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प्रस्तावना eeeeeeeeeeeeeeeeee
और उस समय वहाँ वीर-भोजदेवका राज्य था । सम्भव है विशालकीत अपने शिष्य मदनकीर्तिको समझाने के लिये उधर कोल्हापुर . सरफ गये हों और तभी उन्होंने सोमदेवकी वैयावृत्त्य की हो।' यदि प्रेमीजीका अनुमान ठीक हो तो कुन्तिभोजका समय विक्रम सं. १९६२ के लगभग जाना पड़ता है और इस लिये विशालकीर्तिके शिष्य मदनकीतिका समय भी यही विक्रम सं. १२६२ होना चाहिये।
(ख) पण्डित आशाधरजी ने अपने जिनयज्ञकल्पमें', जिसे प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं और जो विक्रम संयत् १२८५ में बनकर समान हुआ है, अपनी एक प्रशस्ति दी है। इस प्रशस्ति में अपना विशिष्ट परिचय देते हुए एक पछमें उन्होंने उल्लेखित किया है कि वे मदनकीर्तियतिपतिके द्वारा 'प्रज्ञापुञ्ज'के नामसे अभिहित हुए थे अर्थात् मदनकीर्तियतिपति ने उन्हें 'प्रज्ञापुज' कहा था । मदनकीर्तियतिपतिके उल्लखवाला उनका वह् प्रशस्तिगत पद्य निम्न प्रकार है:
इत्युदयसेनमुनिना कविसहदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । प्रज्ञापुजोसीति च योऽभिहि(म तो मदनकीर्तियतिपतिना। __इस उल्लेखपरसे यह मालूम होजाता है, कि मदनकीर्तियतिपति, पण्डित आशापरीके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती ---. ...- - १ विक्रमवर्षसपंचाशीतिद्वादशशतेवतीतेष ।
अाश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमतापराक्षस्य ।।१६|| २ यही प्रशस्ति कुछ हेर-फेरके साथ उनके सागारधर्मामृत आदि दूसरे कुछ ग्रन्थोंमें भी पाई जाती है।