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॥ श्री० ॥ १ ॥ बत्तीस दोष रहित श्रुत वांचे, आठ गुणें करी जोरी ॥ श्री० ॥ २ ॥ अरिहंत गणधर जाषित नीको, श्रुत केवली बल फोरी ॥ श्री० ॥३॥ प्रत्येक बुद्ध दश पूरवधर, श्रुत हरे जवकों री ॥ श्री० ॥ ४ ॥ श्रव चार जो कालादिक हे, साधे करमनी चोरी ॥ श्री० ॥ ५ ॥ चारोहि अनुयोग गुरुगम वांचे, टूटे कुपंथनी दोरी ॥ श्री० ॥ ६ ॥ चौद द श्रुत वीश नेद है, अंग पयन्नाको री ॥ श्री० ॥ ॥ ७ ॥ रत्नचूड नृप ए पद सेवी, प्रतम जिनपद हो री ॥ श्री० ॥ ८ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिश० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री परम ॥ श्रुताय जला० ॥ ॥ इति ॥ १९॥ ॥ अथ विंशति तीर्थपद पूजा प्रारंभः ॥ ॥दोहा॥ जनमतकी परजावना, करे प्रजावक याठ ॥ श्रावक धन खरची करे, रथयात्रादिक ठाव ॥१॥ प्रावचनी अरु धर्मकथी, वाद निमित्त सुझान ॥ तपी सिद्ध विद्या कवि, या प्रजावक जान ॥
॥ राग पीलू ॥ तीर्थ उजारो अब करीयें, नविक वृंद || दाख्यो रे जिन पद, आनंद जरे री ॥ तीर्थ ॥ एक ॥ तीर्थ प्रकार दोय, थावर जंगम जोय ॥ सिद्धगिरि आदि जोय, दर्श करे री ॥ ती० ॥ १ ॥
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