे या तो नष्ट होगय या अन्यत्र चले गये ! ऐसी हालतमै इस उत्तम और जीर्ण-शीणं कृतिको प्रकाशमें लानेकी कितनी जरूरत थी, यह पाठोपर स्वयं प्रकट होजाता है।
३. आभार
अन्तमें हम जैन साहित्य और इतिहासके सततोपासक और ममन्न विद्वान् प्रेमीजी और मुख्तारसाहबको नहीं भूल सकते जिनके संरक्षण और प्रकाशन-प्रयत्नोंसे ही यह ऋदि पाठकोंके हाथोंमें जारही है। अपने मित्र पं० परमानन्दजीके भी हम
आभारी हैं जिन्होंने इस कृतिकी तया अप्रकाशित मुनिउदयकीर्तिकृत अपभ्रंशनिर्वाणभक्ति की अपनी पाण्डुलिपियाँ दीं। हम उन लेखकों तथा सम्पादकोंके भी कृतज्ञ हैं जिनके प्रन्यों, लेखों और पत्र-पत्रिकाओंका प्रस्तावना एवं तीर्थ-परिचयमें उपयोग हुश्रा है। इति । वीरसेवामन्दिर, सरसावा दरवारीलाल जैन कोठिया ६ फरवरी १६४६
न्यायाचार्य