Book Title: Puja Sangraha
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRAAAAAAAAAAAAAAAAAAAASHRS စီစစစစစစစစစီအစဉ်ဖြစ66688 * न्यायांनोनिधि मुनि श्रीआत्माराम जीआनंद विजयजी कृत पूजा संग्रह 900000000oyoooooooooooooooooooooooooooooooooooomOOGOOGORY तथा अन्यकृत र स्तवन, गहूं खिनो श्रने मंगलसहित श्री नवपदजीनी पूजा तेने श्री मुंबापुरीमध्ये श्रावक नीमसिंह माणकें निर्णयसागर मुद्रायंत्रमा छापी प्रसिद्ध कर्यो. संवत् १९५५. सने १८९८. Hetaste ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ote ofootoosate ofootoofootootos ggeryoooooooooooooooooooooomeryoney ရှိမဖို့ ဝန်မ မ မ မ မ မ မ မ ဝ ရ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रात्मारामजी विरचित पूजासंग्रहनी अनुक्रमणिका. ....१५ अनुक्रमांक. विषयनाम. पृष्ठांक. १ श्रीमद्यशोविजयजीकृत नवपद पूजा. .... १ २ नवपदकाव्य. .. ३ श्रीमदानंदविजयजी श्रात्मारामजीकृत विं शतिस्थानक पूंजा. .... .... .... .... २५ ४ श्रात्मारामजी महाराजकृत सत्तरनेदी पूजा. ४४ ५ श्रात्मारामजीकृत अष्टप्रकारी पूजा. .... ६३ ६ आत्मारामजीकृत झषनजिनस्तवन, मन 9 आत्मारामजीकृत द्वितीयषनजिनस्तवन श्रात्मारामजीकृत धर्मजिनस्तवन. क्युं वि०७० ए राजसिंहकृत रुषन जनस्तवन, लागीलग १० जिनस्तवन. श्राज प्रजु०॥.... .... .... GO ११ चंदनकृत वीतरागस्तवन, श्रीवीतरागको र १२ कपूर विजयकृत शांति जिनस्तवन. शांतिवद० र १३ जिनस्तवन. पांचवरण ॥.... .... ....२ १५ ज्ञानविमलसूरिकृत महावीर जिनस्तव०७२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) १५ अध्यात्मसद्याय. अध्यातम प्रीत लागी रे ३ १६ वैराग्यपद. पुनियां मतलब० ॥ .... .... ४ १७ नेमजिनस्तवन. मोरवा बप्पैया० ॥ .... ४ १७ समेतशिखरजीनी लावणी.बाराकोश विस्तार ७५ १ए गुरुगुण गहूं ली. श्रोतारे सुणो ॥.... .... ७६ २० गुरुगुण लहरी, जवि तुम सुणजो रे ॥.... GO १ गढूंली नाग पहेलो. एमां महामुनि आत्मा रामजीनुं जन्मचरित्र वर्णव्युं .नढुं थयु रे॥ नए २२ गहूंली नाग बीजो. कहां गया रे मारे सु० ए० २३ गहूं ली. रहो गुरु राजनगर ॥ .... .... ए५ इति समाप्त. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ॥ ॥श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत नवपद पूजा प्रारंनः॥ तत्र. ॥प्रथम अरिदंतपद पूजा प्रारंनः॥ ॥ काव्यं, उपजातिवृत्तम् ॥ जप्पन्नसन्नाणमहो मयाणं, सप्पाडिहेरासण संठियाणं ॥ सदेसणाणं दिय सजाणाणं, नमो नमो होउ सया जिणाणं ॥१॥ ॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नमोऽनंतसंतप्रमोदप्रदान, प्रधानाय जव्यात्मने नास्वताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यनाजा, सदा सिकचक्राय श्रीपाल राजा ॥२॥ कस्यां कर्म कुर्मर्म चक चूर जेणे, नला जव्य ! नवपद ध्यानेन तेणें ॥ करी पूजना जव्य ! जावें त्रिकाले, सदा वासियो श्रातमा तेण कालें ॥३॥ जिके तीर्थकर कर्म उदयें करीने, दिये देशना नव्यने हित धरीने ॥ सदा आठ महापाडिहारें समेता, सुरेशे नरेशें स्तव्या ब्रह्मपुत्ता ॥४॥ कस्यां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) घातियां कर्म चारे अलग्गां, जवोपग्रही चार जे बे विलग्गां ॥ जगत् पंच कल्याणकें सौख्य पामे, नमो तेह तीर्थंकरा मोदकामें ॥ ५ ॥ ॥ ढाल || देशी उलालानी ॥ तीर्थपति रिहा नमुं, धर्म धुरंधर धीरो जी ॥ देशना अमृत वरसता, निजवीरज वड वीरो जी ॥ १ ॥ उलालो ॥ वर खय निर्मल ज्ञानजासन, सर्वजाव प्रकाशता ॥ निजशुद्ध श्रद्धा श्रात्मजावें, चरण थिरता वासता ॥ जिन नाम कर्म प्रजाव अतिशय, प्रातिहारज शोजता ॥ जगजंतु करुणावंत जगवत, जविक जननें थोजता ॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ त्रीजे जव वरथानक तप करी, जेणें बांध्युं जिननाम || चोसह इंडें पूजित जे जिन, कीजें तास प्रणाम रे ॥ जविका ! सिद्धचक्रपद वंदो, जिम चिरकालें नंदो रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १ ॥ ए यांकणी ॥ जेहनें होय कल्याणक दिवसें, नरकें पण अजवायुं ॥ सकल - धिकगुण अतिशयधारी, ते जिन नमि अघ टालुं रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २ ॥ जे तिहुना समग्ग उप्पन्ना, जोग करम ही जाण ॥ लेइ दीक्षा शिक्षा दियेजनने, ते नमियें जिननाणी रे ॥०॥ सि०॥३॥ महागोप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) महा माहण कहियें, निर्यामक सबवाह ॥ उपमा ए रे ॥ ज० ॥ हवी जेहने बाजे, ते जिए नमियें उत्साह सि० ॥ ४ ॥ प्रातिहारज जस बाजे, पांत्रीश गुणयुत वाणी ॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, जिन नमियें प्राणी रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ५॥ || ॥ ढाल ॥ श्ररिहंत पद ध्यातो थको, दवहगुण पकाय रे || जेद बेद करी आतमा, अरिहंत रूप थाय रे ॥ १ ॥ वीर जिनेसर उपदिशे, सांजलजो चित्त लाइ रे ॥ श्रातमध्यानें श्रातमा, रुद्धि मले सवि आई रे ॥ २ ॥ वी० ॥ इति अरिहंत पद पूजा ॥ ॥ द्वितीय सिद्धपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ सिद्धाणमाणंद रमालयाणं ॥ नमो नमोऽतचक्कयाणं ॥ ॥ भुजंग प्रयातवृत्तम् ॥ करी आठ कर्म कयें पार पाम्या, जरा जन्म मरणादि जय जेणें वाम्या ॥ निरावरण जे श्रात्मरूपें प्रसिद्धा, थया पार पामी सदासिद्ध बुद्धा ॥ १॥ त्रिजागोन देहावगाहात्मदेशा, रह्या ज्ञानमयजातवर्णा दिलेशा ॥ सदानंद सौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध अपुनर्भवादिखरूपा ॥२॥ || ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ सकल करममल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) दय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपो जी ॥ अव्याबाध प्रनु. तामयी, श्रातम संपत्तिजूपो जी॥१॥ उलालो ॥ जेहनूप श्रातम सहज संपति,शक्ति व्यक्तिपणे करी॥ खजव्यदेव खकालनावें, गुण अनंता श्रादरी ॥ स्वजाव गुणपर्याय परिणति, सिकिसाडन परजणी ॥ मुनिराज मानसहंससमवड,नमो सिक महागुणी॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ समयपयेसंतर अणफरसि, चरम तिनाग विशेष ॥ अवगाहन लही जे शिव पहोता, सिक नमो ते अशेष रे ॥नासि॥६॥ पूर्वप्रयोगनें गतिपरिणामें, बंधन बेद असंग ॥ समय एक ऊर्ध्वगति जेहनी, ते सिक प्रणमो रंग रे॥नासि॥॥ निर्मल सिझशिलानी उपरें, जोयण एक लोगंत ॥सादि अनंत तिहां स्थितिजेहनी. ते सिझ प्रणमो संत रे ॥ ज० ॥ सि०॥ ॥ जाणे पण न सके कही परगुण, प्राकृत तिम गुण जास ॥ उपमाविण नाणी नवमांहे, ते सिक दीयो उबास रे॥नासि॥॥ज्योतिझुंज्योति मिली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ श्रातमराम रमापति समरो,ते सिझसहज समाधि रे॥नासि०१० ॥ ढाल ॥ रूपातीत खनाव जे, केवल दसपना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) णी रे ॥ ते ध्याता निज श्रातमा, होये सिझ गुण खाणी रे ॥ वी० ॥३॥ इति सिझपदपूजा समाप्ता॥ ॥ तृतीय श्राचार्यपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं, इंजवज्रावृत्तम् ॥ सूरीणदूरीकयकुग्गहाणं नमो नमो सूरसमप्पहाणं ॥ ॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नमूं सूरिराजा सदा तत्त्व ताजा, जिनेमागमें प्रौढ साम्राज्यनाजा ॥ षड्वर्गवर्गित गुणे शोनमाना,पंचाचारने पालवे सावधाना ॥ १॥ नविप्राणिने देशना देश काले, सदा अप्रमत्ता यथासूत्र श्राले ॥ जिके शासनाधार दिग्दंतिकल्पा, जगें ते चिरंजीवजो शुद्धजल्पा ॥२॥ ॥ढाल॥उलालानी देशी॥याचारिजमुनिपति गुणी, गुणबत्रीशी धामो जी ॥ चिदानंदरस खादता, परनावें निःकामो जी॥१॥ उलालो ॥ निःकाम निर्मल शुभचिद्घन, साध्यनिज निरधारथी ॥ निज ज्ञान दर्शन चरण वीरज, साधनाव्यापारथी॥ नवि जीव बोधक तत्त्वशोधक, सयलगुण संपति धरा॥संवरसमाधी गतउपाधी, पुविध तपगुण श्रागरा ॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी देशी॥ पंच थाचार जे सूधा पाले, मारग नांखे साचो ॥ ते श्रा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) चारज नमियें तेह, प्रेम करीजें जाचो रे ॥नवि०॥ सि० ॥ ११ ॥ वर बत्रीश गुणें करी सोहे, युगप्रधान जन मोहे ॥ जग बोहे न रहे खिल कोहे, सूरि नमुं ते जोहे रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १२ ॥ नित अप्रमत्त धर्म उवएसें, नहिं विकथा न कषाय ॥ जेहने ते श्राचारिज नमियें, अकलुष अमल श्रमाय रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १३ ॥ जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयण वली जनने ॥ पटधारी गठ थंज श्राचारिज, ते मान्या मुनि मनने रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १४ ॥ मियें जिन सूरज केवल, चंदें जे जगदीवो ॥ भुवन पदारथ प्रगटन पटुते, आचार य चिरंजीवो रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १५ ॥ ॥ ढाल ॥ ध्याता आचारिज जला, महामंत्र शुन ध्यानी रे | पंच प्रस्थाने आतमा, याचारिज होय प्राणी रे ॥ वी० ॥ ४ ॥ इति श्राचार्यपद पूजा स० ॥ ॥ चतुर्थ उपाध्यायपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ काव्यं, इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ सुत विचारणतप्पराणं ॥ नमो नमो वायगकुंजराणं ॥ ने ॥ जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नहीं सूरि पण सूरिगणसहाया, नमूं वाचका त्यक्तमदमोहमाया ॥ वलि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगादि सूत्रार्थ दानें,जिके सावधानानिरुकानिमानें ॥१॥ धरे पंचने वर्गवर्गित गुणौघा, प्रवादि हिपोछेदने तुल्य सिंघा ॥ गणी गलसंधारणे स्थंजनूता, उपाध्याय ते वंदियें चित्प्रनूता ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ खंतिजुआ मुत्ति जुश्रा,अजव मदव जुत्ता जी॥ सच्चं सोय अकिंचणा, तव संजम गुणरत्ता जी ॥१॥ उलालो ॥ जे रम्या ब्रह्म सुगुत्ति गुत्ता, समिति समिता श्रुतधरा ॥ स्याहादवादें तत्त्ववादक, आत्मपर विनजनकरा ॥ नवनीरु साधन धीरशासन, वहन धोरी मुनिवरा ॥ सिझांत वायण दान समरथ, नमो पाठकपदधरा ॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥श्रीपालना रासनी देशी ॥छादश अंग सजाय करे, जे पारग धारग तास ॥ सूत्र अर्थ विस्तार रसिक ते, नमो उवजाय उदास रे ॥ ॥ज ॥ सि० ॥ १६ ॥ अर्थ सूत्रने दान विनागें, श्राचारज उवकाय ॥ जव त्रण्ये जे लहे शिवसंपद, नमियें ते सुपसाय रे ॥ न ॥ सि० ॥ १७ ॥ मूरख शिष्य निपाई जे प्रनु, पहाणने पद्धव आणे ॥ ते जवजाय सकलजन पूजित,सूत्र अरथ सवि जाणे रे॥ न०॥ सि ॥ १० ॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) चारि पदयोग ॥ जे उवकाय सदा ते नमतां, नावे जवजय सोग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १५ ॥ बावना चंदन रस समवय, श्रहितताप सवि टाले ॥ ते नवकाय नमीजें जे वली, जिन शासन अजुवाले रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २० ॥ ॥ ढाल ॥ तपसझायें रत सदा, द्वादश अंगना ध्याता रे ॥ उपाध्याय ते यातमा, जगबंधव जग जाता रे ॥ वी० ॥ ५ ॥ इति उपाध्यायपद पूजा ॥ ॥ पंचम मुनिपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥ काव्यं, इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ साहू संसाहि संजमाणं ॥ नमो नमो सुद्ध दयादमाणं ॥ ॥ जुजंगप्रयात वृत्तम् ॥ करे सेवना सूरिवायग गलीनी, करूं वर्णना तेहनी शी मुणिनी ॥ समेता सदा पंचसमिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्तें नहीं काम जोगेषु लि. ता ॥ १ ॥ वली बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि टाली, होये मुतिनें योग्य चारित्र पाली ॥ शुभाष्टांग योगें रमे चित वाली, नमूं साधने तेह निज पाप टाली ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ सकल विषय विष वारीनें, निःकामी निःसंगी जी ॥ जवदवताप शमावता, यातमसाधन रंगी जी ॥ १ ॥ जलालो ॥ जे रम्या For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा ॥ काउसग्ग मुखा धीर आसन, ध्यान अन्यासी सदा ॥ तप तेज दीपे कर्म जीपे, नैव बीपे परजणी ॥ मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित जणी ॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ जिम तरुफूलें जमरो बेसे, पीडा तस न उपावेलरसने आतम संतोषे,तिम मुनि गोचरीजावे रे ॥०॥ सि ॥१॥ पंच इंजियने कषाय निरंधे, षट कायक प्रतिपाल ॥ संयम सतर प्रकार श्राराधे, वंदू तेह दयाल रे ॥ ज० ॥ सि ॥२२॥ अढार सहस शीलांगना धोरी, अचलयाचार चरि त्र॥ मुनि महंत जयणायुत वांदी, कीजें जनम पवित्र रे॥ ज० ॥ सि॥२३॥ नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाले, बारसविह तप सूरा ॥ एहवा मुनि नमियें जो प्रगटे, पूरवपुण्य अंकूरा रे ॥ ज० ॥ सि ॥२४॥ सोना तणी परें परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वानें। संजमखप करता मुनि नमिये, देशकाल अनुमानें रे ॥ न०॥ सि० ॥२५॥ ॥ ढाल ॥ अप्रमत्त जे नित रहे, नवि हरषे नवि सोचे रे ॥ साधु सुधा ते श्रातमा, शुं मूंगे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) लोचे रे ॥ वी० ॥६॥इति मुनिपद पूजा समाप्ता॥ ॥ षष्ठ सम्यक्तत्व दर्शन पद पूजा प्रारंजः॥ ॥ काव्यं, अवज्रावृत्तम् ॥ जिणुत्ततत्ते रुश् लरकणस्स, नमो नमो निम्मलदंसणस्स ॥ ॥तुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ विपास हरवासना रूप मिथ्या, टले जे अनादि अजे जेम पथ्या ॥ जिनोक्तं हो सहजथी श्रद्दधानं, कहियें दर्शनं तेह परमं निधानं ॥१॥ विना जेहथी ज्ञानमझानरूपं, चरित्रं विचित्रं जवारण्यकूपं ॥ प्रकृति सातने उपशमें दय ते होवे, तिहां आपरूपें सदा आप जोवे ॥२॥ ॥ ढाल, उलालानी देशी ॥ सम्यग्दर्शन गुण नमो, तत्त्व प्रतीत स्वरूपो जी ॥ जसु निरधार वनाव बे, चेतनगुण जे अरूपो जी ॥१॥ जलालो ॥ जे अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल परईहा टले ॥ निज शुझसत्ता प्रगट अनुनव, करण रुचिता ऊबले ॥ बहु मान परिणति वस्तुतत्त्वे, अहव तसु कारणपणे ॥ निज साध्यदृष्टे सर्व करणी, तत्त्वता संपति गणे ॥२॥ ___॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी॥शुद्ध देव गुरुधमे परीदा, सदहणापारणाम ॥ जेहपामीजें तेह नमीजें, सम्यक्दर्शन नाम रे ॥ ज० ॥ सि ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ॥ २६ ॥ मलउपशम य उपशम यथी, जे होय त्रिविध अनंग ॥ सम्यक्दर्शन तेह नमीजें जिनधर्में दृढरंग रे ॥ न ॥ सि ॥२७॥ पंच वार उपशमिय लहीजें, दय उपशमिय असंख ॥ एकवार दायिक ते समकित, दर्शन नमिये असंख रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २ ॥ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्रतरु नवि फलियो। सुख निर्वाण न जे विण लहियें, समकित दर्शन बलियो रे ॥ ज० ॥ सि ॥२॥ सडसह बोलें जे अलंकरियुं, झानचारित्रनुं मूल ॥ समकित दर्शन ते नित प्रणमुं, शिवपंथनुं अनुकूल रे ॥ ज० ॥ सि ॥३०॥ ॥ ढाल ॥ समसंवेगादिक गुणा, दय उपशम जे आवे रे ॥ दर्शन तेहिज आतमा, शुं होय नाम धरावे रे ॥ वीर० ॥ ७ ॥ इति सम्यक् दर्शन पूजा ॥ ॥ सप्तम सम्यक्झानपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं, वज्रावृत्तम् ॥ अन्नाणसंमोहतमोहरस्स नमो नमो नाण दिवायरस्स ॥ __॥ मुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ होये जेहथी शान शुद्ध प्रबोधे, यथावर्ण नासे विचित्रावबोधे ॥ तेणें जाणियें वस्तु षड् अव्यनावा, न हुये वितबा ( वाद) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) निजेला स्वजावा ॥१॥ होय पंचमत्यादि सुझाननेदें, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदें ॥ वली झेय हेय जपादेय रूपें, लहे चित्तमां जेम ध्वांतप्रदीपें ॥२॥ ॥ ढाल, उलालानी देशी ॥ जव्य ! नमो गुण ज्ञाननें, स्वपरप्रकाशक नावें जी॥ परजय धर्मानंतता, नेदानेद खनावें जी ॥१॥ उलालो ॥ जे मुख्य परिणति सकल झायक,बोध नाव विलछना॥मतियादि पंच प्रकार निर्मल, सिझ साधन ललना ॥स्याहा. दसंगी तत्त्वरंगी, प्रथम नेदानेदता ॥ सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल संशय बेदता ॥५॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥नदअनद न जे विण लहियें, पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहिये, ज्ञान ते सकल श्राधार रे॥०॥ नि० ॥३१॥प्रथम ज्ञान में पड़ी अहिंसा, श्री सिद्धांतें नांख्यु ॥ज्ञाननें वंदो झान म निंदो, ज्ञानियें शिवसुख चाख्यु रे ॥ न ॥ सि ॥ ३ ॥ सकल क्रियानुं मूल ते श्रद्धा, तेहy मूल जे कहियें॥ तेह झान नित नित वंदीजें, ते विण कहो किम रहिये रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ३३ ॥ पंच ज्ञानमांहि जेह सदागम, खपर प्रकाशक तेह ॥ दीपक परें त्रिजुवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपगारी, वली जिम रवि शशी मेह रे ॥ ज०॥ सिप ॥ ३४ ॥ लोक ऊरध अध तिर्यगू ज्योतिष, वैमानिकनें सिछि॥लोक श्रलोक प्रगट सविजेदथी, ते झाने मुफ शुफि रे ॥ न॥ सि ॥ ३५ ॥ ॥ ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म ,दय उपशम ते थाय रे॥तो हुवे ए हिज श्रातमा, शानश्रबोधता जाय रे ॥ वी० ॥ ॥ इति सम्यक् ज्ञानपदपूजा ॥ ॥अष्टम चारित्रपदपूंजा प्रारंजः ॥ काव्यं, इंडवज्रावृत्तम् ॥ आराहिअखंमिश्रस किस्स, नमो नमो संजम वीरिअस्स ॥ ॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ वली शानफल चरण धरियें सुरंगें, निराशंसता छाररोधप्रसंगें ॥ जवांजोधि संतारणे यानतुल्यं, धरूं तेह चारित्र अप्राप्तमूल्यं ॥ १॥ होयें जास महिमाथकी रंक राजा, वली छादशांगी नणी होय ताजा ॥ वली पावरूपोपि निःपा प थाय, थई सिक ते कर्मने पार जाय ॥२॥ ॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ चारित्रगुण वली वली नमो, तत्त्वरमण जसु मूलो जी ॥ पररमणीय पणुं टले, सकल सिक अनुकूलो जी॥१॥ जलालो॥ प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम, तत्त्व थिरता दममयी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) शुचि परम खंती मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचयी॥ सामायिका दिकन्नेद धर्मे,यथाख्यातें पूर्णता॥अकषाय अकलुष अमल उज्ज्वल, काम कश्मल चूर्णता॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ देश विरति ने सरव विरति जे, गृहि यति ने अनिराम॥ ते चारित्र जगत जयवंतुं, कीजें तास प्रणाम रे॥न ॥ सि ॥ ३६ ॥ तृणपरे जे षट खंम सुख मी, चक्रवर्ति पण वरियो ॥ते चारित्र अखय सुख कारण, ते में मनमांहे धरियो रे॥ना सि॥३॥ हुआ रांक पणे जे श्रादरी, पूजित पद नरिंदें॥ अशरण शरण चरण ते वंदूं, पूयुं ज्ञान आनंदें रे ॥ ज० ॥ सि॥ ॥३०॥ बार मास पर्यायें जेहनें, अनुत्तर सुख अ. तिक्रमियें॥ शुक्ल शुक्ल निजात्य ते ऊपर,ते चारित्रने नमियें रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ३ए ॥ चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह ॥ चारित्र नाम निरुत्ते नांख्युं, ते वंदूं गुणगेह रे॥०॥ सि०॥४०॥ ॥ ढाल ॥ जाण चारित्र ते यातमा, निज खनावमा रमतो रे ॥ लेश्या शुफ़ अलंकस्यो, मोहवनें नवि जमतो रे ॥ वी० ॥॥श्त्यष्टम चारित्र पद पूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ॥ नवम तपपदपूजा प्रारंजः॥ ॥ काव्यं, इंजवज्रावृत्तम् ॥ कम्मदुमोम्मूलण कुंजरस्स, नमो नमो तिवतवोजरस्स ॥ ___ मालिनीवृत्तम् ॥ श्य नव पय सिकं, लछि विजा समिकं ॥ पयडियमुरवग्गं, हीतिरेहासमग्गं ॥ दिसिव सुरसारं, खोणि पीढावयारं ॥ तिजय विजय चकं, सिक चकं नमामि ॥१॥ ॥ तुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ त्रिकालिक पणे कर्म कषाय टाले, निकाचित पणे बांधियां तेह बाले॥कडं तेह तप बाह्य अंतर पुनेदें, दमायुक्त निर्देतु पुर्ध्यान बेदे ॥२॥ होये जास महिमाथकी लब्धि सिकि, श्रवांडकपणे कर्म आवरणशुकि॥ तपो तेह तप जे महानंद हेतें, होये सिकि सीमंतिनी जिम संकेतें॥ ॥३॥ श्स्या नवपद ध्यानने जेह ध्यावे, सदानंद चियूपतातेहपावे॥वली ज्ञान विमलादिगुणरत्नधामा, नमूं ते सदा सिमचक्र प्रधाना ॥४॥ मालिनीवृत्तम् ॥ श्म नवपद ध्यावे, परम आनंद पावे, नवजव शिव जावे, देव नरजव पावे ॥ झान विमल गुण गावे, सिमचक्रप्रनावें, सवि उरित समावे, विश्व जयकार पावे ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ ढाल, उलालानी देशी॥ श्छारोधन तप नमो, बाह्य अप्रिंतर नेदें जी ॥ श्रातमसत्ता एकता, पर परणति उबेदें जी ॥१॥ उलालो ॥ उछेद कर्म अनादि संतति, जेह सिकपणूं वरे ॥ योगसंगें श्राहार टाली, जाव अक्रियता करे ॥ अंतर मुहरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी ॥ निज आत्मसत्ता प्रगट नावें, करो तप गुण श्रादरी ॥२॥ ॥ ढाल ॥श्म नवपद गुणमंमलं, चल निकेप प्र. माणे जी ॥ सात नये जे श्रादरे, सम्यक्झाने जाणे जी ॥३॥ उलालो ॥ निारसेंती गुणी गुणनो, करे जे बहु मान ए ॥ तसु करण ईहा तत्त्व रमणे, थाय निर्मल ध्यान ए ॥ श्म शुझसत्ता जल्यो चेतन, सकल सिछि अनुसरे ॥ अक्षय अनंत महंत चिद् घन, परम आनंदता वरे ॥४॥ ॥ कलश ॥ श्य सयल सुखकर गुणपुरंदर, सिक चक्र पदावली ॥ सवि लझिविजासिधिमंदर, नविक पूजो मन रुली ॥ उवकायवर श्रीराज सागर, ज्ञान धर्म सुराजता ॥ गुरु दीपचंद सुचरण सेवक, देवचंद सुशोजता ॥१॥इति कलश ॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी॥ जा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ता त्रिहुं ज्ञानें संयुत, ते जवमुगति जिणंद ॥ जेह यादरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरु कंद रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४१ ॥ कर्म निकाचित पण खय जाई, क्षमा सहित जे करतां ॥ ते तप नमियें जेह दीपावे, जिन शासन उजमंतां रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४२ ॥ खामोसही पमुहा बहु लद्धि, होवे जास प्रजावें ॥ श्रष्ट महासिद्धि नव निधि प्रगटे, नमियें ते तप जावें रे ॥ ज०॥ सि० ॥ ४३ ॥ फल शिवसुख महोढुं सुर नरवर, संपति जेहनुं फूल ॥ ते तप सुरतरु सरिखुं वंदूं, शममकरंद मूल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४४ ॥ सर्व मंगल मांहि पहेलुं मंगल, वरणवियें जे ग्रंथें ॥ ते तप पद त्रिहुं काल नमीजें, वर सहाय शिवपंथें रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४५ ॥ इम नवपद थुणतो तिहां लीनो, दुर्ज तन्मय श्रीपाल ॥ सुजसविलास बे चोथे खंदें, इग्यारमी ढाल रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ ४६ ॥ एह ॥ ढाल ॥ इवारोधें संवरी परिणति समता योगें रे ॥ तप ते एहि आतमा, वर्ते निजगुण जोगें रे ॥ वी० ॥ १० ॥ आगम नोयागम तणो, जाव ते जाणो साचो रे ॥ श्रातम जावें थिर होजो, परजावें मत राचो रे ॥ वी० ॥ ११ ॥ ष्ट सकल समृद्धिनी, २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) घटमांहि रुद्धि दाखी रे ॥ तिम नवपद द्धि जाण जो, तमराम बेसाखी रे ॥ वी० ॥ १२ ॥ योग असंख्य वे जिन कह्या, नव पद मुख्य ते जाणो रे || एह तणे अवलंबनें, आतमध्यान प्रमाणो रे ॥ ॥ वी० ॥ १३ ॥ ढाल बारमी ए हवी, चोथे खंकें पूरी रे ॥ वाणी वाचक जस तणी, कोइ नयें न अधूरी रे ॥ वी० ॥ १४॥ इति नवपदपूजा समाप्ता ॥ ॥ अथ काव्यम् ॥ द्रुतविलंबितं वृत्तम् ॥ विमलके - वलनासनजास्करं, जगति जंतुमहोदयकारणम् ॥ जिनवरं बहुमानजलौघतः, शुचिमनाः स्नपया मि विशुद्धये ॥ १ ॥ इति काव्यम् ॥ या काव्य, प्रत्येक पूजादी कहेतुं ॥ ॥ स्नात्र करतां जगत्गुरु शरीरें, सकल देवें विमल कलश नीरें ॥ श्रापणा कर्ममल दूर कीधां, तेणें ते विबुध ग्रंथें प्रसिद्धा ॥ २ ॥ हर्ष धरि अप्सरावृंद श्रावे, स्नात्र करिएम आशीष पावे ॥ जिहां लगे सुर गिरि जंबुदी वो, छाम तथा नाथ देवाधिदेवो ॥३॥ ॥ इति श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायकृत नव पदपूजा संपूर्णा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ॥ अथ नवपदकाव्य प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथमं अरिहंतपदकाव्यम् ॥ ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ नियंतरंगा रिंगणे सुनाणे, सप्पा डिहेराइसय पहाणे ॥ संदेह संदोहरयं हरंतो, जाएह निश्चपि जिणेरहंतो ॥ १ ॥ ॥ श्री सिद्धपद काव्यम् ॥ ॥ शुकम्मावरण पमुक्के, अनंतनाणाइसिरीचउक्के ॥ समग्गलोगग्गपयन्त्र सिद्धे, जाएह निच्चं पि समग्गसिद्धे ॥ २ ॥ ॥ श्री आचार्य पद काव्यम् ॥ ॥ सुतवसंवेगमयं सुयेणं, संनीरखीरामय वीसुयेणं ॥ पीनंति जे ते जवजायराये, कायेह निच्चं पि पाये ॥ ३ ॥ ॥ श्रीउपाध्यायपदकाव्यम् ॥ ॥ ननंसुदं दहि पीया न माया, जे दंति जिव्हा न्हि सूरी सपाया ॥ तम्हाहु ते चेव सया जजेह, जंमुरक सुरकाएं लहुं लदेह ॥ ४ ॥ ॥ श्री साधुपद काव्यम् ॥ ॥ खंते य दंते य सुगुत्तिगुत्ते,मुत्ते य संते गुण जोग For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जुत्ते ॥ गयप्पमाए गयमोहमाए, काएह निच्चं मुणि रायपाए ॥५॥ ॥ श्रीसम्यग्दर्शनपदकाव्यम् ॥ ॥ जं दवबिकाएसु सद्दहाणं, तं दंसणं सवगुण प्पहाणं ॥ कुग्गहि वाहीउवयंति जेणं, जहा विधेण रसायणेणं ॥६॥ ॥श्रीसम्यग्ज्ञानपदकाव्यम् ॥ ॥ नाणं पहाणं नयचक्कसिहं, ततवबोही कमयं पसिहं ॥ धरेह चित्तावसए फुरंतं, माणिकदी बत मोहरंतं ॥ ७॥ ॥श्रीचारित्रपद काव्यम् ॥ ॥ सुसंवरं मोहनिरोधसारं, पंचप्पयारं विगमा यारं ॥ मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं,पालेह निच्चं पि हु सचरित्तं ॥७॥ ॥श्रीतपपद काव्यम् ॥ ॥ बनं तहा निंतरनेयमेयं, कयाय उजे य कुकम्म नेयं ॥ उरककयु कयपावनासं, तवेण दहाग मयं निरासं ॥ ए॥ इति नवपदकाव्यं संपूर्णम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) श्रीमदानंदविजयजीवात्मारामजीकृत विशतिस्थानकपूजाप्रारभ्यते. ॥ तत्र ॥ ॥प्रथम अरिहंतपदपूजाप्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥समरस रसजरअघहर,करम नरम सब नास ॥ कर मन मगन धरम धर, श्रीशंखेश्वर पास ॥१॥ वस्तु सकल प्रकाशिनी, नासिनि चिद्घनरूप ॥ स्यादवाद मतकाशिनी, जिनवाणी रसकूप ॥२॥ बठे अंग आवश्यकें, वीश निमित्त विधान ॥ ते साधे जिनपद लहे, अजर अमरकी खान ॥३॥जिनगणधर वाणी नमी, आणी नाव उदार ॥ विंशति पद पू. जन विधि, कहिशुं विधि विस्तार ॥४॥ विंशति त. प पद सारिखी, करणी अवर न कोय ॥ जो नवि साधे रंगशु, अनिरूपी होय ॥५॥ क्रमसे पीठ त्रिकोपरें,थापी जिनवर वीश ॥ सामग्री सहु मेलिने, पूजे त्रिजुवन ईश ॥६॥ एक एक पद पूजिये, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) पंच अष्ट सत्तार ॥ द्रव्यार्चनविधि जाणियें, इगविस विधि विस्तार ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ दो नयणांदा मारया मरजादा परदेशी डा ॥ ए देश ॥ ॥ ॥ अरिहंत पद मनरंग, चिदानंद अरिहंत पद० ॥ ए यांकणी ॥ चिदानंदघन मंगलरूपी, मिथ्यातिमिर दिणंद ॥ चि० ॥ ० ॥ १ ॥ चौतिस अतिशय पैतिस वाणी, गुण बारे सुखकंद ॥ चि० ॥ श्र० ॥ २ ॥ महागोप महामाहण कहियें, काटे नव जव फंद ॥ चि० ॥ ० ॥ ३ ॥ निर्यामक सबवाह जणी - जें, जवि चकोर मनचंद ॥ चि० ॥ ० ॥ ४ ॥ चार निक्षेप रूप जग रंजन, जंजन करम नरिंद ॥ चि०॥ ० ॥ ५ ॥ अवर देव वामा वश कीने, तूं निकलंक महिंद ॥ चि०॥० ॥ ६ ॥ ज्ञायक नायक शुजगति दायक, तुं जिन चिदुघन वृंद ॥ चि० ॥ ० ॥ ७ ॥ देवपाल श्रेणिक पद साधी, अरिहंत पद निपजंद ॥ चि० ॥ ० ॥ ८ ॥ सर्व शिवंकर ईश निरंजन, गत कलिमल सब धंद ॥ चि० ॥ ० पंच कल्याणक जगमें, करे उद्योत ० ॥ १० ॥ श्रतम निर्मल जाव त्रिभुवन इंद ॥ चि० ॥ ॥ ॥ जिनके मंद ॥ चि०॥ करीने, पूजो ० ॥ ११ ॥ इति ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) ॥ काव्यं ॥ पुतविलंबितवृत्तम् ॥ अतिशयादिगुणाधिवदान्यकं, जिनवरेंअपदस्य निदानकम्॥निखि लकर्मशिलोच्चयसूदनं,कुरुतविंशतिसंपदपूजनम्॥१॥ मंत्रः ॥ ही श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म जरामृत्युनिवारणाय श्रीमते अर्हतेजलादिकं यजामहे खाहा ॥था काव्य,तथा मंत्र,प्रत्येक पूजादी कहेवा. ॥अथ द्वितीय सिझपदपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ तनु त्रिजाग दूरे करी,घन स्वरूप अघनाश॥ज्ञान वरूपी अगमगति, लोकालोक प्रकाश ॥१॥ श्रदर अमर अगोचरा, रूप रेख विन लाल ॥ जे पूजे सो नवि लहे, अरहन पद उजमाल ॥२॥ ॥कान्हा में नहि रहेणारे,तुमचेरेसंगचलुगए देशी॥ ॥सिक अचल आनंदी रे,ज्योतिमें ज्योति मिली। ए आंकणी ॥ श्रज अलख अमूरति रे, निज गुण रंग रखी ॥ सि ॥१॥ शिव अजर अनंगी रे, करमको कंद दली॥ सि॥२॥ समय एकमें त्रिपदी रे, नास थिर आविर वली ॥ सि॥३॥छजु एक समय गतिका रे, अनंत चतुष्टय मिली ॥ स० ॥ ४ ॥ गुण श्क त्रिश धारी रे, निर्मल पाप गली ॥ सि ॥ ५॥ त्रिहुं कालके देवा रे, सब सुख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) मेल मिली ॥ सि ॥ ६॥ गुणानंत करीजें रे, वर गित वरग वली ॥ सि ॥७॥ नन एक प्रदेशे रे, सब सुख पुंज जिली ॥ सि ॥ ७ ॥ लोकालोक न मावे रे, जिनवर तत्र चली ॥ सि ॥ए ॥ बंधन बेद असंगा रे, पूर्व प्रयोग फली ॥ सि० ॥ १० ॥ गति करण निदाना रे, सुमति संग नली ॥ सि ॥ ॥११॥ हस्तिपाल श्राराधी रे, जिनपद सिक तुली ॥ सि० ॥ १५ ॥ प्रजु आत्मानंदी रे, पूजत कुमति टली ॥ सि ॥ १३ ॥ काव्यं ॥ अतिशया ॥ मंत्रः ॥ ॐ ही श्री पर०॥ सिकाय जला॥य॥इति॥२॥ ॥अथ तृतीय प्रवचनपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥त्रीजे प्रवचनपूजियें,करी कुमतिसंग दूर॥ मिथ्या मत टाली सवे, जन्म मरण मुख चूर ॥१॥ जाव रोगकी औषधी, अमृतसिंचनहार ॥ जव जय ताप निवारिणी, अरिहंत पद फलकार ॥२॥ ॥राग वढंस ॥ प्रवचन पद जवपार उतारे, पूजो नवि मनरंग रे ॥ प्रव० ॥ ए आंकणी ॥ अमृत रस नरी ध्याने, चिदघन रंग रंगील रे ॥ कुमति जाल सब बिनकमें जारे, प्रगट अनुजव लील रे ॥ प्र० ॥१॥ तीनशो साठ तीन (३६३ ) मतधारी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) जगमें तिमिर ज्ञान रे ॥ जो जिनवचन सूर तम नाशक, जासक अमल निधान रे ॥ प्र० ॥ २ ॥ सतजंगी नय सप्त सुहंकर, युक्तमान दोय सार रे ॥ षडजंगी उत्सर्गादिकनी, अडपक्ष सम्यककार रे ॥ प्र० ॥ ३ ॥ प्रवचनाधार संघ जग साचो, जिन पूजे जवपार रे || अरिहंत धर्म कथानक अवसर, करत प्रथम नमोकार रे ॥ प्र० ॥ ४ ॥ प्रवचन अमृत जलधर वरसे, जमिन अधिक उल्लास रे ॥ कुमति पंथ अंधजन जेते, सूकत जेसें जवास रे ॥ प्र० ॥ ५ ॥ संजव नरपति प्रवचन साधी, तीर्थंकर पद स्थान रे ॥ पंच अंग ताली सदगुरुकी, प्रवचन संघ निधान रे ॥ प्र० ॥ ६ ॥ श्रात्म अनुभव रत्न सुदंकर, अच रघ पद खान रे ॥ जो जवि पूजे मन तन शुझें, अरिहंत पदको निदान रे ॥ प्र० ॥ ७ ॥ काव्यं ॥ अतिशया० ॥ मंत्रः ॥ ॐ की श्री पर० ॥ श्रीप्रवचनाय जलादिकं० ॥ य० ॥ इति तृतीय प्रवचनपद पूजा ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ सूरिपदपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ चोथे पद सूरी नमो, चरण करण पद धार ॥ सारण वारण नोदना, प्रतिनोदन करतार ॥ १ ॥ षट् त्रिंशत गुण शोजता, संपत षट् पंचास ॥ ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) मेढी सम जिनशासने, नवि पूजे सुखराश ॥२॥ ॥अपने रंगमें रंग दे,हेरी हेरी लाला, अपने रंगमें रंग दे ॥ ए आंकणी ॥ पांच आचार अखंमित पाले, जन्म मरण उख जंग दे ॥ हेरी० ॥ १॥ पंच प्रस्थान जे मंत्र रायकों, स्मरण करे मन रंग दे॥ हे री० ॥॥ आठ प्रमाद तजे उपदेशें, शिवरमणी सुख मंग दे ॥ हेरी० ॥३॥ चार अनुयोग सुधारस धारे, धरम करन उमंग दे ॥ हेरी॥४॥ सातहि विकथा दूर निवारी, मोह सुनट संग जंगदे॥ हेरी ॥५॥ श्रुतके सातो अंग रंगीले, मुज हृदयेमें टंक दे॥ हेरी॥६॥ पुरुषोत्तम नृप जिनपद लीनो,श्रात्मराज शिव चंग दे॥ हेरी०॥७॥ काव्यम् ॥ अति श० ॥ मंत्रः ॥ ॐ ही श्री पर० ॥ श्रीसूरये जला दि यजा ॥ इति चतुर्थ सूरिपद पूजा ॥४॥ ॥अथ पंचम थिविर पद पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥परम संगीरंगीनहि,झायक शुक्रवरूप॥जवि जन मन थिर करनकों,जय जय थिविर अनूप॥१॥ __॥ तुमरी मध्य हिंऽस्थानी ॥ मत जानां उनमार्ग तनू मन, दाखत सुगुरु सुगुण वतियां रे ॥ ए देशी ॥ ॥ थिविर सुहंकर पदकज प्रजी, तीर्थंकर पद मु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) ख गतियां रे ॥ थि॥१॥ निगमिग मिगमिग मन चंचल हय, धरम करे फिर चित्त रतियां रे ॥ थि॥ ॥२॥ सूत्र थिविर वय व्रत परिणामें, जाने समवा. यांग वतियां रे ॥ थि० ॥३॥ साठ वरस व्रत वरस वीसमे, थिर परिचित शुरू बुद्ध मतियां रे थिन ॥४॥ दश विध अंग तीसरे वरने, थिविर गृहे इह जिन व्रतियां रे ॥ थि० ॥ ५॥ वंदन पूजन नमन करन मति, नक्ति करे शुद्ध पुण्य रतियां रे ॥ थिन ॥६॥ पद्मोत्तर नृप इह पद सेवी,आत्म अरिहंत पद वतियां रे॥ थि॥७॥ काव्यं ॥अतिश० ॥ मंत्रः ॥ॐ ही श्री प०॥ थिविराय ज०॥ यः॥इति ॥५॥ ॥अथ षष्ठपाठकपदपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा ॥ स्यादवाद नयपंथमें,पंचानन बल पूर ॥ पुर्नय वादी वंदने, करे बिनकमें दूर ॥१॥ पठन करावे शिष्यने, स्व पर सत्तातूर ॥ मिथ्या तिमिर विनाशनें, जय जय पाठक सूर ॥२॥ ' ॥राग खमाच ॥ वीतरागकों देख दरस, सुविधा मोरी मिट गरे॥ वि०॥ए देशी॥पाठक पद सुख चेन देन, वस अमीरस नीनो रे ॥ पाठक० ॥ ए आंकणी ॥ वपर रूप विकासीचंद, अनुनव सुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ___ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) तरु केरो कंद ॥ स्यादवाद मुख उचरे बंद, जिन व. चरस पीनो रे ॥ पा० ॥ १॥ कुमति पंथतम नाशक सूर, सुमति कंद घनवर्धन पूर ॥ दे उपदेश संत रस नूर, अघ सब दय कीनो रे ॥ पा॥२॥त्रीजे नव शिवरमणी चंग, चरण करण उपदेशक रंग ॥ कर्म निकंदन करण जंग, सुर असुर पूजीनो रे ॥ पा ॥ ॥३॥ हय गय वृषन सिंह सम कीन,उपेंज अचकी दिन इन ॥ चंडमारी उपमा दीन,नग मेरु करी. नो रे ॥ पा० ॥ ४ ॥ जंबू सीतासरित वखान, चरम जलधि तिम गुण मणि खान ॥ षोडश उपमा करी विधान, बहुश्रुत जस लीनो रे ॥ पा ॥५॥ अवगुण चौदे दूर करीन, पन्नर गुणकारी शिष्य पीन ॥ सरस वचन जिम तंत्री वीन, निज गुण सब चीनो रे ॥ पा० ॥ ६ ॥ महेंउपाल पद सेवी सार, तीर्थकर पद लीनो सार ॥ मदन जरमकों जार जार, श्रात्मरस नीनो रे॥पा ॥७॥ काव्यं ॥ अतिश॥मंत्रः॥ ॐ की श्री परम ॥ पाठकाय ज० ॥ यति ॥६॥ ॥अथ सप्तम साधुपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥तजी विनाव खनावता,रमता समता संग ॥ विशदानंद खरूपता, लाग्यो अविहड रंग ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) माने जग त्रिहुं कालमें, मुनि कहियें तस नाम ॥ साधे शुद्धानंदता, साधु नाम अभिराम ॥ २॥ ॥ इंग्रेजी बाजानी चाल ॥ मुणिंद चंद ईश मेरे, तार तार तार ॥ ज्ञानके तरंग जंग, सात जास कार ॥ मु० ॥ १ ॥ संतके महंत मुनि, साध कृषि धार ॥ यति व्रती संजमी है, जगत्को आधार ॥ मु०॥ ॥ २ ॥ नवविध जावलोच, केश दशकार ॥ अनंग रंग जंग संग, सुमतिचंग नार ॥ मु० ॥ ३ ॥ सप्त चाली दोष टाली, लेत हे आहार ॥ सातवीश गूण धार, श्रातमा उजार ॥ मु० ॥ ४ ॥ पंचही प्रमाद के, कल्लोल लोल जार ॥ संसारनीरनिधि पोत, ज्योति ज्ञानसार ॥ मु० ॥ ५ ॥ पार करे संत अंत, कर्मका निहार ॥ ब्रह्मचर्य धार वाड, नवरंग लार ॥ मु०ि ॥ ६ ॥ वीरन साधु सेव, जिनपद सार ॥ आतम उमंग रंग, कुगुरु संग बार ॥ मु०ि ॥ ७ ॥ काव्यं ॥ ति० ॥ मंत्रः ॥ ॐ ॐ श्री परम० ॥ साधवे जला० ॥॥॥० ॥ इति सप्तम साधुपद पूजा ॥७॥ ॥ अथाष्टम ज्ञानपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥दोहा॥ निजस्वरूपके ज्ञानसें, परसंग संगत बार ॥ ज्ञान आराधक प्राणिया, ते उतरे जव पार ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) ॥ लागी लगन कहो केसे बूटे, प्राणजीवन प्रजु प्यारेसें ॥ ला ॥ ए देशी ॥ ॥रागनेरवी॥ कान सुहंकर चिदघन संगी, रंगी जिनमत सारेमें ॥रंगी० ॥ ज्ञान॥१॥ पांच एकावन नेद ज्ञानके, जडता जग जन टारेमें ॥ जड० ॥ ज्ञान० ॥२॥ नद अनद विवेचन कीनो, कुमति रंग सब बारेमें ॥ कु० ॥झान ॥३॥ प्रथम ज्ञानने पळी अहिंसा, करम कलंक निवारेमें ॥ कर ॥ झान ॥४॥ सदसदनाव विकाशी ज्ञानी, उर्नय पंथ विसारेमें ॥ उर्न ॥ ज्ञान ॥ ५॥ अज्ञानीकी करणी एसी, अंक विना शून्य सारेमें ॥ अंक ॥ झान ॥ ६ ॥ मति श्रुत अवधि मनःपर्यव हे, केवल सर्व उजारेमें ॥ केव० ॥ ज्ञान ॥७॥ अज्ञानी वर्ष एक कोटिमें, करम निकंदन नारेमें ॥ कर० ॥ झान ॥ ॥ ज्ञानी श्वासोवास एकमें, इतने करम विमारेमें ॥ श्त ॥ ज्ञान॥ ए॥ जरतेश्वर मरुदेवी माता, सिकि वरे पुःख जारेमें ॥ सि ॥ ज्ञान ॥ ॥ १० ॥ देशविराधक सर्वाधारक, जगवती वीर उजारेमें ॥ ज०॥ ज्ञान ॥ ११॥ जयंत नरेश्वर यह पद साधी, आतम जिनपद धारेमें ॥ श्राप ॥ ज्ञा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) न० ॥ १२ ॥ काव्यं ॥ श्रतिशया० ॥ मंत्रः ॥ ॐ झी श्री परम० ॥ ज्ञानाय जला० ॥ य० ॥ इति ॥८॥ ॥ अथ नवम दर्शनपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ तत्त्व पदारथ नव कहे, महावीर जगवान ॥ जो सर सद्भाव सें, सम्यग्दर्शी जान ॥ १ ॥ श्रद्धा विण नहि ज्ञान हे, तद विण चरण न होय ॥ चरण विना मुक्ती नही, उत्तरायणे जोय ॥ २ ॥ ॥ निशिदिन जोखुं वाटडी, घेर श्रावो ढोला ॥ ए देशी ॥ राग परज ॥ दर्शन पद मनमें वस्यो, तब सब रंग रोला || जगमें करणी लाख बे, एक दर्श अमोला || द० ॥ १ ॥ दर्शन विष करणी करी, एक कोडी न मोला || देव गुरु धर्म सार है, इनका क्या मोला ॥ ० ॥ २ ॥ दर्शन मोहनी नाशसें, अनुजव रस घोला ॥ जिन दर्शन पूजन करे, एही हर्ष कल्लोला ॥ ० ॥ ३ ॥ सम संवेग निर्वेदता, या स्ति करुणा तंबोला ॥ इन लक्षणसें मानियें, समकित रस चोला || द० ॥ ४ ॥ एक मुहूरत फरसीयें, दर्शन सुख मोला || निश्चय मुक्ती पामियें, जिनवर एम बोला || द० ||५|| इग डुग ती च सर दसे, सतसह भेद तोला || दर्शन पायो सिऊंनवें, देखी प्रतिमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) श्रमोला ॥ द०॥६॥हरिविक्रम नृप सेवना, अंतर दृग खोला ॥आतम अनुजव रंगमें, मिटे वनका कोला॥ द० ॥७॥ काव्यं ॥ अतिशया ॥ मंत्रः॥ ॐ ही श्री परम० ॥ दर्शनाय जला॥य॥ इतिाणा ॥ अथ दशम विनयपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥गुण अनंतको कंद हे,विनय जुवन सिंगार ॥ विनयमूल जिनधर्म हे, विनयिक धन अवतार॥१॥ पांच नेद दल तेरसा, बावन बासठ मान ॥ श्रागममें वीनय तणा, नेद कह्या जगवान ॥२॥ ॥ एकेली जानसें, में तो कुःख सह्योरी॥ ए देशी॥ ॥ सखी में तो विनय पिगना री, अनंतें कालसें ॥ सम्॥०॥१॥तीर्थंकर सिक कुलगणसंघा, किरिया धर्म सुझानारी ॥ स ॥ अम् ॥२॥झानी सूरी थिविर पाठक, गण। पद तेरा विधानारी ॥ स० ॥ अ॥३॥ अनाशातना नक्ति सुहंकर, अतिमान गुण गाना री ॥ स० ॥ १० ॥ ४ ॥ दोय सदसने चिहुत्तर अधिके, वंदन देव विधाना री॥ स० ॥ अ० ॥ ५॥चारसो बावन गुरुवंदन विधि, विनयी जन चित्त थानां री ॥स०॥०॥६॥ जिन वंदन हित अति जारी, उर्गति नाश करनां री॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) साथ॥७॥श्रका नासन तत्त्व रमणता, विनयी कार जगानां री ॥स० ॥ अ० ॥ ॥ धन्ना एह पद विधिशुंसेवी, श्रात्मरंग नरानां रीसा ॥ ए॥ काव्यम् ॥ अतिश० ॥ मंत्रः॥ ॐ ही श्री पर॥ विनयाय ॥ जला ॥ यजाम ॥ इति ॥ १० ॥ ॥ अथैकादश चारित्रपद पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ चरण शरण जवजल तरण, चरण शरण सुख सार॥रंक महंत करे सही,सुरवर सेवाकार॥१॥ तीन जगतपति पद दिये,खादिक गुण गाय ॥ कविमल पंकपखारना, जय जय संयम राय ॥२॥ ॥लगीलो नानिनंदनशं, लगीलो ॥ ए देशी॥ ॥राग सोरठ॥चरण पद मनरंग ॥ रे जीया ॥च॥ ए आंकणी ॥ आठ कर्मका संचकों जे, रिक्त करे - य नंग ॥च०॥चारित्र नाम निरुक्तं मान्यो, शव रमणीको संग ॥रे जी० ॥ च ॥१॥ षट्रखंमकेलं राज्य जेहनें,रमणी जोग उतंग॥चक्री संजम रसमें तीनो, चिद्घन राज अनंग ॥रे जी० ॥ च ॥२॥ बारे कषाय जरे जब कीनी, प्रगटे संयम चंग ॥ आठ कषाय गये अणुविरती, चारित्र मोह विरंग॥ रे जी० ॥ च ॥३॥ वर्ष संयमके सुखकी श्रेणी, Jain Educationa Rernational For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) अनुत्तर सुर सुख चंग ॥ तत्त्व रमणता संयम विप नहि, समर मर अनंग ॥ रे० जी० ॥ च० ॥ ४ ॥ वरुण देव संयम पद साधी, अरिहंत रूप असंग ॥ श्रातमानंदी सुरनर वंदी, प्रगट्यो ज्ञान तरंग ॥ रे जी० ॥ च० ॥ २ ॥ काव्यम् ॥ अतिश० ॥ मंत्रः ॐ श्री परम० ॥ चारित्राय जला० ॥ यजा० ॥ ११ ॥ ॥ अथ द्वादश ब्रह्मचर्यपद पूजा ॥ ॥दोहा॥कामकुंज सुरतरु जणी, सब व्रत जीवन साकामित फलदायक सदा, जव दुख जंजनहार ॥१॥ तारागण में उमुपति, सुरगण में जिम इंद ॥ विरति सकल मुख मंगना, जय जय ब्रह्म थिरिंद ॥ २ ॥ ॥ मध्यरात्रि समयकी, श्याम नेक दया मोसें न करी, नेम नेक० ॥ ए देशी ॥ ॥ राग सोरठी ॥ श्याम ब्रह्म सुहंकर लख री ॥ श्याम०॥ श्रांकण ॥ कुमति संग सब शुधबुध मूली, अनुभव रस छाव चख री ॥ श्याम० ॥ १ ॥ नव वाडें शुद्ध ब्रह्म आराधे, अजर अमर तुं अलख री ॥ श्याम० ॥ २ ॥ श्रदारिक सुर कामजालसें, अपने आपकों रख री ॥ श्याम० ॥ ३ ॥ सिंहादिक पशु य सब नाशे, ब्रह्मचर्य रस चख री ॥ श्याम० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) ॥५॥ विजयशेठ विजया गुणवंती, सुदर्शन काम कख ॥ श्याम ॥५॥ दशमे अंगें बत्रीश उपमा, ब्रह्मचर्यकी दख री॥श्याम ॥६॥ श्रातम चंडवर्म नरवर ज्यु, अरिहंत पद सुख अख री॥ श्याम ॥७॥ काव्यम् ॥ अतिशया ॥ मंत्रः ॥ ॐ ही श्री परम ॥ ब्रह्मचर्याय जला ॥ यजाम ॥इति॥१॥ ॥अथ त्रयोदश क्रियापद पूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥चिद् विलास रस रंगमें,करे क्रियानवि चंग ॥ करम निकंदन यश नरे, उबले ज्ञान तरंग ॥१॥ आगम अनुसारी क्रिया,जिनशासन आधार ॥प्रवर ज्ञान दर्शन लहे, शिवरमणी जरतार ॥२॥ ॥ फलवर्षी पारसनाथ, प्रज्जुकों पूजो तो सही॥ ए देशी ॥ राग माढ ॥ थारी गरे अनादि निंद, जरा ट्रक जोवो तो सही ॥ जोवो तो सही मेरा चेतन जोवो तो सही ॥थारी० ॥ ए श्रांकणी ॥ ज्ञान संग किरिया पुःखहरणी,जोवो तो सही ॥ मेरा चेतन नेवो तो सही ॥ एह धर्म शुक्ल शुफ ध्यान हृदयमें, प्रोवो तो सही ॥मे ॥था॥१॥श्रा रोजनी पणवीस क्रिया, खोवो तो सही ॥ मे ॥ अनुजव समरस सार जरा तुम्म, टोवो तो सही ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) मे० ॥ था० ॥ २ ॥ ड दिट्ठी समता जोगनी कि रिया, ढोवो तो सही ॥ मे० ॥ प्रथम चार तजी चार ग्रही पर, होवो तो सही ॥ मे० ॥ था० ॥ ३॥ समतिकी करणी दुःखहरणी, लेवो तो सही ॥ मे० ॥ टुक दूर नय पंथ विकार ज्ञान रस, गावो तो सही ॥ मे० ॥ था० ॥ ४ ॥ अंतर तत्त्व विषय म न प्रीति, बोवो तो सही ॥ मे० ॥ एह ज्ञान क्रिया निज गुण रंग राची, थोवो तो सही ॥ मे० ॥था० ॥ ५॥ अशुभ ध्याननां थानक त्रेशठ, खोवो तो सही ॥ मे० ॥ पुण्यानुबंधी पुण्य बीज टुक, बोवो तो सही ॥ ० ॥ ० ॥ ६ ॥ क्रोध मान माया जडता संग, धोवो तो सही ॥ मे॥ एह हरिवाहन यातम रस चाखी, मेवो तो सही ॥ मे० ॥ था० ॥ ७ ॥ काव्यम् ॥ ति० ॥ मंत्रः ॐ ही श्री परम० ॥ क्रि या फ० ॥०॥ इति त्रयोदश क्रिया पद पूजा ॥ १३ ॥ ॥ श्रथ चतुर्दशतपपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ उपशम रस युत तप जलु, काम निकंदन दार॥ कर्म तपावे चीकणां, जय जय तप सुखकार ॥१॥ ॥ राग बिहाग ॥ युं सुधरे रे सुज्ञानी, अनघ तप ॥ ० ॥ एकणी ॥ कर्म निकाचित बिनकमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) जारे, निदंन तप मन आनी ॥ १०॥ १॥ अर्जुन माली दृढप्रहारी, तपशुं धरे शुज ध्यानी ॥ अ० ॥ ॥२॥ लाख अग्यारह एंशी हजारह, पंच सय गिने हानी ॥०॥३॥ इतने मास उमंग तप कीनो, नंदन जिनपद वानी ॥ अ०॥४॥ संवत्सर गुणरत्न पीनो, अतीमुक्त सुख खानी ॥ १० ॥५॥ चौद सहस मुनिवरमें अधिको, धन धन्नो जिनबानी ॥ श्र० ॥६॥ कनककेतु तप शुध पद सेवी, श्रातम जिनपद दानी ॥ अ०॥७॥ काव्यम् ॥अतिश०॥ मंत्रः॥ ही श्री परम॥ तपसे जलागाय॥१४॥ ॥अथ पंचदश दानपदपूजा प्रारंजः॥ ॥दोहा॥ दानें नवसंकट मिटे, दाने आनंद पूर॥ दानें जिनवर पद लहे, सकल जयंकर चूर ॥१॥ श्र जय सुपातर दान दे, निस्तरिया संसार ॥ मेघ सुमुख वसुमति धना, कहत न आवे पार ॥२॥ रच्यो सिरि वृंदावन, रास तो गोविंद रच्यो ॥ ए देशी ॥ राग जंगलो ॥ दानतो अनंग दीजें,मन धरी रंग ॥ दान तो॥ ए आंकणी ॥खान तो अमर अज, सुख तो अनंग ॥ गौतम रतनसम, पात्र सुरंग ॥ दान तो ॥१॥ कनक समान मुनि, पात्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) उत्तंग॥ देशविरतिपात्र रौप्य, मध्यम सुमंग ॥दा॥ २॥ समदर्शी जीव मानो, जघन तरंग ॥ कांस्य पात्र पात्रसम, सुख दे निरंग ॥ दा॥३॥ शालिजअ कृत पुन्ना, धन्ना शुलचंद ॥ दानसें अनंत सुख, कहत जिणंद ॥ दा॥४॥ दानसें हरिवाहन लीनो, जिनपद संग ॥आतम यानंद कंद, सहज उमंग ॥ दाम् ॥५॥ काव्यम् ॥ अतिश०॥ मंत्रः॥ उँ की श्री परणादानाय जला॥ यजाम॥ति ॥१५॥ ॥अथ षोडश वैयावृत्त्यपदपूजाप्रारंजः॥ .. ॥दोहा॥वेयावच्च पद सोलमें, अखिल विमल गुण खान॥ए अप्रतिपाती खरो, आगमकथित निदान ॥ ॥१॥ जिनसूरी पाठक मुनि, बालक वृक्ष गिलान ॥ तपी संघ जिनचैत्यनु, वेयावच्च विधान ॥ ॥ गिरनारीकी पहाड़ी पर केसे गुजरी॥गिर॥ ए देशी ॥राग तुमरी ॥ शुरु वेयायच्च करि जिनपद वर री॥ शुरु ॥ ए श्रांकणी ॥ तीर्थंकर केवलि मनपर्यव, अवधि चतुर्दश पुवधरी री॥ शुरु ॥१॥ दशपूर्वी उत्कृष्ट चरणधर, लब्धिवंत ए जिन सगरी ॥ शुरु ॥२॥ जिनमंदिर जिन चैत्य करावे, पूजा करे मन तनु सुधरी ॥ शुरु० ॥३॥दशमे अंगें जि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३ए) नवर लाखे, कुमति कुसंग सब उर जगरी ॥ शुद्ध ॥४॥ नवपद शेष सूरीश्वर श्रादि, वैयावृत्त्यकर उवि जगरी ॥ शुरु ॥ ५॥ सतपंच मुनिनुं वेयावच्च करीने, जरत बाहुल शिव मगरी ॥ शु० ॥ ६ ॥ नृप जिमूतकेतु पद साधी, श्रातम जिन पद रस गगरी ॥ शु०॥७॥ काव्यम्॥श्रतिश० ॥ मंत्रः॥3 ही श्री ॥ परम वैयावृत्त्याय जला०॥ यजाण ॥१६॥ ॥अथ सप्तदश समाधिपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥नीजातम गुण रमणता,इंघिय तजी विकार॥ थिर समाधि संतोषमें, जव फुःखजंजनहार॥१॥ ॥मानो ने चेतनजी मारीवात मानो ने॥ए देशी॥ ॥राग खमाच ॥राचो रे चेतनजी मन शुरू लाग ॥ राचो० ॥धारो धारो समाधि केरो राग ॥राचो०॥ ॥१॥ या संग नाश कह्यो नववनको, अब क्युं सरको नाग ॥ राचो ॥२॥ अव्यसमाधि नाव समाधि, सुमति केरो सुहाग ॥ राचो ॥३॥ अशन वसनसे नक्ति संघकी, अव्यसमाधि अथाग॥ ॥राचो० ॥ ४ ॥ सारण वारण चोयण करनी, पुतिय समाधी, जाग ॥ राचो ॥५॥ सकल संघकू सुविध समाधि, निपजावे महानाग ॥ राचो ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) पंच सुमतितिन गुप्ति धरे नित, निशिदिन धरत विराग ॥ राचो० ॥ ७ ॥ चार निक्षेप नय सप्तनंगी, कारण पंच निराग ॥ राचो० ॥ ८ ॥ चार प्रमाण द्रव्य षट मानें, नव तत्त्व दिलमें चिराग ॥ राचो० ॥ ए ॥ सामायिक नव द्वार विचारी, निज सत्ताको विजाग ॥ राचो० ॥ १० ॥ पुरंदर नृप ए पद सेवी, तम जिनपद माग ॥ राचो० ॥ ११ ॥ काव्यम् ॥ अतिश० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम० ॥ समाधये ज० ॥ य० ॥ इति सप्तदश समाधि पद पूजा ॥ ॥ श्रथाष्टादशाजिनवज्ञानपदपूजाप्रारंभः ॥ दोहा ॥ ज्ञान पूरव ग्रहण कर, जागे अनुज व रंग ॥ कुमति जाल सब जार कें, उबले तत्त्वतरंग ॥ १ ॥ पद ढारमे पूजियें, मन धरि अधिक उमंग ॥ ज्ञान पूरव जिन कहे, तजी कुगुरुको संग ॥ २ ॥ मन मोह्या जंगलकी हरणीने ॥ मन० ॥ ए देशी ॥ जवि वंदो, अपूर्व ज्ञानतरणीने ॥ जवि० ॥ ए श्रांकणी ॥ कुमति घूक सब अंध हुये हैं, मूले जडमति करणीने ॥ नवि० ॥ १ ॥ ज्ञान पूरव जबही प्रगटे, शुद्ध करे चित्तधरणीने ॥ जवि० ॥ २ ॥ निर्युक्ति शुद्ध टीका चूर्णी, मूल जाष्य सुख जरणीने ॥ नवि० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) ॥३॥ संप्रदाय अनुनवरस रंगें, कुमति कुपथ विहरणीने ॥ नवि० ॥ ४॥ सदगुरुकी ए तालिका नीकी, रतन संमुख उद्धरणीने ॥ नवि०॥५॥श्न विन अर्थ करे सो तस्कर, काल अनंता मरणीने ॥ जवि० ॥६॥ सम्मति कर्म ग्रंथ रत्नाकर, बेद ग्रंथ फुःख हरणीने ॥ नवि०॥७॥छादशार वली अंग उपांग, सप्तनंग शुछ वरणीने ॥ नवि०॥ ॥ इत्यादिक नवि शान अपूरव, पठन करे धरे चरणीने ॥ नविपासागरचंद जिनपद पायो,आतम शिव वधु परणीने ॥ नवि०॥१०॥ काव्यम् ॥अतिशयमंत्रः॥ ॐ ही श्री प० ॥ श्रनिनवानपदाय ज० ॥ य० ॥ ॥ अथैकोनविंशति श्री श्रुतपदपूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥पाप तापके हरणकों,चंदन सम श्रुत झान॥श्रत अनुजव रस राचियें,माचियें जिनगुण तान ॥१॥ गुणवीश पद पूजियें, जिनवर वचन अन्नंग ॥ तीर्थंकर पद नवि लहे, बार कुमतिको संग ॥२॥ - ॥ श्रीराधे राणी ॥ दे मारो ने बांसरी हमारी॥ श्रीराधे ॥ ए देशी ॥राग कल्याण ॥ श्री चिदानंद विमारो ने, कुमति जो मेरी ॥ श्री० ॥ ए आंकणी॥ सुषम कालमें कुमति अंधेरो, प्रगट करे सब चोरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) ॥ श्री० ॥ १ ॥ बत्तीस दोष रहित श्रुत वांचे, आठ गुणें करी जोरी ॥ श्री० ॥ २ ॥ अरिहंत गणधर जाषित नीको, श्रुत केवली बल फोरी ॥ श्री० ॥३॥ प्रत्येक बुद्ध दश पूरवधर, श्रुत हरे जवकों री ॥ श्री० ॥ ४ ॥ श्रव चार जो कालादिक हे, साधे करमनी चोरी ॥ श्री० ॥ ५ ॥ चारोहि अनुयोग गुरुगम वांचे, टूटे कुपंथनी दोरी ॥ श्री० ॥ ६ ॥ चौद द श्रुत वीश नेद है, अंग पयन्नाको री ॥ श्री० ॥ ॥ ७ ॥ रत्नचूड नृप ए पद सेवी, प्रतम जिनपद हो री ॥ श्री० ॥ ८ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिश० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री परम ॥ श्रुताय जला० ॥ ॥ इति ॥ १९॥ ॥ अथ विंशति तीर्थपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥दोहा॥ जनमतकी परजावना, करे प्रजावक याठ ॥ श्रावक धन खरची करे, रथयात्रादिक ठाव ॥१॥ प्रावचनी अरु धर्मकथी, वाद निमित्त सुझान ॥ तपी सिद्ध विद्या कवि, या प्रजावक जान ॥ ॥ राग पीलू ॥ तीर्थ उजारो अब करीयें, नविक वृंद || दाख्यो रे जिन पद, आनंद जरे री ॥ तीर्थ ॥ एक ॥ तीर्थ प्रकार दोय, थावर जंगम जोय ॥ सिद्धगिरि आदि जोय, दर्श करे री ॥ ती० ॥ १ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) शिखर समेत चंपा, पावापुरी दुःख कंपा ॥ अष्टापद रेवत, जिनंद शिव वरे री ॥ ती० ॥ २ ॥ इत्यादि जिनस्थान, जनम विरत ज्ञान ॥ समज सुजान गन, नक्ति खरे री ॥ ती० ॥ ३ ॥ थावर तीर्थ रंग, मन धरी यति चंग ॥ संघ काढी महानंद, धर्मशुं धरे री ॥ ती० ॥ ४ ॥ संघकी जक्ति करी, जेजेकार जग करी ॥ पावत प्रजावनासें, उन्नति करे री ॥ ती० ॥५॥ जरत सागर लेन, महापद्म हरीषेण ॥ संप्रति कुमारपाल, वस्तुपाल नरे री ॥ ती० ॥ ६ ॥ तम श्रानंद पूर, करम कलंक चूर ॥ मेरुप्रन जिन पद, सुखमें वरे री ॥ ती० ॥७॥ काव्यम् ॥ ति० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम०॥तीर्थेयो जलादिकं यजा० ॥ इति विंश० ॥२०॥ ॥ अथ कलश ॥ राग धन्याश्री ॥ ॥ शुद्ध मन करो रे नंदी, विंशति पद ॥ शुद्ध ॥ए कणी ॥ विंशति पद पूजन करी विधिशुं, उजमणुंकरो चित्त रंगी ॥ विं ॥ १ ॥ ए सम अवर न करणी जगमें, जिनवर पद सुख चंगी ॥ विं० ॥ २ ॥ तप ग गगनमें दिनमणि सरिसो, विजय सिंह विरंगी ॥ विं ॥३॥ सत्य कपूरक्षमा जिन उत्तम, पद्मरूप गुरु जंग ॥ ॥विं ॥३॥कीतिविजय गुरु समरस जीनो, कस्तूरमणि हे निरं For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) गी ॥ विं० ॥ ५॥ श्री गुरु बुझिविजय महाराजा, मुक्तिविजयगणि चंगी ॥ वि० ॥६॥ तस लघु जाता आनंदविजयो, गाय विंशति पद नंगी।विगा ॥७॥खंयुग अंक छ (१ए४०) वत्सरमें, वींकानेर सुरंगी ॥ विंग ॥ ॥ श्रआत्माराम आनंद पद पूजो, मन तन होय एक रंगी॥ विं०॥ ए ॥ इति कलश संपूर्ण ॥ इति मुनिराज श्रीवात्मारामजी आनंद वि. जयजीकृत विंशति स्थानकपदपूजा समाप्ता ॥ ॥अथ ॥ न्यायांनोनिधि महाराज श्रीश्रात्मारामजी श्रानंद विजयजी कृत ॥ सत्तर नेदी पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ सकल जिणंद मुणिंदनी, पूजा सतर प्रकार ॥ श्रावक शुरू नावें करे, पामे नवनो पार ॥१॥ ज्ञाता अंगें जौपदी, पूजे श्री जिनराज ॥ रायपसेणि उपांगमें, हित सुख शिवफल ताज ॥२॥ न्हवण विलेपन वस्त्रयुग, वास फूल वरमाल ॥ वरण चुन्न ध्वज शोजती, रत्नाजरण रसाल ॥३॥ सु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) मनसगृह अति शोजतुं, पुष्पघरा मंगलीक ॥ धूप गीत नृत्य नादयुं, करत मिटे सब नीक ॥४॥ ॥अथ प्रथम न्हवण पूजा प्रारंजः॥ । ॥ दोहा ॥ शुचितनु वदन वसन धरी, नरे सुगंध विशाल ॥ कनक कलश गंधोदकें, आणी नाव विशाल॥१॥ नमत प्रथम जिनराजकुं, मुख बांधी मुखकोश ॥ नक्ति युक्तिसें पूजतां, रहेनरंचक दोषा॥ ॥ ढाल ॥राग खमाच ॥ मान तुं काहे ये करता ॥ ए देशी॥मान मद मनसे परहरता, करी न्हवण जगदीश ॥ मा० ॥ ए श्रांकणी ॥ समकितनी करनी कुःख हरनी, जिन पखाल मनमें धरता ॥ अंग उपंगजिनेश्वर नांखी, पाप पमल जरता ॥ कण्॥१॥ कंचनकलशनरी अति सुंदर, प्रजु स्नान नविजन करता ॥ नरक वैतरणी कुमति नासे, महानंद वरता ॥ क० ॥२॥ काम क्रोधकी तपत मिटावे, मुक्तिपं. थ सुख पग धरता ॥धर्म कल्पतरु कंद सींचता, अ. मृत घन फरता ॥ क० ॥३॥ जन्म मरणका पंक पखारी, पुण्य दशा उदय करता ॥ मंजरी संपद तरु वर्धनकी, अक्षय निधि जरता ॥ क० ॥४॥ मनकी तप्त मिटी सब मेरी, पदकज ध्यान हृदे धरता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) बातम अनुजव रसमें नीनो, नव समुज तरता ॥ क॥ ५ ॥ यह पूजा पढके पंचामृत तथा तीर्थ जलसे नगवानकू स्नान करावे ॥ इति ॥१॥ ॥ श्रथ द्वितीय विलेपन पूजा प्रारंजः॥ . ॥ दोहा ॥ गात्र बुही मन रंगशु, महके अतिही सुवास ॥ गंधकषायी वसनशु, सकल फले मन श्राश ॥१॥चंदन मृगमद कुंकुमें, नेली मांहे बरास ॥ रतन जमित कचोलीयें, करी कुमतिनो नाश ॥२॥ पग जानू कर खंधमें, मस्तक जिनवर अंग ॥ नाल कंठ उर उदरमें, करे तिलक अति चंग ॥३॥ पू. जक जन निज अंगमें, रचे तिलक शुज चार ॥ जाल कंठ उर उदरमें, तप्त मिटावनहार ॥४॥ ॥ढाल ॥तुमरी॥मधुबनमें मेरे सावरीया ॥ए देशी॥करी विलेपन जिनवर अंगें,जन्म सफल नविजन माने ॥ कम् ॥१॥ मृगमद चंदन कुंकुम घोली, नव अंग तिलक करी थाने ॥ कम् ॥२॥चक्री नवनिधि संपद प्रगटे, करम नरम सब दय जाने ॥ क० ॥३॥ मन तनु शीतल सब अघ टारी, जिननक्ति मन तनुगने॥॥॥ चौसठ सुरपति सुर गिरिरंगें, करी विलेपन धन माने ॥क० ॥ ५॥ जागी ना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) ग्यदशा अब मेरी, जिनवर बचन हदे गने ॥ क॥ ॥६॥परम शिशिरता प्रनु तन करता, चितसुख श्रधिके प्रगटाने ॥॥॥श्रात्मानंदी जिनवर पूजी, शुकवरूप निज घट थानेकाजा यह पढकें विलेपन कीजें, प्रजुकुं नव अंगें टीकी दीजें ॥इति ॥२॥ ॥अथ तृतीय वस्त्रयुगलपूजा प्रारंजः॥ ॥अत्यंत कोमल चंदन चर्चित उज्ज्वल वस्त्रयुगल, रकेबीमें ले कर, एक श्रावक खडा रहे, ओर मुखसे इस मुजब पढे सो लिखते हैं। ॥दोहा॥ वसन युगल अति उज्ज्वलें,निर्मल श्रतिही अनंग ॥नेत्रयुगल सूरी कहे, येही मतांतर संग १॥ कोमल चंदन चरचरियें, कनक खचित वरचंग ॥ हय पल्लव शुचि प्रनु शिरें, पहेरावे मन रंग ॥॥ौपदि शक सुरियान ते, पूजे जिम जिनचंद॥ श्रावक तिम पूजन करे, प्रगटे परमानंद ॥३॥ पाय लुहण अंग लूहणां, दीजें पूजन काज ॥ सकल करम मल दय करी, पामे अविचल राज ॥४॥ ॥ढाल॥राग देश सोरठ ॥ कुबजाने जादू माराए देशी॥जिनदर्शन मोहनगारा, जिने पाप कलंक पखारा ॥जिनाए आंकणी॥ पूजा वस्त्रयुगल शुचिसंगें, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) नावना मनमें विचारा ॥ निश्चय व्यवहारी तुम धर्मे, वरनुं आनंदकारा ॥ जि०॥१॥ ज्ञान क्रिया शुद्ध अनुभव रंगें, करुं विवेचन सारा ॥ खपर सत्ता धरूं हरु सब, कर्म कलंक पहारा ॥ जि॥२॥ केवल युगल वसन आर्चतसे,मांगत हुँ निरधारा ॥ कल्पतरु तुं वंडित पूरे, चूरे करम कगरा ॥ जि० ॥३॥ नवोदधि तारण पोत मिला तुं, चिद्घन मंगलकारा॥ श्रीजिनचंद जिनेश्वर मेरे, चरण शरण तुम धारा॥ जि ॥४॥ अजर अमर कर अलख निरंजन,नंजन करम पहारा ॥ श्रात्मानंदी पापनिकंदी, जीवन प्राण श्राधारा ॥ जि०॥५॥इति ॥ ॥अथ चतुर्थगंधपूजा प्रारंजः॥ अगर, चंदन, कपूर, कुंकुम, कुसुम, कस्तूरिकाका चूर्ण करके कचोली नरकें खमा रहे, और मुखसें इस मुजब पढे सो लिखतें हैं, ॥ दोहा ॥ चोथी पूजा वासकी, वासित चेतन रूप ॥ कुमति कुगंध मिटी गश्, प्रगटे आतमरूप ॥ ॥१॥सुमती अति हर्षित जइ, लागी अनुनव वास ॥ वास सुगंधे पूजतां, मोह सुनटको नाश ॥ ॥२॥ कुंकुम चंदन मृगमदा, कुसुम चूर्ण घनसार ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) जिनवर अंगें पूजतां, लहियें लान अपार ॥३॥ ॥ढाल॥अब मोहे मांगरीयां ॥ए देशी॥ चिदानंद घन अंतरजामी ॥ अब मोहे पार उतार ॥ जिनंदजी ॥ अब० ॥ ए श्रांकणी॥ वासखेपसे पूजन करतां, जनम मरण फुःख टार ॥ जि०॥ निजगुन गंध सुगंधी महके, दहे कुमति मद मार ॥ जिन ॥१॥ जिन पूजतही अति मन रंगें, नंगे जरम अपार ॥ जि० ॥ पुद्गलसंगी उगंध नागे,वरते जयजयकार ॥ जि० ॥२॥ कुंकुम चंदन मृगमद मेली, कुसुम गंधघनसार ॥जि० ॥ जिनवर पूजन रंगें राचे, कुमति संग सब बार ॥ जि॥३॥ विजय देवता जिनवर पूजे, जीवा निगम मकार ॥ जिण श्रावक तिम जिनवासें पूजे, गृह स्वधर्मनो सार ॥ जि ॥४॥ समकितनी करणी शुन वरणी, जिनगणधर हितकार ॥ जि० ॥ आतम अनुनव रंगरंगी ला, वास यजनका सार ॥ जि० ॥५॥ यह पढकें प्रनु आगे वासदेप उडाले ॥ इति ॥४॥ ॥अथ पंचम पुष्पारोहणपूजा प्रारंजः ॥ ॥ चंद, मचकुंद, दमनक, मरुवा, कुंद, सोवन, जाइ, जुश्,चबेली,गुलाब, बोलसिरी,इत्यादि सुगंधी ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) फुल पंच वर्णके रकेबीमें रख के, इसमुजब पढे ॥ ॥दोहा॥ मन विकसे जिन देखतां, विकसित फूल अपार ॥ जिनपूजा ए पंचमि, पंचमि गति दा तार ॥१॥पंच वरणके फूलसें पूजे त्रिजुवन नाथ ॥ पंच विघन नवि दय करी, साधे शिवपुरसाथ ॥२॥ ढाल॥राग कहेरबा॥पास जिनंदा प्रजु, मेरे मन वसीया ॥ए देशी ॥अन् जिनंदा प्रजु, मेरे मन व. सीया ॥ ए श्रांकणी ॥ मोगर लालगुलाब मालती, चंपक केतकी निरख हरसीया ॥०॥१॥ कुंद प्रियंगु वेलि मचकुंदा, बोलसिरी जाइ अधिक दरसीया ॥१०॥२॥ जल थल कुसुम सुगंधी महके, जिन वर पूजन जिम हरि रसीया ॥ अ॥३॥ पंच बाण पीडे नहि मुझकों, जब प्रनु चरणे फूल फरसीया ॥०॥४॥ जडता दूर गई सब मेरी, पांच श्रावरण उखार धरसीया ॥ १० ॥५॥ अवर देवकू क धत्तूरा, तुमरे पंच रंग फूल वरसीया ॥१० ॥६॥ जिन चरणे सहु तपत मिटतु हे, आतम अनुनव मेघ वरसीया ॥१०॥७॥ यह पढके पंच वरणके फूल चढावे ॥ इति ॥५॥इति पंचम पुष्पारोहणपूजा समाप्त ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) ॥ अथ षष्ठ पुष्पमालापूजा प्रारंजः ॥ ॥नाग, पुन्नाग, मरुया, दमणा, गुलाब, पागल, मोघरा, सेवंत्री, मोतिया, केतकी, चंपा, चंबेली, मालती, केवडा, जा, जुर प्रमुख फुलोंकी पंच वरणी सुगंधवाली माला गुंथी हाथमें लेके खडा रहे, उर मुखसे इस मुजब पढे. ॥दोहा॥ही पूजा जिन तणी, गुंथी कुसुमनी माल ॥ जिन कंठे थापी करी, टालियें पुःख जंजाल ॥१॥ पंच वरण कुसुमें करी, गुंथी जिनगुण माल॥ वरमाला ए मुक्तिकी, वरे नक्त सुविशाल ॥३॥ ॥ढाल॥ पार्श्वनाथ जपत है जो जन,करम न आवे ताके नेरे ॥ ए देशी ॥ कुसुम मालसें जो जिन पूजे, कर्मकलंक नासे नवि तेरे ॥ कु० ॥ ए आंकणी॥ नाग पुन्नाग प्रियंगु केतकी, चंपक दमनक कुसुम घने रे॥ महिका नव महिका शुभ जाति, तिलक वसंतिक सब रंग हे रे ॥ कु०॥१॥ कल्प अशोक बकुल मगदंती, पामल मरुक मालती लेरे ॥ गुंथी पंच वरणकी माला, पाप पंक सब दूर करे रे ॥ कु०॥ ॥नाव विचारी निजगुण माला, प्रजुसे मागे अरज करे रे॥ सर्व मंगलकी माला रोपे, बिघन स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल सब साथ जले रे ॥कु०॥३॥ श्रातमानंदी जगगुरु पूजी, कुमति फंद सब दूर नगे रे ॥ पूरण पुण्यें जिनवर पूजे, आनंदरूप अनूप जगे रे॥ कु०॥ ॥ यह पढी प्रज्जु कंसें फुल माला चढावे ॥इति॥६॥ ॥ अथ सप्तम अंगीरचनापूजा प्रारंजः ॥ ॥पांच वरणके फुलोंकी केसरके साथ अंगी रचे, सो हाथमें वेकें खडा रहे, मुखसे इसमुजब पढे. ॥दोहा॥ पांच वरणके फूलकी, पूजा सातमि मान ॥प्रनु अंगें अंगी रची, लहियें केवलज्ञान॥१॥ मुक्तिवधूकी पत्रिका,वरणी श्री जिनदेव॥शुद्ध तत्त्व समजे सही, मूढ न जाणे नेव ॥२॥ ढाल॥ तुम दीनके नाथ दयाल लाल॥ एदेशी॥ तुम चिद्घनचंद श्रानंद लाल, तोरे दर्शनकी बलिहारी॥तु ॥१॥ पंचवरण फुलोसें अंगीयां, विकसे ज्युं केसर क्यारी ॥तु ॥२॥ कुंद गुलाब मरुक अरविंदो, चंपकजाति मंदारी ॥तु॥३॥ सोवनजाती दमनक सोहे, मनतनु तजित विकारी ॥ तु॥४॥अलख निरंजन ज्योति प्रकोसे, पुद्गल संग निवारी ॥तु०॥५॥ सम्यग् दर्शन शानखरूपी, पूर्णानंद विहारी ॥ तु॥६॥ आतम सत्ता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) जबहीं प्रगटे, तबही लहे नवपारी ॥ तु ॥७॥ यह पढकें सुगंध पुष्पें करी नगवानके शरीरें अंगी रचे. ॥अथाष्टमचूर्णपूजा प्रारंजः ॥ ॥ घनसार, अगर, सेलारस, मृगमद, सुगंधवटी करी हाथमें लेके जिनेश्वरके आगे खडा रहे, उर मुखसे इस मुजब पढे, सो लिखते हैं... ॥ दोहा ॥ जिनपति पूजा पाठमी, अगर जला घनसार ॥ सेलारस मृगमद करी, चूरण करी अपार ॥१॥ चुन्नारोहण पूजना, सुमती .मन आनंद ॥ कुमती जन खीजे अति, जाग्यहीन मतिमंद ॥२॥ ॥ढाल॥राग जोगीयो।नाथ मेंY बडकें,गढ़ गिरनार तुं गयो री॥एदेशी॥ करम कलंक दह्योरी,नाथ जिनजजके ॥ ए शांकणी ॥ अगर सेलारस मृगमद चूरी, अतिघनसार मह्यो री॥ ना० ॥१॥ तीर्थकर पद शांति जिनेश्वर, जिन पूजीने ग्रह्यो री॥ ना॥२॥ अष्टकरम दल उदनट चूरी, तत्त्वरमएकू लह्यो री ॥ना॥३॥धागेही प्रवचन पा. लन शूरा, दृष्टि श्राप रह्यो री ॥ ना॥४॥ श्रकाजासन रमणता प्रगटे, श्रीजिनराज कह्यो री॥ ना ॥ ५ ॥आतम सहजानंद हमारा, थामी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) पूजा चह्यो री ॥ना॥६॥ यह पाठ पढकें प्रनुजीकों चूरण चढावे ॥इति अष्टम चूर्ण पूजा ॥७॥ ॥अथ नवम ध्वजपूजा प्रारंनः॥ ॥ पंच वर्णी ध्वजा, घूघरीयो सहित हेममय दंमें करी संयुक्त सधवा स्त्री मस्तकें वेश्थालमें धरि तीन प्रदक्षिणा देश् वासदेप करि ध्वजा लेइ खडी रहे. ॥दोहा॥ पंचवरण ध्वज शोजती, घूघरिनो घमकार ॥ हेमदम मन मोहनी, लघू पताका सार ॥ १॥रणऊण करती नाचती, शोजित जिनहर शृंग॥ लहके पवन ऊकोरसे, बाजत नाद अनंग ॥२॥ इंशाणी मस्तक लई,करे प्रदक्षिण सार॥ सधवा तिम विधि साचवे, पाप निवारणहार ॥३॥ __॥ढाल॥ध्रुपद ॥ श्राश्नार॥ए देशी॥श्रा सुं. दर नार,कर कर सिंगार,गढी चैत्यहार,मन मोदधार, प्रजु गुण विथार, अघ सब दय कीनो ॥ आ॥ १॥ जोजन उतंग, अति सहस चंग, गश् गगन लंघ, नवि हरख संघ ॥ सब जग उतंग, पदबिनकमेंली नो॥श्रा॥२॥ जिम ध्वज उतंग, तिम पद अनंग, जिन नक्ति रंग, जवि मुक्ति मंग, चिद्घन आनंद, समतारस नीनो ॥ आ॥३॥अब तार नाथ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) मुफ कर सनाथ, तज्यो कुगुरु साथ, मुफ पकड हाथ, दीनाके नाथ, जिनवच रस पीनो ॥ श्रा० ॥४॥ श्रातम श्रानंद, तुम चरण वंद, सब कटत फंद, जयो शिशिर चंद,जिन पठित बंद ॥ ध्वजपूजन कीनो॥श्रा॥५॥ए पढकें ध्वज चढावे ॥इति ॥५॥ ॥अथ दशमी बाजरण पूजा प्रारंजः॥ ॥ पीरोजा, नीलम,लसणीया, हीरा,माणेक, पन्ना प्रमुखसे जडे रत्नाचरण लेमुखसे इस मुजब पढे. ॥ दोहा ॥ शोजित जिनवर मस्तकें, रयण मुकुट जलकंत ॥ नाल तिलक अंगद नुजा, कुंमल अति चमकंत ॥१॥सुरपति जिन अंगें रचे,रत्नाजरण विशाल॥तिम श्रावक पूजा करे, कटे करम जंजाल ॥२॥ ॥ढाल॥अंग्रेजी बाजेकी चाल॥यानंद कंद पूजता, जिनंद चंद हुँ॥ए आंकणी॥मोति ज्योति लाल हीर, हंस अंक ज्यु ॥ कुंमलू सुधारकरण, मुकुट धार तुं ॥ श्रा ॥१॥ सूर चंद कुंमलें, शोनित कान छ॥ अंगद कंठ कंठलो, मुणिंद तार तुं॥श्रा॥२॥ जाल तिलक चंगरंग,खंगचंग ज्यु ॥चमक दमक नंदनी, कंदब जीत तुं॥आ॥३॥व्यवहार जाष्य जाखियो, जिनंद बिंब यु ॥ करे सिंगार फार कर्म, जार जार तुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) ॥श्रा ॥४॥ वृद्धि जाव श्रातमा, उमंग कार तुं ॥ निमित्त शुद्ध नावका, पियार कार तुं॥ श्रा० ॥ ॥५॥ ए पूजा पढ के नूषण चढावे ॥ इति ॥१॥ ॥अथैकादश पुष्पगृहपूजा प्रारंजः ॥ ॥ सुगंधि फूलोंका घर बनाके हाथ में लेके मुखसे इस मुजब पढे. सो लिखते है. ॥ दोहा ॥ पुष्पघरो मन रंजनो, फूले श्रद्मुत फूल ॥ महके परिमल वासना, रहकें मंगलमूल ॥ शोजित जिनवर बीचमें, जिम तारामें चंद ॥ नवि चकोर मन मोदसे, निरखी लहे श्रानंद ॥॥ ॥ढाल॥ शांति वदन कज देख नयन ॥ ए देशी॥ चंदबदन जिन देख नयन मन, अमीरस नीनो रे ॥ ए आंकणी ॥ राय बेल नव मालिका कुंद, मोघर तिलक जाति मचकुंद ॥ केतकी दमणके सरस रंग, चंपक रस नीनो रे ॥ चं०॥१॥श्त्यादिक शुज - ल रसाल, घर विरचे मन रंजन लाल ॥जाली करोखा चितरी शाल, सुरमंप कीनो रे ॥ चं० ॥२॥ गुड फुमखां लंबां सार, चंऽथा तोरण मनोहार ॥ जुवनको रंगधार, जव पातक बीनो रे ॥ चं० ॥ ॥३॥ कुसुमायुधके मारन काज, फूलघरे थापे जि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) नराज ॥ जिम लहियें शिवपुरको राज, सब पातक खीनो रे ॥ चं० ॥४॥ आतम अनुभव रसमें रंग, कारण कारज समऊ तुंचंग ॥ दूर करो तुम कुगुरु संग, नरजव फल लीनो रे॥०॥५॥ए पूजा पढकें प्रजुकुं फूलघर चढावे ॥ इति एकादश पुष्पग्रह पूजा ॥११॥ ॥अथ छादश पुष्पवर्षणपूजा प्रारंजः ॥ पांच वरणका सुगंध फूल, हाथमें ले के इसमुजब पढे. ॥ दोहा ॥ बादल करी वरषा करे, पंचवरण सुर फूल ॥हरे ताप सब जगतको, जानूदघन श्रमूल ॥१॥ ॥ढाल ॥अडिल बंद ॥ फुल पगर अति चंग रंग बादर करी, परिमल श्रति महकंत मिले नर मधुकरी॥ जानुदघन अति सरस विकच अधो बीट हे,वरसे बाधारहित रचे जेम बीट हे ॥ ॥राग वसंत ॥ साचा साहिब मेरा चिंतामणि खामी ॥ ए देशी ॥ मंगल जिन नामें, आनंद नविकुं घनेरा ॥ ए आंकणी ॥ फूल पगर बदरीकरो रे, हेठ बीट जिनकेरा ॥ मं० ॥१॥ पीडा रहित ढिग मधु कर गुंजे, गावत जिनगुण तेरा ॥ मं० ॥२॥ ताप हरे तिहुँ लोकका रे, जिन चरणे जस मेरा ॥ मं०॥ ॥३॥ अशुज करम दल दूर गये रे, श्रीजिन नाम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) रटेरा ॥ मं॥ ४ ॥ श्रातम निर्मल नाव करीने, पू. जे मिटत अंधेरा ॥ मं० ॥५॥ ए पढकें फूल उगले ॥ ___॥ अथ त्रयोदशाष्टमंगलपूजा प्रारंजः॥ ॥ अष्ट मंगलिक थालमें ले कर इस मुजब पढे. ॥दोहा । स्वस्तिक दर्पण कुंन है, नसासन वर्धमान ॥ श्रीव नंदावर्त हे, मीनयुगल सुविधान ॥१॥ अतुल विमल खंमित नहीं, पंच वरणके साल ॥ चंडकिरण सम उज्ज्वलें, युवती रचे विशाल ॥२॥ श्रति सलक्षण तंबुलें, लेखी मंगल था। जिनवर अंगें पूजतां, आनंद मंगल गठ ॥३॥ ॥ढाल ॥श्रीराग ॥ जिन गुण गान श्रुति अमृतं॥ ए देशी ॥ मंगलपूजा सुरतरुकंद॥ ए श्रांकणी ॥ सिकि आप आनंद प्रपंचे, श्राव करमका काटे फंद ॥ मं०॥ १॥ श्रागे मद नये बिनकमें दूरे, पूरे अडगुण गये सब धंद ॥ मं॥२॥जो जिन आठ मंगलशुं पूजे, तस घर कमला केलि करंद ॥ मं० ॥३॥ श्राप प्रवचन सुधारस प्रगटे, सूरि संपदा अतिही उत्तंग ॥ मं०॥४॥ आतम अडगुण चिदघन राशि, सहज विलासी आतम चंद ॥ मं० ॥५॥ यह पढकें प्रनु आगें अष्ट मंगल चढावे ॥ इति ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) ॥अथ चतुर्दशधूपपूजा प्रारंजः ॥ धूप रकेबीमें ले के मुखसे श्समुजब पढे. ॥ दोहा ॥ मृगमद अगर सेलारस, गंधवटी घन सार ॥ कृष्णागर शुफ कुंदरू, चंदन अंबर नार॥१॥ सुरनि अव्य मिलायकें, करे दशांगज धूप ॥धूपधाणमें ले करी, पूजे त्रिजुवननूप ॥२॥ ढाल॥राग पीवु॥मेरे जिनंदकी धूपसें पूजा, कुमति कुगंधी दूर हरी रे॥मेरे॥एांकणी ॥रोगहरे करे निजगुण गंधी, दहे जंजीर कुगुरुकी बंधी ॥ निमल जाव धरे जग धंदी, मुके उतारो पार, मेरा किरतार, के अघ सब दूर करी ॥ मे ॥१॥ऊर्ध्व गति सूचक नवि केरी, परम ब्रह्म तुम नाम जपेरी॥ मिथ्यावास उखराशि फरे री, करो निरंजन नाथ, मुक्तिका साथ, के ममतामूल जरी ॥ मे ॥२॥धूपसे पूजा जिनवर केरी, मुक्तिवधू जर बिनकमें चेरी॥ अब तो क्यों प्रनु कीनी देरी, तुमही निरंजन रूप, त्रिलोकी नूप, के विपदा दूर करी ॥ मे ॥३॥ श्रातम मंगल आनंदकारी, तुमरी चरण शरण अब धारी॥ पूजे जेम हरी तेम आगारी, मंगल कमला कंद, शरदका चंद, के तामस दूर हरी ॥ मे ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) यह पढकें प्रभुकं धूव जखेवे ॥ इति धूप पूजा ॥ १४॥ ॥ अथ पंचदश गीतपूजा प्रारंभः ॥ ॥ ॥ दोहा ॥ ग्राम जले आलापिने, गावे जिनगुण गीत | जावे शुरूज जावना, जाचे परम पुनीत ॥१॥ फल अनंत पंचाशर्के, जाखें श्रीजगदीश ॥ गीत नृत्य शुध नादसें, जो पूजे जिन ईश ॥ २ ॥ तीन ग्रामखर सातसें, मूरबना एकवीश | जिन गुण गावे जक्तिशुं, तार तीस उगणीश ॥ ३ ॥ ॥ ॥ ढाल ॥ श्रीराग ॥ जिन गुण गावत सुरसुंदरी ॥ ए यांकणी ॥ चंपकवरणी सुर मनहरणी, चंद्रमुखी श्रृंगार धरी ॥ जि० ॥ १ ॥ ताल मृदंग बंसरी मंगल, वेराड उपांग पुनि मधुरी ॥ जि० ॥ २ ॥ देव कुमार कुमारी आलापे, जिनगुण गावे जक्ति जरी ॥ जि० ॥ ॥ ३ ॥ नकुल मुकुंद वीण अति चंगी, ताल बंद - यति समरी ॥ जि० ॥ ४ ॥ अलख निरंजन ज्योति प्रकाशी, चिदानंद सत् रूप धरी ॥ जि० ॥ ५ ॥ श्रजर अमर प्रभु ईश शिवंकर, सर्व जयंकर दूर हरी ॥ जि० ॥ ६ ॥ श्रातम रूप श्रानंद घन संगी, रंगी निज गुन गीत करी ॥ जि० ॥ ७ ॥ इति ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) ॥ अथ षोडश नाटक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ नाटक पूजा सोलमी,सजि सोले शपगार ॥ नाचे प्रजुनी आगलें, नव नाटक सब टार ॥॥देव कुमर कुमरीमली, नाचे एक शत आठ॥रचे संगीत सुहावना, बत्तिस विधका नाट ॥२॥रावण ने मंदोदरी, प्रजावती सुरियाज ॥ौपदी ज्ञाता अंगमें, लियो जन्मको लाल ॥ ३ ॥ टालो नव ना. टक सवी, हे जिन दीनदयाल ॥ मिल कर सुर नाटक करे, सुधर बजावे ताल ॥ ॥ढाल॥राग कल्याण ॥एक ताल ॥नाचत सुर वृंद बंद,मंगल गुन गारी ॥ए आंकणी ॥ कुमर कुमरी कर संकेत, आठ शत मिल जमरी देत ॥ मंज तार रण रणाट, घुघरु पग धारी ॥ ना० ॥१॥बाजत जिहां मृदंग ताल, धप मप धुधु मकिट धमाल ॥ रंग चंग उंग उंग, त्रौं त्रौं त्रिक तारी॥ ना० ॥३॥त ता थे थे तान लेत, मुरज रागरंग देत ॥तान मान गान जान, किट नट धुनि धारी ॥ ना० ॥३॥ तुं जिनंद शिशिर चंद, मुनिजन सब तार वृंद ॥मंगलानंद कंद, जय जय शिवचारी॥ ना॥५॥ रावण अष्टापद गिरिंद, नाच्यो सब साज संग ॥ बां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) ध्यो जिनपद उत्तंग,श्रातम हितकारी॥ना॥५॥१६॥ ॥अथ सप्तदश वाजिन पूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ तत वीतत घन जूसरे, वाद्य नेद चार ॥ विविध ध्वनि कर शोनते, पूजा सतरमी सार ॥१॥ समवसरणमें वाजिया, नाद तणा ऊंकार ॥ ढोल ददामा इंफुनी, नेरी पणव उदार ॥२॥ वेणू वीणा किंकिणी, षड् ब्रामरी मरदंग ॥ ऊलरी जा नादयुं, शरणाई मुरजंग ॥३॥ पंच शब्द वाजे करी, पूजे श्री अरिहंत ॥ मनवांबित फल पामियें, लहियें लान अनंत ॥१४॥ ॥ ढाल ॥ मन मोह्या जंगलकी हरणीने ॥ए दे. शी॥ नवि नंदो जिनंद जस वरणीने ॥ ए आंकणी॥ वीण कहे जग तुं चिर नंदे, धन धन जग तुम करणी ने ॥ ज० ॥१॥ तुं जगनंदी आनंदकंदी, तपली कहे गुण वरणीने ॥०॥५॥ निर्मल ज्ञान वचन मुख साचे, तूण कहे कुःख हरणीने ॥ ज० ॥३॥ कुमति पंथ सव बिनमें नासे, जिन शासन उदेधरणी ने॥ज॥४॥ मंगल दीपक श्रारति करतां, बातम चित्त शुज जरणीने ॥जाय॥इति सत्तरमी पूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) ॥ अथ कलश ॥ ॥ रेखता ॥ जिनंद जस श्राज में गायो, गयो अघ दूर मो मनको ॥ शतठ काव्य हू करके, थुणे सब देव देवनको ॥ जि० ॥ १ ॥ तप गछ गगन रवि रूपा, हुआ विजय सिंह गुरु नूपा ॥ सत्य कर्पूर विजयराजा, क्षमा जिन उत्तमा ताजा ॥ जि० ॥ २ ॥ पद्म गुरु रूप गुण जाजा, कीर्ति कस्तूर जग बाजा ॥ मणीबुध जगतमें गाजा, मुक्ति गणि संप्रति राजा ॥ जि० ॥ ३ ॥ विजय आनंद लघु नंदा, निधि शशी अंक हे चंदा ॥ बाले नम्रमें गायो, निजातम रूप हुं पायो || जि०॥४॥ इति मुनि आत्मारामजी आनंद विजयजी कृत सत्तर जेदी पूजा संपूर्णा ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अथ न्यायांनोनिधि मुनि श्रीमद् आत्माराम आनंद विजयजी विरचित ॥ श्रष्टकारी पूजा प्रारभ्यते ॥ ॥ दोहा ॥ जिनवर वाणी भारती, दारति तिमिर ज्ञान ॥ सारति कविजन कामना, वारति विघ्ननिदान ॥ १ ॥ चिदानंद घन सुरतरु, श्री शंखेश्वर पास ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) पदकज प्रणमी तेहनां, श्राणी जाव उलास ॥२॥ पूजा अष्टप्रकारनी, अंग तीन चित धार ॥ अग्र पंच मनमोदसें, करि तरिय संसार ॥३॥ न्हवण विलेपन सुमनवर, धूप दीप अति चंग ॥ वर अक्षत नैवेद्य फल, जिन पूजन मन रंग ॥॥४॥उज्ज्वल विमल वसन धरी,शुचि तनु मन जिन राग ॥ उत्तरासंग मु. खकोशको, बांधो सुजग सोनाग ॥५॥ अधिक सुगंध जलें जरी, कंचन कलश अनूप ॥ नर नारी नक्ने करी, पूजे त्रिजुवन नूप ॥६॥ ॥अथ प्रथम न्हवण पूजा प्रारच्यते ॥ ॥राग मालकोश ॥ न्हवण करो जिनचंद,आनंद जर॥न्हवण॥ए आंकणी॥कंचन रतन कलशजल नरकें, महके वास सुगंध ॥ श्रा॥१॥ सुरगिरि ऊपर सुरपति सघरे, पूजे त्रिजुवन इंद ॥आ॥२॥ श्रावक तिम जिन न्हवण करीने,काटे कलिमल फंद ॥ आ० ॥३॥ श्रातम निर्मल सब अघ टारी, अरिहंत रूप अमंद ॥ श्रा०॥४॥ ॥ दोहा ॥ जलपूजा विधिसे करे, टरे करममल वृंद ॥ हरे ताप सब जगतकी, करे महोदय चंद ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥राग जयजयवंती॥ सुरगण इंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) मधुर ध्वनि बंद, पठन करी करे न्हवण जिनंदा ॥ मागध वरदामने परनासा, अपर तरंगिणी उदक अमंदा ॥१॥ दीरोदधि अडजाति कलशनर, न्हवण करेजिम चोशवदा॥तिम श्रावक जिन लक्तीरंगें,न्हवण करे जरे करमको कंदा ॥सुर ॥॥ विप्रवधू सोमेश्वरी नामें,जल पूजनसें लहे महानंदा ॥कारण कारज समज जलीपरें, आतमअनुजव ज्ञान अमंदा ॥३॥ ॥अथ काव्यं ॥ मंत्रः॥ ॐ ही श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेप्राय जलं यजामहे वाहा ॥१॥ इति प्रथम पूजा॥ ॥ अथ द्वितीय विलेपनपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा॥ कुमति कुवास निरासिनी, वासिनी चिदघन रूप ॥ नासिनी अमर अनघपद, नाशिनि नव जलकूप ॥१॥ सुरपति जिन अंगें करे, सरस विलेपन सार॥श्रावक तिमलेपन करे,चंदन घसि घनसार॥२॥ ॥राग जिंद काफी ॥ कर रे कर रे कर रे कर रे, श्रीजिनचंद विलेपन कर रे ॥श्रीजि॥ ए श्रांकणी ॥ चेतन जान कल्याण करनकों, थान मिल्यो अवसर रे ॥ शास्त्र प्रमान जिनंदही पूजी, मन चंचल स्थिर कर रे॥ श्रीजि ॥१॥ सरस चंदन केशर हरिचंदन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) घसी घनसार सुधर रे ॥ कनक रतन जरी जरी रेकचोरी, मन वच तनु शुचि कर रे ॥ श्रीजि० ॥२॥ चरण जानु कर अंश शिरोपर, नालकंठ प्रजु उर रे॥ उदर तिलक नव कर जिनवरके, आतम आनंद जर रे ॥ श्रीजि० ॥३॥ ॥ दोहा ॥ शीतल गुण जिनमें वसे, शीतल जिनवर अंग॥श्रातम शीतल कारणे, पूजो अरिहंतरंग॥ ॥अथ गीतं ॥ राग कसूरी जंगलो ॥ सिकि वधू लरे, जिनरंग राची॥ जिन ॥ ए श्रांकणी॥ ह. रिचंदन घनसार सुमन हर रे, अव्य तिलक नव द॥ जि ॥१॥ अचल सुरंगी सुमन गुण लूंगी रे, जावतिलक शिर ज॥ जिन॥२॥ पूजक चार तिलक करि अंगें रे, पूजे अति हरख ॥ जि॥३॥ज. यसुर शुजमति जिनवर पूजी रे, दंपती शिवपद लक्ष ॥ जि ॥ ४ ॥ आतमानंदी करम निकंदी रे, श्रानंदरस रंग ॥ जि० ॥५॥ ॥अथ काव्यं ॥ मंत्रः ॥ ॐ ही श्री परमजिनेडाय चंदनं यजामहे स्वाहा ॥ इति पूजा ॥२॥ ॥अथ तृतीय कुसुमपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ त्रीजी पूजा सुमनकी, सुमन करे ज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) विरंग ॥ पंचबाण पीडा हरे,लावसुगंधिअनंग ॥१॥ ॥राग धन्याश्री ॥ अब मावडी गिरि जान दे, मेरा नेमजीसें काम है ॥ ए देशी ॥ अब नविक जन जिन पूज ले, जिन सुधरे सघरे काम ॥ अब० ॥ ए श्रांकणी ॥ अतिही सुगंधी कुसुम लीजें, खरचीने ब हु दाम रे ॥ मोघरा चंपक मालती, केतकी पामल आम रे ॥ अब० ॥१॥ जासुल प्रियंगु पुन्नाग ना. ग, दाउदी वरनाम रे ॥ मचकुंद कुंद चंबेलि ले,जे जगियां शुन थान रे॥ अब०॥२॥ स न जाइ जुझ, बोलसिरी शुनगम रे॥ लही कसम जिनवर देवने, पूजो जरे जिम काम रे॥अंब० ॥३॥ शुज सुमन केरी माल गुंथी, जिनगले धरी जाम रे ॥ आतम आनंद सुहंकरूं, जिम मिले शिववधूधाम रे॥ ॥ दोहा ॥ सुजग अखंम कुसुम ग्रही,दूर करी सब पाप ॥ त्रिभुवन नायक पूजिये, हरे मदन संताप ॥ ॥ अथ गीतं ॥ श्रीराग वा कालिंगडो ॥ मंगल पूजा सुरतरु कंद ॥ मंग ॥ ए देशी ॥ जिनवर पूजा शिवतरु कंद ॥ जिनवर ॥ ए आंकणी ॥ दमनक मरवो बकुल केवडो, सरस सुगंधित अति महकंद ॥ जि० ॥१॥ कुसुमार्चन नवि करो मन रंगे,ताप हरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) प्रनु जिनवरचंद ॥जि॥॥विषयि देवकों श्राक धत्तुरा, पूजे नरवायस मतिमंद ॥जि॥३॥ वणिक धुश्रा लीलावती पूजी,फूलें जिनवर हरि जव फंद॥जि॥४॥ आतम चिघन सहजविलासी, पामी सचित् पद महानंद ॥ जि ॥५॥ ॥अथ काव्यं ॥ मंत्रः ॥ श्री श्री परम ॥ जिनेसाय पुष्पं यजामहे वाहा॥इति तृतीयपूजा ॥३॥ ॥अथ चतुर्थ धूपपूजा प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ कर्मेधनके दहनकों, ध्यानानल करि चंग ॥ अव्य धूप करि श्रातमा, सहज सुगंधित मंम॥ ॥राग पीलू ॥अथवा बरवा ॥ धूप पूजा अघ चूरे रे नविका,धूप पूजा अघ चूरे ॥ एतो जव जयनासत दरें रे ॥ ज०॥ ए आंकणी ॥ कृष्णागर अंबर घ. नसारे, तगर कपूर सनूरे॥ कुंदरु मृगमदतुरक सुगंधि, चंदन अगर सचूरे रे॥ नविका॥१॥ए सब चूरण करी मनरंगें, नंगे करम अंकूरे ॥ नव नव रंगी शुकदशांगी, जिनवर श्रागें अदूरे रे ॥ नविका॥२॥ धूपदान कंचनमणि रत्ने, जडित घडित अति पूरे ॥ निधूम पावक अति चमकंती, जिनपतिको कर तुं रे ॥ नविका० ॥३॥ जिनवर मंदिरमें महमहती, द. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) शदिग सुगंध पूरे ॥ श्रातम धूप पूजन जविजनके, करम दुर्गंधने चूरे रे ॥ जवि० ॥ ४ ॥ ॥ दोहा ॥ धूपदान निज घट करी, जिनजक्तीवर धूप ॥ करम कुगंधी मिट गई, पूजे श्रातमनूप ॥ १ ॥ ॥ अथ गीतं ॥ राग खमाचका तिलाना ॥ ॥ पूजित आनंद कंदरी हेरी माई ॥ पूजित० ॥ ए क ॥ जिनप जिनंद चंद, पूजे सुर नरवृंद ॥ सेवत अनूप धूप, मिटे दुर्गंध रूप ॥ जिनवर अंध चम, तिमिरजानु तुं ॥ मरन हरन तुम, चरनननन ॥ पूजित० ॥ १ ॥ दश अंग धूप खेवी, दशही निदान सेवी ॥ सुनग सुरंगी रंगी, मुगती वधूटी लेवी ॥ जिन वर सेवी हम, ऊर्ध्व अजंग गति ॥तिम तुम गति जि न, रचनननन पूजित० ॥ २ ॥ सिद्ध बुद्ध श्रजर, अमर निर्मल || कालवेदी जव बेदी, दूर करी क लमल | एसा महानंद पद, धूप पूजा फल करे ॥ - खय जंकार नरे, कोन करे वरनननन ॥ पूजित० ॥ ॥३॥ वामांगें धूप करी, पूजी मनशुद्ध करी ॥ चारगति दुःख हरी, आत्म आनंद जरी ॥ विनयंधर नृपसात, जव सिद्धि वर ॥ नहिं को तुम विन, सरनननन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) ॥ काव्यम् ॥ मंत्रः॥ ॐ झी श्री परम जिनेंडा य धूपं यजामहे वाहा ॥ इति ॥४॥ ॥अथ पंचम दीपक पूजा प्रारंजः॥ ॥ दोहा ॥ पंचमि पूजा जिन तणी, पंचमि गति दातार ॥दीपकसे प्रनु पूजिये, पामियें केवल सार॥ ॥राग सिंध काफी॥पूजो अरिहंत रंगे रे, नवि नाव सुरंगें ॥पूजो० ॥ ए आंकणी॥ दीपक ज्योति बनी नवरंगी, जिनजीके दाहीण अंग ॥ रयण जडित चमकत शुजरंगें, गोघृत जरी अति चंगरे ॥नवि ॥१॥ करुणा रससे धरी शुल फानस, मरत न जेम पतंग ॥ जगमग ज्योती सुंदर दीपे, अनुजव दीप अग्नंग रे॥नवि० ॥२॥ जिन मंदिरमें दीप प्रगट करी, जावना शुरू मन रंग ॥ ध्यान विमल करतां अघ नासे,मिथ्या मोह नुजंग रे॥नवि॥३॥दीप दरससे तस्कर नासे,श्रातम तिमिर उत्तंगातिम जिन पूजित मिले चित्त दीपक, जरत हे समरपतंग रे॥न॥ ॥दोहा॥ अव्य दीपक विनावरी,तिमिर करे सब दूर ॥ नाव दीपक जिन नक्तिसें,प्रगटे केवल सूर॥९॥ ॥अथ गीतं ॥ राग भैरवी ॥ दीप जयंकर चिद्घ न संगी, केवल जगत प्रकाशे रे॥ ए आंकणी ॥ज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) व्य दीपक अर्चन करि रंगें, मिथ्या तिमिर निरासे रे ॥ तस फल केवल दीप सुदंकर, लोकालोक विकासे रे ॥१॥ पडत पतंग न धूपकी रेखा, केवल दीप उजासे रे ॥ जनम मरण गति चार जयंकर, दुर्मति दुःख सब नासे रे || दी० ॥ २ ॥ घृत विन पूरे ज्योति श्रखंमित, वर्त्तिक मत न चिकासे रे ॥ पाप पतंग जरत सब बिन में, ज्योतिमें ज्योति मिलासे रे ॥ दी ० ॥३॥ जिनमति धनसिरि दीप पूजनसें, सिद्धगती सुखरासें रे ॥ श्रतम आनंद घन प्रभु मिलशे, पूजत नवि जो उल्लासें रे || दीप० ॥ ४ ॥ ॥ काव्यम् ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम० जिनेंद्राय दीपं यजा० ॥ इति ॥ ५ ॥ ॥ अथ षष्ठातपूजा प्रारंभः ॥ ॥ शिव सुख कारणें, अक्षत पूजा सार ॥ चौगति चूरण साथियो, करे कुमति मत बार ॥ १ ॥ ॥ राग वढंस ॥ तुम तो सुधर नये शिव साधो, अत पूजा करो मनमें रे ॥ तुम तो ० ॥ ए यांकणी ॥ यत तंडुलमणि मुक्ताफल, साथीयो कर जिन बिंब पूरो रे ॥ माणक मरकत अंक यादिसें, जिन पूजी मन आनंद लो रे ॥ तुम० ॥ १ ॥ तंडुल गोधू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) म अन्न अखंमित,आदि ले ढिग पूज करो रे॥श्रदत पूजा करी मन रंगें, अदत सुख नंमार जरो रे ॥ तुम॥२॥ तम अनुजव रत्न सुरंगो, चिंतामणि सुरपुम खरो रे॥ अत पूजासें नवि प्रगटे, जिनवर नक्ति हृदयमें धरो रे ॥ तुम ॥३॥ __॥दोहा ॥ शुद्धादत्त तंडुल ग्रही, नंदावर्त्त विधान ॥ जिन सन्मुख होय पूजिये, जरे करमसंतान ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥राग मराठी में ॥ अरिहंत पद अ. र्चन करी चेतन, जिन सरूपमें रम रहीयें ॥ निज सत्ता प्रगटे जारकें, करम नरम निज सुख लहिये। अरिहंत ॥ ए आंकणी॥१॥ तुं निज अचल ईश विजुचिद्घन, रंग रूप विण तुं कहीयें ॥अज अच. ल निराशी, शिवशंकर अघहर जग महीयें।अरिहं० ॥॥अव्यय विनु निरंजन स्वामी, त्रिजुवन रामी तुं कहीयें ॥ सब तेरी विजूति, अक्षत अर्चनसे ऊट लहियें॥अरिहं ॥३॥मरुदेवी नंदन चरणसुहंकर, कीर जुगल अदत गहीयें ॥ करि अर्चन सुरनर, अं तमें परमात्मपद रस वहीयें ॥अरि॥४॥ ॥ काव्यम् ॥ मंत्रः ॥ ॐ ही श्री परमणा जिनें. प्राय अवतान् यजामहे स्वाहा ॥ इति ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) ॥अथ सप्तम नैवेद्य पूजा प्रारंजः ॥ ॥दोहा॥शुचि निवेद्यरस सरसगुं,जरि श्रष्टापद थालाविविध जाति पकवानसें,पूजियें त्रिजुवन पाल॥१॥ ॥राग तुमरी॥ जिन अर्चन सुखदाना रे ॥ नविका ॥ जिन ॥ ए आंकणी ॥ अमृति अमृत पाक पतासां, बरफी कंद विदाना रे ॥ फेणी घेवर मोदक पेठा, मगदल पेंमा सोहाना रे ॥ जि॥१॥लाखणसाइ सकरपारा, मोतीचूर मनमाना रे ॥ खाजा खुरमा खीर खांम घृत, सेव कंसार विधाना रे॥जिन ॥२॥ साटा दोगं मण्डी सबुनी, कलाकंद कलि दाना रे ॥ सीरा लापसी पूरी कचोरी, शाल दाल घृतानां रे ॥ जिन ॥३॥ इत्यादि नैवेद्य सुरंगा, पूजियें त्रिजुवन राना रे॥आतमयानंद शिव पदरंगी, संगी सदा प्राधाना रे ॥ जि ॥४॥ ॥दोहा॥ अनाहार पद दीजिये, हे जिन दीनदयाल ॥ करुं अर्चन नैवेद्यशु, जर जर सुंदर थाल ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥राग जंगलो॥ महावीर तोरे समवसरणकी रे ॥ महा॥ ए देशी ॥ जिनंदा तोरे चरणकमलकी रे, जो करे अचेन नर नारी ॥ नैवेद्य नरी शुन थारी, तनमन कर शुद्ध श्रागारी ॥ जिनंदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) तोरे चरण सरकी रे || जिनंदा० ॥ ए आंकणी ॥ ॥ १ ॥ वीणा रंग राजे रे, मृदंग ध्वनि गाजे रे, वाजे वा जितर जारी ॥ मिल अर्चन जन शृंगारी, श्राये जिनमंदिर शुजकारी ॥ जिनंदा० ॥२॥ जविजन पूजो रे, जगमें देव न दूजो रे, धूजे जिम करम कगरी ॥ मायुं पद आणाहारी, ज्युं वेगें वरुं शिवनारी ॥ जिनं० ॥ ३ ॥ पूजा फल ताजा रे, हालीजन राजा रे, आतमकों आनंदकारी ॥ जव जांति मिट गइ सारी, जिन अर्चनकी बलिहारी ॥ जि० ॥ ४ ॥ ॥ काव्यम् ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री परम० ॥ जिनेंद्वाय नैवेद्यं यजा० ॥ इति ॥ ७ ॥ ॥ थाष्टमफलपूजा प्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥ ष्ट करमके हरनको, श्रामि पूजा सार ॥ अडगुण आतम परगटे, फल पूजन फलकार ॥ ॥ राग ठुमरी ॥ महावीर चरण में जाय, मेरो मन लाग रह्यो । महा० ॥ ए देशी ॥ मेरो मन रंग रेंह्यो, फल अर्चन में सुखदाय ॥ मेरो० ॥ ए यांकणी ॥ श्रीफल पूगी पिस्ता बदामा, प्राख अखोड मिलाय ॥ मेरो० ॥ १ ॥ खारक मीठे अंब नारंगी, कदली सीताफल लाय || मेरो० ॥ २ ॥ द्वाख आलूचां फनस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) संतरां, अंगुर जंबीर सुदाय ॥ मेरो ॥३॥ तरबूजां खरबूज सिंगोडां, सेव अनार गिनाय ॥ मेरो ॥४॥ इत्यादि शुज फल रस चंगें, कंचन थाल जराय ॥ मेरो० ॥५॥ फलसें पूजा अर्हन् केरी, आतम शिव फल थाय ॥ मेरो ॥६॥ ॥ दोहा ॥ सादिक जिम फल करी, पूजे श्री अरिहंत ॥ तिम श्रावक पूजन करे, फल वरे सादि अनंत ॥१॥ ॥अथ गीतं ॥ रेखता॥ जिनवर पूज सुखकंदा, नसे अड कर्मका धंदा ॥ सुंदर नरि थाल रतनंदा, जिनालये पूज जिनचंदा ॥जिन॥१॥ए आंकणी॥ विविध फल साररस चंगा, अपुनरावृत्ति फल मंगा॥ अड दिहि संपदा रंगा, बुद्धि सिझी शिव वधू संगा ॥ जि ॥२॥पूजे जवि नावणुं रंगा, करी अडकमशुं जंगा॥करी शुध रूप अनंगा,उतरी अनादिकी नंगा ॥ जि०॥३॥ कीरयुग पुगता तंगा, करी फल पूजना मंगा॥आतम शिवराज अजंगा, विमल अति नीर जिम गंगा ॥ जिन॥४॥ ॥काव्यम् ॥ मंत्रः॥ ही श्री परम जिनेंडा. य फलं यजा ॥ इति ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ॥ अथ कलश ॥ ॥राग धन्याश्री॥ पूजन करो रे आनंदी, जिनंद पद पूजन करो रे॥श्रा०॥ ए श्रांकणी ॥ अष्टप्रकारी जनहित कारी, पूजन सुरतरु कंदी ॥जि॥१॥ श्रावक अव्यनाव करे अर्चन, मुनिजन नाव सुरंगी॥जि० ॥ ५ ॥ गणधर सुरगुरु सुरपति सगरे, जिनगुण कोन कहंदी ॥ जि ॥३॥ में मतिमंदही बाल रमण ज्युं, जिनगुण कथन करंदी ॥जि॥४॥ तप गह मुनिपति विजय सिंहवर, सत्य विजय गणि नंदी ॥ जि० ॥५॥ कपूर क्षमा जिनोत्तम सद्गुरु पद्मरूप सुखकंदी ॥ जि० ॥ ६॥ कीर्ति विजय कस्तूर सुहंकर, मणी विजय पद वंदी ॥ जि ॥७॥ श्री गुरु बुधिविजय महाराजा, कुमति कुपंथ निकंदी ॥ जि० ॥॥ शिखि जुग अंक छ (रए४३) शुनवर्षे, पालिताणा सुरंगी ॥ जि॥ ए॥ विमलाचल मंगन पद नेटी, तन मन अधिक उमंगी॥ जि ॥ १० ॥ आतमराम श्रानंद रस पीनो, जिन पूजत शिवसंगी ॥ जि० ॥११॥ इति ॥ इति श्रीमदात्माराम (आनंदविजयजी) महाराज विरचित अष्टप्रकारी पूजा समाप्ता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) ॥अथ सिहाचलमंमनषनजिनस्तवनं लिख्यते ॥ राग माढ ॥ मनरी बातां दाखां जी मारा राज हो झषनजी थाने ॥ मनरी०॥ ए श्रांकणी ॥ कुमतिना जरमाया जी म्हारा राज रे कां ॥व्यवहारि कुलमें काल अनंत गमाया जी म्हारा राज हो ॥झषनजी० ॥१॥ कर्म विवर कुब पाया जी म्हारा॥ मनुष्य जनमें श्रारज देशे आया जी ॥ म्हारा० ॥ ॥षन०॥॥ मिथ्या जन जरमाया जी॥ म्हारा०॥ कुगुरु वेषं अधिको नाच नचाया जी॥ म्हारा॥षन ॥३॥ पुण्यउदय फिर आया जी॥ म्हारा ॥ जिनवर जाषित तत्व पदारथ पाया जी॥ म्हाराण ॥षजम् ॥४॥ कुगुरु संग बटकायाजी ॥ म्हारा० ॥राजनगरमें सुगुरु वेष धराया जी॥ म्हारा०॥षन० ॥५॥ सघलां काज सरायां जी ॥ म्हारा ॥ मनडो मर्कट माने नही समजाया जी ॥ म्हारा ॥ षजम् ॥६॥ कुविषयासंग ध्यावे जी॥ म्हारा० ॥ ममता मायासाथें नाच नचावे जी॥म्हारा ॥ षजण ॥ ७॥ महिमा पूजा देखी मान जरावे जी ॥ म्हारा ॥ निरगुणीयाने गुणीजन जगमें कहावे जी ॥ म्हारा ॥षज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( उ ) ॥ ८ ॥ बडीवारे तुमरे द्वारें श्राया जी ॥ म्हारा० ॥ करुणासिंधु जगमें नाम धराया जी ॥ म्हारा० ॥ षज० ॥ ९ ॥ मन मर्कटकुं शिखो निजघर आवे जी || म्हारा० ॥ सघली वातें समता रंग रंगावे जी ॥ म्हारा० ॥ रुषज० ॥ १० ॥ अनुभव रंग रंगीला ॥ समता संगें जी ॥ म्हारा० ॥ श्रतमताजा अनुजव राजा रंगें जी ॥ म्हारा० ॥ रुषज० ॥ ११ ॥ ॥ अथ श्री सिद्धाचल मंगन रुषजदेवनुं स्तवन ॥ ॥ राग मराठी में ॥ कषन जिनंद विमल गिरि मंमन, मंगन धर्मधुरा कहीयें ॥ तुं कल सरूपी जारके करम, नरम निजगुण लहीयें ॥ कषन ॥ १ ॥ अजर अमर प्रभु अलख निरंजन, जंजन समर समर कहीयें ॥ तुं श्रद्भुत योद्धा मार कें, करम धार जग जश लही यें ॥ रुषज० ॥ २ ॥ अव्यय विनु ईश जगरंजन, रूप रेखा बिन तुं कहीयें ॥ शिव चर नंगी तारकें, जगजन निज सत्ता लहीयें ॥ रुष - ज० ॥ ३ ॥ शतसुत माता सुता सुदंकर, जगत जयंकर तुं कहीयें ॥ निजजन सब तारयो इमोसें, अंतर रखनां ना चहियें ॥ रुषज० ॥ ३ ॥ मुखडा जींचके बेसी रहेनां, दीन दयालको ना चहियें ॥ हम तन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) मन गरो वचनसें, सेवक अपनां कह दश्ये ॥षज॥५॥ त्रिजुवन ईश सुहंकर स्वामी, अंतरजामी तुं कहीयें ॥ जब हमकुं तारो प्रजुसें, मनकी वात सकल कहीयें॥ षनः ॥६॥ कल्पतरु चिंतामणि जाशो, आज निरासें ना रहीयें ॥ तुं चिंतित दायक दासकी, अरजी चित्तमें दृढ गहीयें ॥षजादीनहीन परगुण रस राची, शरण रहित जगमें रहीयें ॥ तु करुणा सिंधु दासका, करुणा क्यु नहि चित ग्रहीयें ॥ षन ॥॥ तुम विन तारक को न दीसे, होवे तुमकू क्यु कहीयें ॥ इह दिलमें गनी तार के, सेवक जगमें जश लहीयें ॥ षन ॥ए॥ सात वार तुम चरणे आयो, दायक शरण जगत क. हियें ॥अब धरणे बेशी नाथसें, मनवंबित सब कुछ लहियें ॥षन ॥ १० ॥ अवगुण मानी परिहरशो तो, आदिगुणी जग को करीयें ॥ जो गुणीजन तारियें तो, तेरी अधिकता क्या कहीयें ॥षना ॥ ११॥ श्रातम घटमें खोज प्यारे, बाह्यजटकते ना रहीयें। तुम अज अविनाशी धार निज, रूप आनंद घनरस लहीयें ॥ षन ॥१५॥ श्रातमानंदी प्रथम जिनेश्वर, तेरे चरण शरण रहीयें॥ सिझाचल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) राजा सब काजा, आनंद रसकों पी रहीयें ॥ १३ ॥ ॥अथधर्म जिनस्तवनं॥ ॥राग नेरवी ॥क्युं विसरो रे सुझानी जिनंदपद ॥ क्युं विसरो रे॥ए श्रांकणी ॥ मनवच तनकर पदकज सेवो, लूंगपरें लपटानी ॥जि॥१॥ मूगति सुरति त्रिजुवन मोहे, शांत सुधारस दानी ॥ जि०॥२॥ धर्मनाथ जिन धर्मके धोरी, कर्मकलंक मिटानी ॥ जि० ॥३॥ नगर नकोदर बिंब बिराजे, कर दर्शन सुख मानी ॥ जिम्॥४॥ आतम अनुजव रस दे त्राता, वेगां वरं शिव राणी ॥जि॥५॥ ॥अथ झषन जिनस्तवनं ॥ ॥राग नेरवी ॥ लागी लगन कहो केसे बूटे, प्राणजीवन प्रनु प्यारेसें ॥ लागी० ॥ ए श्रांकणी ॥ निर्मल नीरकमल सरोवरमें, भ्रमर रहत नहिं वारे सें ॥ लागो ॥१॥ चंद चकोर नये मगनमें, चकवी जग चक तारेसें ॥लागी० ॥२॥राजसिंह नवलो नेह लाग्यो, नायक नाजि फुलारेसें ॥लागी०॥ ॥राग नेरवी ॥ आज प्रनु तेरे चरणे लाग्यो, मिथ्या निंद सब खोरे ॥आज ॥ ए श्रांकणी॥ दर्शन कर परसन मन मेरो, आनंद चित्त अब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) हो रे॥श्राज ॥१॥ तुम विन देव अवर नहि दूजो, देख्या त्रिजुवन जोरे ॥ श्रा॥२॥ दास तुमारो करत विनति, तुम विन अवर न कोई रे॥ ॥राग खमाच ॥ श्रीवीतरागको दरस देख, दुविधा मेरी मिट गरे ॥ श्रीवीतरागण॥ ए श्रांकणी॥श्रष्ठजव्य लइ पूजन आयो, मनमें श्रानंद ठर्ष वधायो ॥ में जिन वाणी कान सुणी, उर्गत मेरी मीट गरे ॥ श्रीवी० ॥१॥ रसना सफल नश्अ. ब मेरी, जक्ति उच्चार करी प्रजु तेरी॥अब पाश्थानंदकी घटा, तृष्णा नेरी मीट गरे॥ श्रीवी॥२॥ अब में जन्म कृतार्थ मान्यो, गोपद तुल्य नवोदधि जान्यो ॥ अब पाश्मुक्तितणी मगर, कलिमल मेरी मीट गरे श्रीवी० ॥३॥ जब लग मुक्ति न आवे नेरे, तब लग नक्ति वसो उर मेरे ॥ तेरी बबी चंदनके हृदे, तन मनसे लिपट रही रे ॥ श्री० ॥ ४॥ ॥अथ शांतिजिनस्तवनं ॥ ॥राग खमाच ॥ शांति वदन कज,देख नेन मधुकर मन तीनो रे ॥ शांति ॥ ए आंकणी ॥ श्री जिनके मकरंद वेन,विरमी नव उर्गंध घन ॥ शिव पुरके सदा सुख कंददेन, समकित रस जीनो रे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) शांति ॥ १॥ कामित पूरण कामधेन, मद मोह के चूरण ठाम फेन ॥ लीये मनको अति आराम चेन, गुंजे अति जिनो रे ॥ शांतिः ॥२॥ कपूर कहे जिन पदकुं एन, उर धारो नवि तार लेन ॥होय मुक्ति सेज परसार सेन, आगम कहि दीनो रे ॥शां॥३॥ ॥अथ जिनस्तवनं ॥ ॥राग नेरवी ॥ पांच वरणनी आंगी राची, कुसुमनी जाती ॥ पांच ॥ ए आंकणी ॥ कुंद मचकुंद गुलाल शिरोवर, कर करणी सोवन जाती॥ पांच० ॥१॥ दमनक मरुव पागल अरविंदो, अंश जुश् बेउल बाती ॥ पांच० ॥२॥पारधी चरण कव्हार मंदारो, वर्ण पटकुल बनी जाती ॥ पांच० ॥३॥ सुर नर किन्नर रमणी गाती, नेरव कुगति पुत जाती ॥ पांच ॥४॥ ॥अथ महावीरजिनस्तवनं ॥ ॥राग तुमरी ॥ महावीर तोरे समवसरणकी रे ॥ महा ॥ हुँ जाउं बलिहारी वारी रे ॥ ए आंकणी॥त्रण गढ उपर रे, तखत बीराजे रे, वाणी जन जोजन सारी॥ हुँ जाउं बलिहारी वारी रे॥हुं॥ महावीर तोरे ॥ सम॥१॥ देशना अमृत रे, धा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) रा वरसे रे, जिन शासन हे जयकारी ॥ हुं जाउं बबिहारी वारी रे || हुं० ॥ महावीर तोरे ॥ सम०॥२॥ ज्ञान विमल सूरि रे, जिन गुण गावे रे, तारयां बे नर ने नारी ॥ हुं जाउं बलिहारी वारी रे ॥ म० ॥ ३॥ ॥ अथ अध्यात्म सधाय ॥ ॥ राग माढ ॥ अध्यातम प्रीत लागी रे, प्रीतलागी रे अध्यातम ॥ एकणी ॥ जेसें पंखी पींजरे रे, सोच करे मन मांद ॥ पर गुण अवगुणना लदे री, रहत जगतसें उदास ॥ अध्या० ॥ १ ॥ रत्न जडितको पिंजरो रे, शुका जानत फंद || तीनलोककी संपदा रे, मुनि जन मानत फंद ॥ अध्या० ॥ २ ॥ कदली वन रेवा नदी रे, गज चाहे मनमांहि ॥ दर्शन ज्ञान चारित्रकुं रे, मुनि जन विसरत नांहि ॥ श्र ध्या० ॥ ३ ॥ सोहं सोहं सोहं सोहं, अजपा जपे रे जाप || तिन लोककुं सुख करे रे, केवल रूपी श्राप ॥ अध्या० ॥ ४ ॥ एसे गुरुकुं सेवीयेंजी, रहत जगतसे उदास ॥ राग द्वेष दोय परिहरे ताकुं, रहत आनंदघन पास || अध्या० ॥ ५ ॥ ॥ अथ वैराग्यपदम् ॥ ॥ राग सोरठी ॥ डुनीयां मतलबकी गरजी के, For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) व मोहे नीके जान पडी ॥ पुनीया ॥ए आंकणी॥ जोवनवंती नार हुवे जब, पीयाको रंगरली॥ जोवन गयां को वात न पूजे, फीरेती गलीय गली के॥ अब० ॥१॥ जब लगे बेल वहे धनीयका, तबलग चाह धणी ॥ बूढे बेलकी सार न जाणे, रुलता गलीय गली के ॥ अब० ॥॥ हरे पेड पर पंखी बेग, जपता नाम हरि ॥पान ऊडे पंखी उठ चाव्या, एही रीत खरी के ॥ अ॥३॥ सतवंती सतसे उठ चाली, मोहके जाल फसी॥ जूधर कहे जिने मर्म न जान्या, मुरदे संग जली के ॥ अब० ॥४॥ ॥अथ नेमजिनस्तवनम् ॥ . ॥राग तुमरी ॥ मोरवा बपैया बोले, पियु पियु वनमें ॥ नेम श्याम गये सहसा वनमें ॥ मोरवा॥ ए श्रांकणी ॥ निशि अंधियारी कारी विजरी मरावे, मुजी विरह व्याकुल न तनमें ।मोरवा॥१॥ रीमजीम रीमजीम वादल वरसे, नदीयां शोर करत हे रनमें ॥ मोरवा ॥२॥ आनंद इसमे देखन चाहत, राजुल जर हे विरागण बिनमें । मो० ॥३॥ ॥ अथ समेतशिखरजीनी लावणी॥ ॥ बारा कोश विस्तार चक्रधारी,बन रहे मनोहर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) पर्वत सुखदाइ॥ एकजिपंच इंजितलक तांइ, धर गुणचास वर शिवरमणी पाश् ॥ मेरी लागी लगन समेतशिखरजीसें, धन घडी दिवस जब देखु नेनों सें ॥ ए श्रांकणी ॥१॥ ॥ दोहा । शिखर नूमि खारथ सती, लिखी ग्रंथमें सोय ॥ जहां असंख्यात शिवपद लीया, कोर्नु वरनन होय ॥१॥ ए विश टुक पर्वत पर सुखदाइ,धर ध्यान धरे जिहां वरे मोदनारी॥धन जोम शुरू श्रारजकी बलिहारी, शुज कर्म उदयसें पावत नर नारी ॥ तिर्यंच नरकगति बूटे दरशनसें, धन घडी दिवस जब देखु नेनोसें ॥ मेरी ॥२॥ ॥दोहा॥ मन वच तन कर नावसे, करुं वंदना तोय ॥सुरपत नरपत नागपत, शिव रमणीवर होय ॥२॥ ए डंमा सर्पिणी काल दोष जानो, चन तीरथ है चोघडी लीये थानो ॥ कैलास आदि गिरनार नेम जानो, श्रीवासुपूज्य चंपापुर हिये थानो॥ श्री वीरधीर गये पावा पुरी स्थलसें, धन घडी दिवस सब देखु नेनोंसें ॥ मेरी ॥३॥ ॥दोहा॥ पंच सेहेर पुरके निकट,गर्वनवादा गाम ॥ तामध्ये शिव पद लिया, श्रीगौतम जगवान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ॥ ३ ॥ नाद्रोपद पडवा संवत श्रहारासें, धर नवके ऊपर, पांच चले घरसें ॥ काशी पटणा ममदर्श विविध दिलसें, हम दरस कीये आनंदघन वरसें ॥ धनलाल वंदना करूं शुद्ध मनसें, धन घडी जब देखुं नेनोंसें ॥ मेरी लागी लगन समेत शिखरजीसें, धन घडी दिवस जब देखूं नॅनोंसें० ॥ मेरी० ॥ ४ ॥ ॥ अथ गुरुगुण गहूंली ॥ ॥ जगत गुरु जिनवर जयकारी ॥ ए देश ॥ श्रोता रे सुणो गुरु गुणना रागी, जाणो रे थारी जाग्य द शा जागी ॥ श्रोता रे सुणो गुरु गुणना रागी ॥ ए यांकणी ॥ जंबूमां रे जरत जलो सुणी यें, देश गुर्जर राजनगर गणयें ॥ शोजा रे तेह शहेर ती सुपीयें ॥श्रोता रे० ॥ १ ॥ शोने रे जिनमंदिर जयकारी, के शत उपर व निरधारी ॥ नमे रे जिहां नित नित नर नारी ॥ श्रोता रे० ॥ २ ॥ करमदल कापवा बलवंता, साधु रे जिनशासनमां रमता ॥ एतो रे पांचे इंडियने दमता ॥ श्रोता रे० ॥ ३ ॥ श्राव्या रे गुरु देश विदेश फरी, भूमि राजनगरनी पवित्र करी ॥श्रोता रे मन संशय दूर हरी ॥ श्रोता रे० ॥ ४ ॥ संवत उगणीश चालीश विषे, गुरु गिरुवा जंगणीश शि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) ज्ये, रहि रे राजनगरमां कर्म पीसे ॥ श्रोता रे॥५॥ तृष्णा तरुणीथी मन ताणी, विरति रमण। करी पटराणी ॥ जेह उन्नय लोकमां सुख खाणी ॥ श्रोता रे ॥६॥ विवेक ने मंत्री पदताजा,संवेग कुंवर कीया युवराजा ॥ संवर रहे हाजरदरवाजा ॥ श्रोता रेण ॥७॥ आर्जव पटहस्ति महानारी, विनयरूप घोडा शणगारी ॥ मुनि श्रातमराज करे जारी॥श्रो ता रे ॥७॥रथ संजम शियल तणा जरीया, सुजट शमदमयी श्रलंकरीयामुनि॥रेसमता रसना दरिया ॥ श्रोता रे ॥ ए ॥ के समकित महेल मनो हारी, संतोष सिंहासन गुणकारी॥बेग रे जहा मुनि मुजाधारी श्रोता रे॥ १० ॥ चामर जिहां धर्म शुकल करता, कीरति जश बत्र जीहां फरतां॥ कस्या रे जेणें मोह रिपु मरता ॥ श्रोता रे ॥१९॥ अलिक अव्य राज कमुश्रलयं, नर्बु रे नाव राजमा मन वलग्युं ॥ कुरित वन शीघ्र जेथी सलग्युं ॥श्रोता रे ॥१२॥ श्रातमरूप लक्ष्मी रूडी लेवा, सदा करे शांतिविजय सेवा ॥ मले रे जेथी मुक्ति तणा मेवा॥ ॥अथ गुरुगुण गढूंदी॥ ॥ जवि तुमें सुणजो रे, जगवती सूत्रनी वाणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) ॥ एदेशी ॥ नवि तुमें सुणजो रे, गुरु मुख मधुरी वाणी॥ दिलमां धरजो रे, समता रसगुणखाणी ॥ ए आंकणी ॥ पंजाब देशमां जन्म लियो गुरु, बालपणे व्रत लीधां ॥ व्याकरणालंकार जणीने, उर्मत दूर की धा ॥ नवि० ॥१॥ नाम समान गुणे शोनंता, सुमति गुप्तिना धारी॥श्रातम निजपद ध्यानमां लीना, जीना जिन गुणक्यारी ॥ नविण ॥२॥आगम अनुसारी किरियामां, अप्रमत्त गुरुराया ॥ तृष्णा तरुणीथी मन ताणी, संयम तान लगाया ॥ नवि० ॥३॥ गाम नगर पुर देश विदेशें, विचरंता व्रतधारी ॥बहु जनने प्रतिबोध दश्ने,धर्मति दूर निवारी॥नविणा॥ संशय शत्रु नयंकर वारी, जयश्री निर्नय कीधा॥ स्यादमत तत्वखरूप बतावी,लोचन अमनेदीधजिविण ॥५॥ कुमत वादलां दूर निवारी,कीधोहम सुपसाय ॥ फलहल दीवडा जिनवाणीना, प्रगटाया गुरुराय ॥ नवि० ॥६॥ एह उपगार तुमारो कहो गुरु, विसास्यो किम जाय ॥ स्मरण करी उपकारी तणा सहु, गुण गातां मुख जाय ॥ ज०॥७॥ज्ञान ना गुण गातां,ज्ञानी गुणथी जरीया॥शांतिविजयकहे गुरु गुण दरीया,केम तराये तरीया॥०॥॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) ॥ अथ गद्रंली नाग पहेलो ॥ ॥श्रा गहूंलीमां मुनि श्रीश्रात्मारामजी (श्रानंद विजयजी) महाराजनुं जन्म चरित्र पण किंचित्मा त्र बताववामां आव्यु ॥ ॥सांजलजो रे मुनि संजमरागी, उपशम श्रेणे चडीया रे ॥ ए देशी ॥ नर्बु थयुं रे मारे सुगुरु प. धार्या,जिन आगमना दरीया रे॥ ए श्रांकणी॥ ज्ञान तरंगें खेहेरो लेता,ध्यान पवनथी जरीया रे॥जलु थयु रे ॥१॥ आज कालमा जे जिन भागम, दृष्टि पंथमा श्रावे रे॥गहन गहन तेहना जे अर्थो, प्रगट करीने बतावे रे ॥ ज० ॥२॥ शक्ति नहि पण न. क्ति तणे वश, गुण गावा उलसाईं रे ॥ कर्ण अमृत गुरु चरित सुणावी, आनंद अधिक वधावू रे॥ ज० ॥३॥ दक्षिण दिशि जंबूहीपमाहि, एहि जरतमोकार रे॥ उत्तर दिशि पंजाब देश जहां, लेहेरा गाम मनोहार रे ॥ नम्॥४॥ दत्रियवंश गणेशचंद घर, जन्म लीया सुख धामें रे॥ रूपदेवी कुदिशुक्तिमां, मुक्ताफल उपमाने रे ॥ ज ॥ ५ ॥ लघुवयमां पण लक्षणथी बहु, दीपंता गुरुराया रे ॥ संगतथी मती ढूंढक जनने, ढूंढकपंथ धराया ॥रे ॥०॥६॥सं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) वत उगणीशे दश मांही, उज्ज्वल कार्तिक मासें रे ॥ पंचमीने दिवसें लिये दीदा, जीवणराम गुरुपासें रे ॥ ज० ॥ ७॥ ज्ञान नण्या वली देश फस्या बहु, जूनां शास्त्र विलोकी रे ॥ संशय पडिया गुरुने पूजे, प्रतिमा केम उवेखी रे ॥ ज० ॥॥ उत्तर न मिल्या जब गुरुजीने,झानकला घट जागी रे॥ सुमतासखी घट आण वसी जब, ढूंढपंथ दिया त्यागी रे ॥ज ॥ए ॥ धर्म शिरोमणि देश मनोहर,गुर्जर नूमि र. साली रे॥ज्यां श्रावी सुविहित गुरु पासें, मन शंका सहु टाली रे ॥ ज० ॥ १० ॥ परम कस्यो उपगार तुमें बहु,श्रीगुरु आतमराया रे ॥ जयवंता वर्तो था जरतें, दिन दिन तेज सवाया रे ॥०॥१९॥ सुषम काल समे गुरुजी तुमें, वचन दीवडा दीधा रे॥ शांतिविजय कहे जेथी हमारां, विषम काम पण सिकां रे ॥ ज० ॥ १२ ॥ इति ॥ ॥अथ गहूली जाग बीजो ॥ ॥ देशी पहेला प्रमाणे ॥ कहां गया रे मारे सुगुरु सनेही,रत्नत्रयीना धारी रे॥ज्ञान अपूरव दान दश्गुरु जडता दूर निवारीरे ॥कहां॥॥संवत उंगणीशे बत्री शें,राजनगर मोकार संजम लीया सुविहित गुरु पा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए१) सें, सोल शिष्य परिवार रे॥कहा॥२॥ चरण क. रण गुणधर अनूपम, श्रीगुरु श्रातमराम रे ॥ जिन शासन शणगार महामुनि, तत्त्वरमणना धाम रे ॥ कहां॥३॥ नय गम नंग प्रमाण करीने, जीवादिकनुं स्वरूप रे ॥ध्रुव उत्पाद नाशथी गुरुने, जाण्यु निखिल अनूप रे ॥कहा॥४॥ जाण्या अव्यह गुण पर्याय, धर्माधर्म श्राकाश रे ॥ पुद्गल काल अने वलि चेतन, नित्यानित्य प्रकाश रे ॥ कहां ॥५॥ परम कस्यो उपगार तुमें गुरु, उर्मत दूर नसाया रे॥ जय जयकार थयो जिनशासन,श्रानंद अधिक सवाया रे॥कहा॥६॥जो न होत था वखत तुमारा, वचन दीवडा रूडा रे॥ तो दूषम अंधारी रातें, खेत अमें मत कूडां रे ॥कहां॥७॥ विद्यानी वधती करवामां, जेना विविध विचार रे ॥ ए गुरुना उपकार कहो किम, जूले श्रा संसार रे॥ कहां ॥ ७॥ देश बहु विचरो गुरुराया,क्रोड करो शुज काम रे॥अंतर घटमां शांतिविजय पण, राखे जे दृढ हाम रे ॥ए॥ ॥अथ गहूंली॥ ॥ जवि तुमें अष्टमी तिथि सेवोरे॥ए देशी॥ रहो गुरु राजनगर चोमासु रे, गुणनिधि गुण तुमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) रा गाशुं // रहो गुण // ए आंकणी // तुमें रागथी नही रंगाया रे, नहीं देष रिपुश्री बंधाया, महा मोहथी नांही लीपाया // रहो // 1 // धन माल श्रने राजधानी रे, महा संकट आकर जानी रे॥ तुमें बोडी उनीयां दीवानी // रहो // 2 // पांच ईजिय सुजटथी शूरा रे, बालस विकथाथी दूरा रे, चार चोर कस्या चकचूरा ॥रहो // 3 // ज्ञान दोरीथी मनकपि बांध्यो रे, तीर तत्त्व रमणतामां साध्यो रे, जहां समकित अजुत लाध्यो // रहो // 4 // गुरु विद्या वेलडीयें विटाया रे, जेनी कल्पतरु सम काया रे, ए तो समता जलथी शिंचाया // रहो // 5 // तुमें शास्त्र सुधारस लीधो रे, महा मोहरिपु वश कीधो रे, तुमें अनुभव प्यालो पीधो // रहो० // 6 // तुमें ज्ञान रतन नंमार रे, करवा हम पर उपकार रे, थजो नोधाराना आधार // रहो // 7 // तुम आणा सदा शिर धरशुं रे, तप नियम विशेषे करशुं रे, कहे शांतिविजय अनुसरशुं // रहो॥७॥ इति // Jain Educationa International For Personal and Private Use Only