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शासन-चतुर्विंशिका
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मानन्द निधयो' नवाऽपि नवधा यं" स्थापयाञ्चकिरे बाप्या पुण्यवत: म कस्यचिदहास्वं' स्वादिदेश प्रभुः । धारायां धरणारगाधिप - शित - च्छन्न - श्रिया राजते श्रीपार्थो नबम्ब (द)एड-मण्डित-तनुदिवाससां शासनम् ॥५॥
जिन पार्श्वप्रभुकी नव निधियों ने बड़े आनन्दपूर्वक नवप्रकार (नवधा भक्तिः) से वापी (बावड़ी) में स्थापना की और एक पुन्यात्माके लिये अपना रूप प्रदर्शित किया तथा जो धरणेन्द्रनागपतिरूप छत्र. श्रीसे धारा (नगरी) में सुशोभित है एवं नव हाथकी अवगाहनासे संयुक्त हैं वह धाराके श्रीपार्श्वनाथ दिगम्बर शासनको प्रवृद्ध करें।
यहाँ जिस धाराके श्रीपार्श्वप्रभुकी महिमाका गान किया गया है वह उज्जयिनीकी प्रसिद्ध सांस्कृतिक और विद्याकेन्द्र नगरी तथा राजा भोस, जयसिंह आदि धारानरेशोंकी राजधानी प्रख्यात धारा जान पड़ती है। विद्ववर्य पंडित आशाधरजीने इसी घारामें कुछ काल तक विद्याभ्यास किया था । कोई आश्चर्य नहीं, पं० आशाधरजीके समकालीन मुनि मदनकीर्तिजीने यहाँ उसी धाराका उल्लेख किया है
और वहाँ के अतिशयप्राप्त श्रीपार्श्वनाथके दिगम्बर जिनपिम्बका इस पद्यमें प्रभाव प्रदर्शित किया है ||५||
द्वापञ्चाशदननपाणिपरमोन्मानं करः पञ्चभि. ये चक्रे जिनमर्ककीर्तिनृपतिर्मावाणमेकं महन् । तन्नाम्ना सा बृहत्पुरे वरबृहद्द वाख्यया गीयते
श्रीमत्यादिनिपिद्धिकेयमवतादिग्वाससां शासनम् ॥६॥ १ कारः । २ कर्मतापन्न ! ३ स्वकीय स्वरूपं । ४ यः प्रभुः श्रीपार्श्वनाथः । ५. प्रति । ६ पंचभि करैः सह द्वापंचाशत् | सप्तपंचाशत् इत्यर्थः । ७ कथभूत शासनं महत् । ८ स जिनः । ६ इयं श्रीमती आदि निषिद्धिका इति च लोकथिते ।