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________________ (४) दय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपो जी ॥ अव्याबाध प्रनु. तामयी, श्रातम संपत्तिजूपो जी॥१॥ उलालो ॥ जेहनूप श्रातम सहज संपति,शक्ति व्यक्तिपणे करी॥ खजव्यदेव खकालनावें, गुण अनंता श्रादरी ॥ स्वजाव गुणपर्याय परिणति, सिकिसाडन परजणी ॥ मुनिराज मानसहंससमवड,नमो सिक महागुणी॥२॥ ॥पूजा ॥ ढाल ॥ श्रीपालना रासनी देशी ॥ समयपयेसंतर अणफरसि, चरम तिनाग विशेष ॥ अवगाहन लही जे शिव पहोता, सिक नमो ते अशेष रे ॥नासि॥६॥ पूर्वप्रयोगनें गतिपरिणामें, बंधन बेद असंग ॥ समय एक ऊर्ध्वगति जेहनी, ते सिक प्रणमो रंग रे॥नासि॥॥ निर्मल सिझशिलानी उपरें, जोयण एक लोगंत ॥सादि अनंत तिहां स्थितिजेहनी. ते सिझ प्रणमो संत रे ॥ ज० ॥ सि०॥ ॥ जाणे पण न सके कही परगुण, प्राकृत तिम गुण जास ॥ उपमाविण नाणी नवमांहे, ते सिक दीयो उबास रे॥नासि॥॥ज्योतिझुंज्योति मिली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ श्रातमराम रमापति समरो,ते सिझसहज समाधि रे॥नासि०१० ॥ ढाल ॥ रूपातीत खनाव जे, केवल दसपना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003851
Book TitlePuja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1818
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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