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उपगारी, वली जिम रवि शशी मेह रे ॥ ज०॥ सिप ॥ ३४ ॥ लोक ऊरध अध तिर्यगू ज्योतिष, वैमानिकनें सिछि॥लोक श्रलोक प्रगट सविजेदथी, ते झाने मुफ शुफि रे ॥ न॥ सि ॥ ३५ ॥
॥ ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म ,दय उपशम ते थाय रे॥तो हुवे ए हिज श्रातमा, शानश्रबोधता जाय रे ॥ वी० ॥ ॥ इति सम्यक् ज्ञानपदपूजा ॥
॥अष्टम चारित्रपदपूंजा प्रारंजः ॥
काव्यं, इंडवज्रावृत्तम् ॥ आराहिअखंमिश्रस किस्स, नमो नमो संजम वीरिअस्स ॥
॥जुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ वली शानफल चरण धरियें सुरंगें, निराशंसता छाररोधप्रसंगें ॥ जवांजोधि संतारणे यानतुल्यं, धरूं तेह चारित्र अप्राप्तमूल्यं ॥ १॥ होयें जास महिमाथकी रंक राजा, वली छादशांगी नणी होय ताजा ॥ वली पावरूपोपि निःपा प थाय, थई सिक ते कर्मने पार जाय ॥२॥
॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ चारित्रगुण वली वली नमो, तत्त्वरमण जसु मूलो जी ॥ पररमणीय पणुं टले, सकल सिक अनुकूलो जी॥१॥ जलालो॥ प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम, तत्त्व थिरता दममयी।
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