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(५३) जबहीं प्रगटे, तबही लहे नवपारी ॥ तु ॥७॥ यह पढकें सुगंध पुष्पें करी नगवानके शरीरें अंगी रचे.
॥अथाष्टमचूर्णपूजा प्रारंजः ॥ ॥ घनसार, अगर, सेलारस, मृगमद, सुगंधवटी करी हाथमें लेके जिनेश्वरके आगे खडा रहे, उर मुखसे इस मुजब पढे, सो लिखते हैं...
॥ दोहा ॥ जिनपति पूजा पाठमी, अगर जला घनसार ॥ सेलारस मृगमद करी, चूरण करी अपार ॥१॥ चुन्नारोहण पूजना, सुमती .मन आनंद ॥ कुमती जन खीजे अति, जाग्यहीन मतिमंद ॥२॥
॥ढाल॥राग जोगीयो।नाथ मेंY बडकें,गढ़ गिरनार तुं गयो री॥एदेशी॥ करम कलंक दह्योरी,नाथ जिनजजके ॥ ए शांकणी ॥ अगर सेलारस मृगमद चूरी, अतिघनसार मह्यो री॥ ना० ॥१॥ तीर्थकर पद शांति जिनेश्वर, जिन पूजीने ग्रह्यो री॥ ना॥२॥ अष्टकरम दल उदनट चूरी, तत्त्वरमएकू लह्यो री ॥ना॥३॥धागेही प्रवचन पा. लन शूरा, दृष्टि श्राप रह्यो री ॥ ना॥४॥ श्रकाजासन रमणता प्रगटे, श्रीजिनराज कह्यो री॥ ना ॥ ५ ॥आतम सहजानंद हमारा, थामी
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