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भीपुस्तमासा ఉంది 6e000000000000 वहाँ के पार्श्वनायकी वन्दना की गई है। । मुनि उदयकीर्ति ने भी अपनी अपभ्रशनि रणभक्तिमें श्रीपुरके पार्श्वनाथका अतिशय प्रदर्शित करते हुए उनकी बन्दना की है। मदनकीर्तिसे कोई सो-वर्ष बाद होनेवाले श्वेताम्बर विद्वान् जिनप्रभसूरिने भी अपने 'विविधतीर्थकल्प में एक 'श्रीपुर-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकल्प' दिया है और उसमें इस अतिशयतीर्थका वर्णन करते हुए उसके सम्बन्धमें एक कथाको भी निबद्ध किया है | कयाका सारांश यह है कि "लकाधीश दशमीवने माली सुमाली नामके अपने दो सेवकों को कहीं भेजा । वे विमानमें बैठे हुए आकाशमार्गसे जा रहे थे कि जाते-जाते भोजनका समय होगया। सुमालीको ध्यान पाया कि जिनेन्द्र प्रतिमाको घर भुल आये और बिना देवयू जाके भोजन नहीं कर सकते। उन्होंने विद्याबलसे पवित्र बालद्वारा भाविजिन श्रीपार्श्वनाथकी नवीन प्रतिमा बनाई। दोनोने उसकी पूजा की और फिर भोजन किया । पश्चात् उस प्रतिमाको निकटवर्ती ताखाबमें विराजमान कर आकाशमार्गसे चले गये । वह प्रतिमा शासनदेवताके प्रभावसे तालाब में अखण्डितरूपमें बनी रही । कालान्तरमें उस तालावका पानी कम हो गया और सिर्फ उसी गड्ड में रह गया जहाँ वह प्रतिमा स्थित थी। किसी समय एक श्रीपाल नामका राजा, जिसे भारी कोट था, घूमता हुआ वहाँ पहुँचा और पहुँचकर उस पानीसे अपना हाथमुंह धोकर अपनी पिपासा शान्त की। जब वह घर लौटा तो उसकी रानीने उसके हाथ-मुहको कोदरहित देखकर पुनः उसी पानीसे मान
१. यथा-'पास सिरपुरि वेदमि ।'–निर्वाणका | २ यथा-'अ बंदउं सिरपुरि पासनाहु,
जो अंतरिक्खि दणाणलाहु । ३ देस्रो, सिंधी ग्रन्थमालासे प्रकाशित 'विविधतीर्थकल्प' पृ० १०२ ।