SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४२ ) ॥ श्री० ॥ १ ॥ बत्तीस दोष रहित श्रुत वांचे, आठ गुणें करी जोरी ॥ श्री० ॥ २ ॥ अरिहंत गणधर जाषित नीको, श्रुत केवली बल फोरी ॥ श्री० ॥३॥ प्रत्येक बुद्ध दश पूरवधर, श्रुत हरे जवकों री ॥ श्री० ॥ ४ ॥ श्रव चार जो कालादिक हे, साधे करमनी चोरी ॥ श्री० ॥ ५ ॥ चारोहि अनुयोग गुरुगम वांचे, टूटे कुपंथनी दोरी ॥ श्री० ॥ ६ ॥ चौद द श्रुत वीश नेद है, अंग पयन्नाको री ॥ श्री० ॥ ॥ ७ ॥ रत्नचूड नृप ए पद सेवी, प्रतम जिनपद हो री ॥ श्री० ॥ ८ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिश० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री परम ॥ श्रुताय जला० ॥ ॥ इति ॥ १९॥ ॥ अथ विंशति तीर्थपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥दोहा॥ जनमतकी परजावना, करे प्रजावक याठ ॥ श्रावक धन खरची करे, रथयात्रादिक ठाव ॥१॥ प्रावचनी अरु धर्मकथी, वाद निमित्त सुझान ॥ तपी सिद्ध विद्या कवि, या प्रजावक जान ॥ ॥ राग पीलू ॥ तीर्थ उजारो अब करीयें, नविक वृंद || दाख्यो रे जिन पद, आनंद जरे री ॥ तीर्थ ॥ एक ॥ तीर्थ प्रकार दोय, थावर जंगम जोय ॥ सिद्धगिरि आदि जोय, दर्श करे री ॥ ती० ॥ १ ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003851
Book TitlePuja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1818
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy