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अनुत्तर सुर सुख चंग ॥ तत्त्व रमणता संयम विप नहि, समर मर अनंग ॥ रे० जी० ॥ च० ॥ ४ ॥ वरुण देव संयम पद साधी, अरिहंत रूप असंग ॥ श्रातमानंदी सुरनर वंदी, प्रगट्यो ज्ञान तरंग ॥ रे जी० ॥ च० ॥ २ ॥ काव्यम् ॥ अतिश० ॥ मंत्रः ॐ श्री परम० ॥ चारित्राय जला० ॥ यजा० ॥ ११ ॥
॥ अथ द्वादश ब्रह्मचर्यपद पूजा ॥ ॥दोहा॥कामकुंज सुरतरु जणी, सब व्रत जीवन साकामित फलदायक सदा, जव दुख जंजनहार ॥१॥ तारागण में उमुपति, सुरगण में जिम इंद ॥ विरति सकल मुख मंगना, जय जय ब्रह्म थिरिंद ॥ २ ॥ ॥ मध्यरात्रि समयकी, श्याम नेक दया मोसें न करी, नेम नेक० ॥ ए देशी ॥
॥ राग सोरठी ॥ श्याम ब्रह्म सुहंकर लख री ॥ श्याम०॥ श्रांकण ॥ कुमति संग सब शुधबुध मूली, अनुभव रस छाव चख री ॥ श्याम० ॥ १ ॥ नव वाडें शुद्ध ब्रह्म आराधे, अजर अमर तुं अलख री ॥ श्याम० ॥ २ ॥ श्रदारिक सुर कामजालसें, अपने आपकों रख री ॥ श्याम० ॥ ३ ॥ सिंहादिक पशु य सब नाशे, ब्रह्मचर्य रस चख री ॥ श्याम० ॥
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