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जगमें तिमिर ज्ञान रे ॥ जो जिनवचन सूर तम नाशक, जासक अमल निधान रे ॥ प्र० ॥ २ ॥ सतजंगी नय सप्त सुहंकर, युक्तमान दोय सार रे ॥ षडजंगी उत्सर्गादिकनी, अडपक्ष सम्यककार रे ॥ प्र० ॥ ३ ॥ प्रवचनाधार संघ जग साचो, जिन पूजे जवपार रे || अरिहंत धर्म कथानक अवसर, करत प्रथम नमोकार रे ॥ प्र० ॥ ४ ॥ प्रवचन अमृत जलधर वरसे, जमिन अधिक उल्लास रे ॥ कुमति पंथ अंधजन जेते, सूकत जेसें जवास रे ॥ प्र० ॥ ५ ॥ संजव नरपति प्रवचन साधी, तीर्थंकर पद स्थान रे ॥ पंच अंग ताली सदगुरुकी, प्रवचन संघ निधान रे ॥ प्र० ॥ ६ ॥ श्रात्म अनुभव रत्न सुदंकर, अच रघ पद खान रे ॥ जो जवि पूजे मन तन शुझें, अरिहंत पदको निदान रे ॥ प्र० ॥ ७ ॥ काव्यं ॥ अतिशया० ॥ मंत्रः ॥ ॐ की श्री पर० ॥ श्रीप्रवचनाय जलादिकं० ॥ य० ॥ इति तृतीय प्रवचनपद पूजा ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ सूरिपदपूजा प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ चोथे पद सूरी नमो, चरण करण पद धार ॥ सारण वारण नोदना, प्रतिनोदन करतार ॥ १ ॥ षट् त्रिंशत गुण शोजता, संपत षट् पंचास ॥ ॥१॥
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