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(३७) उत्तंग॥ देशविरतिपात्र रौप्य, मध्यम सुमंग ॥दा॥ २॥ समदर्शी जीव मानो, जघन तरंग ॥ कांस्य पात्र पात्रसम, सुख दे निरंग ॥ दा॥३॥ शालिजअ कृत पुन्ना, धन्ना शुलचंद ॥ दानसें अनंत सुख, कहत जिणंद ॥ दा॥४॥ दानसें हरिवाहन लीनो, जिनपद संग ॥आतम यानंद कंद, सहज उमंग ॥ दाम् ॥५॥ काव्यम् ॥ अतिश०॥ मंत्रः॥ उँ की श्री परणादानाय जला॥ यजाम॥ति ॥१५॥
॥अथ षोडश वैयावृत्त्यपदपूजाप्रारंजः॥ .. ॥दोहा॥वेयावच्च पद सोलमें, अखिल विमल गुण खान॥ए अप्रतिपाती खरो, आगमकथित निदान ॥ ॥१॥ जिनसूरी पाठक मुनि, बालक वृक्ष गिलान ॥ तपी संघ जिनचैत्यनु, वेयावच्च विधान ॥
॥ गिरनारीकी पहाड़ी पर केसे गुजरी॥गिर॥ ए देशी ॥राग तुमरी ॥ शुरु वेयायच्च करि जिनपद वर री॥ शुरु ॥ ए श्रांकणी ॥ तीर्थंकर केवलि मनपर्यव, अवधि चतुर्दश पुवधरी री॥ शुरु ॥१॥ दशपूर्वी उत्कृष्ट चरणधर, लब्धिवंत ए जिन सगरी ॥ शुरु ॥२॥ जिनमंदिर जिन चैत्य करावे, पूजा करे मन तनु सुधरी ॥ शुरु० ॥३॥दशमे अंगें जि
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