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व्य दीपक अर्चन करि रंगें, मिथ्या तिमिर निरासे रे ॥ तस फल केवल दीप सुदंकर, लोकालोक विकासे रे ॥१॥ पडत पतंग न धूपकी रेखा, केवल दीप उजासे रे ॥ जनम मरण गति चार जयंकर, दुर्मति दुःख सब नासे रे || दी० ॥ २ ॥ घृत विन पूरे ज्योति श्रखंमित, वर्त्तिक मत न चिकासे रे ॥ पाप पतंग जरत सब बिन में, ज्योतिमें ज्योति मिलासे रे ॥ दी ० ॥३॥ जिनमति धनसिरि दीप पूजनसें, सिद्धगती सुखरासें रे ॥ श्रतम आनंद घन प्रभु मिलशे, पूजत नवि जो उल्लासें रे || दीप० ॥ ४ ॥
॥ काव्यम् ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम० जिनेंद्राय दीपं यजा० ॥ इति ॥ ५ ॥
॥ अथ षष्ठातपूजा प्रारंभः ॥
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शिव सुख कारणें, अक्षत पूजा सार ॥ चौगति चूरण साथियो, करे कुमति मत बार ॥ १ ॥ ॥ राग वढंस ॥ तुम तो सुधर नये शिव साधो, अत पूजा करो मनमें रे ॥ तुम तो ० ॥ ए यांकणी ॥ यत तंडुलमणि मुक्ताफल, साथीयो कर जिन बिंब पूरो रे ॥ माणक मरकत अंक यादिसें, जिन पूजी मन आनंद लो रे ॥ तुम० ॥ १ ॥ तंडुल गोधू
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