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( ६ ) शदिग सुगंध पूरे ॥ श्रातम धूप पूजन जविजनके, करम दुर्गंधने चूरे रे ॥ जवि० ॥ ४ ॥
॥ दोहा ॥ धूपदान निज घट करी, जिनजक्तीवर धूप ॥ करम कुगंधी मिट गई, पूजे श्रातमनूप ॥ १ ॥
॥ अथ गीतं ॥ राग खमाचका तिलाना ॥ ॥ पूजित आनंद कंदरी हेरी माई ॥ पूजित० ॥ ए क ॥ जिनप जिनंद चंद, पूजे सुर नरवृंद ॥ सेवत अनूप धूप, मिटे दुर्गंध रूप ॥ जिनवर अंध चम, तिमिरजानु तुं ॥ मरन हरन तुम, चरनननन ॥ पूजित० ॥ १ ॥ दश अंग धूप खेवी, दशही निदान सेवी ॥ सुनग सुरंगी रंगी, मुगती वधूटी लेवी ॥ जिन वर सेवी हम, ऊर्ध्व अजंग गति ॥तिम तुम गति जि न, रचनननन पूजित० ॥ २ ॥ सिद्ध बुद्ध श्रजर, अमर निर्मल || कालवेदी जव बेदी, दूर करी क लमल | एसा महानंद पद, धूप पूजा फल करे ॥ - खय जंकार नरे, कोन करे वरनननन ॥ पूजित० ॥ ॥३॥ वामांगें धूप करी, पूजी मनशुद्ध करी ॥ चारगति दुःख हरी, आत्म आनंद जरी ॥ विनयंधर नृपसात, जव सिद्धि वर ॥ नहिं को तुम विन, सरनननन,
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