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चारि पदयोग ॥ जे उवकाय सदा ते नमतां, नावे जवजय सोग रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ १५ ॥ बावना चंदन रस समवय, श्रहितताप सवि टाले ॥ ते नवकाय नमीजें जे वली, जिन शासन अजुवाले रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २० ॥
॥ ढाल ॥ तपसझायें रत सदा, द्वादश अंगना ध्याता रे ॥ उपाध्याय ते यातमा, जगबंधव जग जाता रे ॥ वी० ॥ ५ ॥ इति उपाध्यायपद पूजा ॥ ॥ पंचम मुनिपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥ काव्यं, इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ साहू संसाहि संजमाणं ॥ नमो नमो सुद्ध दयादमाणं ॥
॥ जुजंगप्रयात वृत्तम् ॥ करे सेवना सूरिवायग गलीनी, करूं वर्णना तेहनी शी मुणिनी ॥ समेता सदा पंचसमिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्तें नहीं काम जोगेषु लि. ता ॥ १ ॥ वली बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि टाली, होये मुतिनें योग्य चारित्र पाली ॥ शुभाष्टांग योगें रमे चित वाली, नमूं साधने तेह निज पाप टाली ॥ २ ॥
॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ सकल विषय विष वारीनें, निःकामी निःसंगी जी ॥ जवदवताप शमावता, यातमसाधन रंगी जी ॥ १ ॥ जलालो ॥ जे रम्या
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