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( ४३ )
शिखर समेत चंपा, पावापुरी दुःख कंपा ॥ अष्टापद रेवत, जिनंद शिव वरे री ॥ ती० ॥ २ ॥ इत्यादि जिनस्थान, जनम विरत ज्ञान ॥ समज सुजान गन, नक्ति खरे री ॥ ती० ॥ ३ ॥ थावर तीर्थ रंग, मन धरी यति चंग ॥ संघ काढी महानंद, धर्मशुं धरे री ॥ ती० ॥ ४ ॥ संघकी जक्ति करी, जेजेकार जग करी ॥ पावत प्रजावनासें, उन्नति करे री ॥ ती० ॥५॥ जरत सागर लेन, महापद्म हरीषेण ॥ संप्रति कुमारपाल, वस्तुपाल नरे री ॥ ती० ॥ ६ ॥ तम श्रानंद पूर, करम कलंक चूर ॥ मेरुप्रन जिन पद, सुखमें वरे री ॥ ती० ॥७॥ काव्यम् ॥ ति० ॥ मंत्रः ॥ ॐ श्री श्री परम०॥तीर्थेयो जलादिकं यजा० ॥ इति विंश० ॥२०॥
॥ अथ कलश ॥ राग धन्याश्री ॥
॥ शुद्ध मन करो रे नंदी, विंशति पद ॥ शुद्ध ॥ए कणी ॥ विंशति पद पूजन करी विधिशुं, उजमणुंकरो चित्त रंगी ॥ विं ॥ १ ॥ ए सम अवर न करणी जगमें, जिनवर पद सुख चंगी ॥ विं० ॥ २ ॥ तप ग गगनमें दिनमणि सरिसो, विजय सिंह विरंगी ॥ विं ॥३॥ सत्य कपूरक्षमा जिन उत्तम, पद्मरूप गुरु जंग ॥ ॥विं ॥३॥कीतिविजय गुरु समरस जीनो, कस्तूरमणि हे निरं
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