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प्रकीर्णक पुस्तकमाला అఅఅఅఅ000000000000
जो जगतके अद्वितीय भूषण हैं और आश्चर्यको भात है कि जो विश्वसेनके श्रादर (भक्ति से समुद्रसे उसी तरह निकल-पाट हुए जिसप्रकार तालाबसे सद्बत्रवती (चेतवा)। और जो पृथ्वीपर क्षुद्र उपद्रवोंसे रहित होते हुए लोकको-अखिल विश्वको आनन्दकारक हुए। वह श्रीशान्तिजिनेश्वर दिग्वासों के शासनकी विजय करें-लोकमें उसके प्रभावको अधिकाधिक स्थायित करें॥६॥
योगा यं परमेश्वरं हि कपिलं सांख्या निर्ज' योगिनो बौद्धा बुद्धमज हरि द्विजवरा जल्पन्स्युदीच्या दिशि । निश्चीरं वृषलाञ्छनं ऋजुतनुं देवं जटाधारिणं निर्गन्धं परमं समाहुरमलं दिग्याससां शासनम् ॥१०॥
योग (नैयायिक और वैशेषिक) उत्तर दिशा में स्थित जिस नग्न मूर्तिको “परमेश्वर' (ईश्वर), सांस्य 'कपिल', योगी (आत्मध्यानी) जन "निज' (आत्मा), बौद्ध 'बुद्ध', बाभण 'ब्रह्मा', 'विष्णु' वृषलांछन, सरलशरीरी और जटाधारी महादेव इन भिन्न भिन्न नामोसे पुकारते हैं--कथन करते हैं तथा जैन उसे परमनिर्गन्थदेव कहते हैं वह उत्तरदिशाके मतिशययुक्त जिनदेव निर्मल दिगम्बरशासनको प्रवृद्ध करें ।। १८ ॥
सोपानेषु सफष्ट्रमिष्ट-सुकृतादारुह्य ग्रान् बन्दति(ते) सौधर्माधिपति-प्रतिष्ठित-वपुष्काये जिना विंशतिः । प्रख्याः स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला सम्मेदपृश्वीरहि
भन्योऽन्यस्तु न पश्यति ध्रुमिदं दिग्याससाशासनम् ॥११॥ १ निजं परमेश्वरं | २ ब्रह्माणं । ३ श्रवस्त्र । ४ प्रति । ५ सन्तीति अस्याहारः । ६ तु पुनः । ७ कस्यचित् ।