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(४१) ॥३॥ संप्रदाय अनुनवरस रंगें, कुमति कुपथ विहरणीने ॥ नवि० ॥ ४॥ सदगुरुकी ए तालिका नीकी, रतन संमुख उद्धरणीने ॥ नवि०॥५॥श्न विन अर्थ करे सो तस्कर, काल अनंता मरणीने ॥ जवि० ॥६॥ सम्मति कर्म ग्रंथ रत्नाकर, बेद ग्रंथ फुःख हरणीने ॥ नवि०॥७॥छादशार वली अंग उपांग, सप्तनंग शुछ वरणीने ॥ नवि०॥ ॥ इत्यादिक नवि शान अपूरव, पठन करे धरे चरणीने ॥ नविपासागरचंद जिनपद पायो,आतम शिव वधु परणीने ॥ नवि०॥१०॥ काव्यम् ॥अतिशयमंत्रः॥ ॐ ही श्री प० ॥ श्रनिनवानपदाय ज० ॥ य० ॥
॥ अथैकोनविंशति श्री श्रुतपदपूजा प्रारंजः ॥
॥दोहा॥पाप तापके हरणकों,चंदन सम श्रुत झान॥श्रत अनुजव रस राचियें,माचियें जिनगुण तान ॥१॥ गुणवीश पद पूजियें, जिनवर वचन अन्नंग ॥ तीर्थंकर पद नवि लहे, बार कुमतिको संग ॥२॥ - ॥ श्रीराधे राणी ॥ दे मारो ने बांसरी हमारी॥ श्रीराधे ॥ ए देशी ॥राग कल्याण ॥ श्री चिदानंद विमारो ने, कुमति जो मेरी ॥ श्री० ॥ ए आंकणी॥ सुषम कालमें कुमति अंधेरो, प्रगट करे सब चोरी
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