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शुक स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा ॥ काउसग्ग मुखा धीर आसन, ध्यान अन्यासी सदा ॥ तप तेज दीपे कर्म जीपे, नैव बीपे परजणी ॥ मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित जणी ॥२॥
॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥
जिम तरुफूलें जमरो बेसे, पीडा तस न उपावेलरसने आतम संतोषे,तिम मुनि गोचरीजावे रे ॥०॥ सि ॥१॥ पंच इंजियने कषाय निरंधे, षट कायक प्रतिपाल ॥ संयम सतर प्रकार श्राराधे, वंदू तेह दयाल रे ॥ ज० ॥ सि ॥२२॥ अढार सहस शीलांगना धोरी, अचलयाचार चरि त्र॥ मुनि महंत जयणायुत वांदी, कीजें जनम पवित्र रे॥ ज० ॥ सि॥२३॥ नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाले, बारसविह तप सूरा ॥ एहवा मुनि नमियें जो प्रगटे, पूरवपुण्य अंकूरा रे ॥ ज० ॥ सि ॥२४॥ सोना तणी परें परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वानें। संजमखप करता मुनि नमिये, देशकाल अनुमानें रे ॥ न०॥ सि० ॥२५॥
॥ ढाल ॥ अप्रमत्त जे नित रहे, नवि हरषे नवि सोचे रे ॥ साधु सुधा ते श्रातमा, शुं मूंगे
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