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शासन-चतुस्त्रिंशिका [४१ అందింఅంఅంఅeeeeeee करने के लिये राजासे कहा । राजाने वैसा किया और उसका सर्व कोढ़ दूर हो गया। रानीको देवताद्वारा स्वममें इसका कारण मालम हुत्रा कि वहाँ पार्श्वजिनकी प्रतिमा विराजमान है और उसीके प्रभावसे यह सब हुआ है। फिर वह प्रतिमा अन्तरिक्षमें स्थित हो गई। राजाने वहाँ अपने नामाक्षित श्रीपुरनगरको बसाया ! अनेक महोत्सयोंके साथ उस प्रतिमाकी यहाँ प्रतिष्ठा की गई। तीनों काल उसकी पूजा हुई।
आज भी वह प्रतिमा उसी तरह अन्तरिक्षमें स्थित है । पहले यह प्रतिमा इतने अधर थी कि उसके नीचेसे शिरपर घड़ा रक्खे हुए स्त्री निकल जाती थी, परन्तु कालवश अथवा भूमिरचनावश या मिथ्या. स्वादिसे दूषित काल के प्रभावसे अब वह प्रतिमा इतने नीचे होगई कि
एक चादर (धागा ?)का अन्तर रह गया है। इस प्रतिमाके अभिषेक . जलसे दाद, खाज, कोढ़ आदि रोग शान्न होते हैं।" लगभग यही
कथा मुनि श्रीशील विजयजीने अपनी तीर्थमाला में दी है और श्रीपुरके पार्श्वनाथका लोकविश्रुत प्रभाव प्रदर्शित किया है। मुनिजीने विक्रम सं. १७३१-३२ में दक्षिण के प्रायः समस्त तीर्थीकी वन्दना की थी
और उसका उक्त पुस्तकमे अपना अनुभूत वर्णन निबद्ध किया है। यद्यपि उक्त कथाओं का ऐतिहासिक आधार तथ्यभूत है अथवा नहीं इसका निर्णय करना कठिन है फिर भी इतना अवश्य है कि उक्त कथाएँ एक अनुश्रुति हैं और काफी पुरानी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उक्त प्रतिमाके अभिषेकजलको शरीरमें लगानेसे दाद, खाज
और कोढ़ जैसे रोग अवश्य नष्ट होते होंगे और इसी कारण उक्त प्रतिमाका अतिशय लोकमें दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया होगा । विक्रमकी नवमी शताब्दीके प्रखर तार्किक आचार्य विद्यानन्द जैसे
१ देखो, 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २२७ ।