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शासन-चतुनिशिका [२१ Saaeeeeeeeeeeeeeeee
कहते हैं कि एक दिव्यशिला गोदावरीके किनारे रही उसपर कोई एक ब्राह्मण अपने इष्ट हरिहरादि देवोको स्थापित करना चाहता था; परन्तु उसपर मुनिसुव्रतजिन ही स्थिर होकर ठहरे अन्य देव उसपर नहीं ठहर सके । बादको जब मुनिसुव्रतजिनका यह अतिशय लोकमें प्रकट हुआ तो देवोंने उन्हें श्राकाशमें और विनों तथा इतर जनोंने अपरोक बड़े उता और ही : और इस तरह मुनिसुव्रतजिनका यह अतिशय लोकमें भारी ख्यातिको प्राप्त हुआ ॥२८॥
जायानामपरिग्रहोऽपि' भविनां भूयायदि श्रेयसे तत्कस्यास्ति' न मोऽधमोऽपि विधिना हस्वस्तदर्थ मतः । क्षीणारम्भपरिग्रह शिवपदं को वा न वा मन्यते इत्यालौकिकभाषितं विजयते दिवाससा शासनम् ।।२।।
खियोंका अपरिग्रह भी जीवों के लिये कल्याणकारी है। अतः वह थोड़ा भी किस जीवका कल्याणकारी नहीं है अपितु है ही और इसलिये वह कम भी अपरिग्रह यथाविधि हरएकके कल्याएके लिये माना गया है। 'भारम्भ और परिग्रहसे रहित शिवपद (मोक्ष) है। यह सभी लौकिकजनों आम लोगों) का कथन है उसे कौन नहीं मानता! अर्थात प्रायः सभी उसे मानते हैं। और इस तरह भी दिगम्बर शासन विजयको प्राप्त होता है-उसका व्यापक प्रभाष प्रकट है।
लोकमें संसारी जीवोंको सभी सांसारिक पदार्थोसे मोह होता है उनमें स्वीविषयक मोह और ज्यादा होता है। जो इस मोहका यथा१ अथवा जायानां अपरिग्रहः इस्योऽपि कस्य तदर्थ थेयोऽर्थ न मतोऽस्ति अपि तु मतोऽस्ति । २ तत् तस्मात् स कस्य भविनः भै यसे न अस्ति अपि तु अस्येव ।