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४] प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9000000000000 बहुतसे पद्य पूरे नहीं पढ़े जाते " हमने सन्दर्भ, अर्थसंगति, अक्षरविस्तारकयंत्र आदिसे परिश्रमपूर्वक सम जगहके अक्षरोंको पढ़ कर पद्योंको पूरा करनेका प्रयत्न किया है-सिर्फ एक जगह के अक्षर नहीं पढ़े गये और इसलिये यहाँपर"...पसे बिन्दु बना दिये गये हैं। जान पड़ता है कि अबतक इसके प्रकाशनमें न सकने में शायद यही कठिनाई कारण रही है। अस्तु ।
२. प्रस्तुत संस्करण
६ अप्रेल सन् १९४७को जब इस कृतिकी उलिखित प्रति प्राप्त हुई तो मित्रवर परिखत परमानन्दजीका विचार उसे अनेकान्तमें प्रकाशित कर देनेका हुआ और इसके लिये उन्होंने प्रेमीजीसे स्वीकृति भी मँगा ली, साथमें उसकी एक पाण्डुलिपि मी करली. पर बादको वे कुछ अनिवार्य कारणवश इस विचारको मूर्तरूप न दे सके । गत दिसम्बर (१९४८)में जब इसके प्रकाशनके विषयमें पुनः चर्चा चली तो इसे सम्पादन कर अनेकान्त में अवश्य प्रकट कर देनेका विचार स्थिर हुथा। तदनुसार हमने पं. परमानन्दजीकी पाण्डुलिपिपर पहले मूलके साथ मिलान करके संशोधन किया और जो पाठ पढ़नेसे रह गये थे उन्हें पूरा कर प्रेस कापी करके संक्षिप्त नोटके साथ इसे अनेकान्त में प्रकट किया जो नषवें वर्षकी ११ वी १२ वीं संयुस किरणमें प्रकाशित है। इस बीचमें इसकी उपयोगिता, महत्व और गाम्भीर्यको देख कर अनुवादादिके साथ पुस्तकाकार रूपमें भी प्रकाशित करनेका निश्चय हुश्रा और प्रस्तुत संस्करण उसीका फलद्रूप परिणाम है।