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(११) ॥ २६ ॥ मलउपशम य उपशम यथी, जे होय त्रिविध अनंग ॥ सम्यक्दर्शन तेह नमीजें जिनधर्में दृढरंग रे ॥ न ॥ सि ॥२७॥ पंच वार उपशमिय लहीजें, दय उपशमिय असंख ॥ एकवार दायिक ते समकित, दर्शन नमिये असंख रे ॥ ज० ॥ सि० ॥ २ ॥ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्रतरु नवि फलियो। सुख निर्वाण न जे विण लहियें, समकित दर्शन बलियो रे ॥ ज० ॥ सि ॥२॥ सडसह बोलें जे अलंकरियुं, झानचारित्रनुं मूल ॥ समकित दर्शन ते नित प्रणमुं, शिवपंथनुं अनुकूल रे ॥ ज० ॥ सि ॥३०॥
॥ ढाल ॥ समसंवेगादिक गुणा, दय उपशम जे आवे रे ॥ दर्शन तेहिज आतमा, शुं होय नाम धरावे रे ॥ वीर० ॥ ७ ॥ इति सम्यक् दर्शन पूजा ॥
॥ सप्तम सम्यक्झानपद पूजा प्रारंजः ॥ ॥ काव्यं, वज्रावृत्तम् ॥ अन्नाणसंमोहतमोहरस्स नमो नमो नाण दिवायरस्स ॥ __॥ मुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ होये जेहथी शान शुद्ध प्रबोधे, यथावर्ण नासे विचित्रावबोधे ॥ तेणें जाणियें वस्तु षड् अव्यनावा, न हुये वितबा ( वाद)
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