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________________ (१४) शुचि परम खंती मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचयी॥ सामायिका दिकन्नेद धर्मे,यथाख्यातें पूर्णता॥अकषाय अकलुष अमल उज्ज्वल, काम कश्मल चूर्णता॥२॥ ॥ पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ देश विरति ने सरव विरति जे, गृहि यति ने अनिराम॥ ते चारित्र जगत जयवंतुं, कीजें तास प्रणाम रे॥न ॥ सि ॥ ३६ ॥ तृणपरे जे षट खंम सुख मी, चक्रवर्ति पण वरियो ॥ते चारित्र अखय सुख कारण, ते में मनमांहे धरियो रे॥ना सि॥३॥ हुआ रांक पणे जे श्रादरी, पूजित पद नरिंदें॥ अशरण शरण चरण ते वंदूं, पूयुं ज्ञान आनंदें रे ॥ ज० ॥ सि॥ ॥३०॥ बार मास पर्यायें जेहनें, अनुत्तर सुख अ. तिक्रमियें॥ शुक्ल शुक्ल निजात्य ते ऊपर,ते चारित्रने नमियें रे ॥ ज० ॥ सि ॥ ३ए ॥ चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह ॥ चारित्र नाम निरुत्ते नांख्युं, ते वंदूं गुणगेह रे॥०॥ सि०॥४०॥ ॥ ढाल ॥ जाण चारित्र ते यातमा, निज खनावमा रमतो रे ॥ लेश्या शुफ़ अलंकस्यो, मोहवनें नवि जमतो रे ॥ वी० ॥॥श्त्यष्टम चारित्र पद पूजा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003851
Book TitlePuja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1818
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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